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मीडिया स्वस्थ लोकतंत्र का अपरिहार्य अंग है,कैसे?- प्रो. संजय द्विवेदी. - श्रीनारद मीडिया

मीडिया स्वस्थ लोकतंत्र का अपरिहार्य अंग है,कैसे?– प्रो. संजय द्विवेदी.

मीडिया स्वस्थ लोकतंत्र का अपरिहार्य अंग है,कैसे?–प्रो. संजय द्विवेदी.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

भारत में लोकतंत्र एक संस्कार, जीवन मूल्य और जीवन पद्धति है। भारत का लोकतंत्र सदियों के अनुभव से विकसित हुई व्यवस्था है। आज भारत के लोकतंत्र में समाहित शक्ति ही देश के विकास को नई ऊर्जा और देशवासियों को नया विश्वास दे रही है। दुनिया के अनेक देशों में जहां लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को लेकर अलग स्थिति बन रही है, वहीं भारत में लोकतंत्र नित्य नूतन हो रहा है।

लोकतंत्र को पूरे विश्व में स्थापित करने में मीडिया ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भारत के विकास का लक्ष्य लेकर देश में पत्रकारिता की शुरुआत हुई थी। अपनी लंबी यात्रा में मीडिया ने इस बात को साबित किया है, कि वह सही मायनों में लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है। स्वतंत्रता आंदोलन के समय से ही सामाजिक चेतना जागृत करने में मीडिया की बड़ी भूमिका रही है। दुनिया का कोई भी देश हो, मीडिया बदलाव और चेतना का वाहक रहा है।

किसी भी विषय पर लोगों को जागरूक करने और जनमत तैयार करने में मीडिया की भूमिका होती है। मीडिया सरकार और जनता के बीच संवाद सेतु का काम करता है। जनता की समस्याओं और उसकी बातों को शासन तक पहुंचाने में मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका है। यही कारण है कि आज भी लोग मीडिया की ओर उम्मीद से देखते हैं।

मीडिया स्वस्थ लोकतंत्र का न केवल एक अंग है, बल्कि एक अपरिहार्य शर्त भी है। गांधी जी ने कहा था कि आज लोग पवित्र ग्रंथों से अधिक प्रेस पर विश्वास करते हैं। यह बात अतिश्योक्ति लग सकती है, परंतु इसमें वर्तमान समाज की सच्चाई भी है। यद्यपि हमारे संविधान में प्रेस की आजादी को खुले तौर पर मूल अधिकार नहीं माना गया है, लेकिन संविधान सभा की बहस से ज्ञात होता है कि मीडिया की स्वतंत्रता को अभिव्यक्ति की मौलिक स्वतंत्रता का ही विस्तार मानने पर सर्वसहमति थी। उच्चतम न्यायालय के अनेक निर्णयों ने इस मान्यता को वैधानिकता भी प्रदान की है।

आपातकाल के कड़वे अनुभव के बाद, हमारी संसद में मीडिया की स्वतंत्रता के प्रति सर्वसम्मति रही है। जहां बाकी तीन स्तंभों के लिए संविधान में प्रावधान है, वहीं मीडिया को जन विश्वास प्राप्त है। मीडिया की विश्वसनीयता जनता के सरोकारों और जन विश्वास पर ही टिके होते हैं। मीडिया राष्ट्रीय संसाधन है, जिसे पत्रकार जन विश्वास में प्रयोग करते हैं। इसलिए आवश्यक है कि मीडिया जनसरोकारों के प्रति सत्यनिष्ठ रहे। पत्रकार का कर्तव्य है कि वह देश के जनमानस को पढ़े और निर्भीक हो कर उसे मुखर अभिव्यक्ति दे। पत्रकारिता का उद्देश्य मात्र समाज सेवा ही होना चाहिए।

लोकतंत्र में संसद और मीडिया एक दूसरे के सहयोगी हैं। दोनों ही संस्थान जनभावनाओं को अभिव्यक्ति देते हैं। आज जब हम बढ़ती और बदलती जनअपेक्षाओं के युग में रह रहे हैं, तब आवश्यक है कि हम भी अपने स्थापित पूर्वाग्रहों को त्यागें और जन अपेक्षाओं को स्वर दें। मीडिया को विकासवादी सकारात्मक राजनीति का वाहक बनना होगा। मीडिया सरकारों और राजनैतिक दलों की जवाबदेही अवश्य तय करे, परंतु उसके केंद्र में जनसरोकार हों, न कि सत्ता संस्थान।

मीडिया यथास्थितिवादी राजनीति में बदलाव का कारक बने। मीडिया को दलीय राजनीति से ऊपर उठकर जनकेन्द्रित मुद्दे उठाने चाहिए। मीडिया में लोकतांत्रिक संस्कारों को दृढ़ करना है, तो पत्रकारिता के केंद्र में जनसरोकारों को रखना होगा। यहां स्थानीय समाचार पत्रों की महती भूमिका रहती है। स्थानीय समाचार पत्र न केवल स्थानीय अपेक्षाओं को प्रतिबिंबित करते हैं, बल्कि भारतीय भाषाओं में प्रकाशित होने के कारण जनाकांक्षाओं के अधिक निकट भी हैं।

झारखंड में पहाड़ की तलहटी में बसे दो गांवों- आरा और केरम के निवासियों द्वारा किए जल संरक्षण के प्रयासों को देश के अन्य भागों तक मीडिया ने ही पहुंचाया है। जन सरोकार के इन विषयों पर जन शिक्षण करना आज पत्रकारिता का तकाजा है।

पूरी दुनिया में मानवाधिकारों से जुड़े जितने भी मुद्दे हैं, उन सभी को प्रमुखता से आगे बढ़ाने का कार्य मीडिया ने सकारात्मक ढंग से किया है। अच्छे को अच्छा और बुरे को बुरा कहने की ताकत अगर किसी में हैं, तो वो सिर्फ मीडिया में ही है। आज लोगों में मानवाधिकारों के प्रति जागरूकता इसीलिए है, क्योंकि मीडिया अपनी भूमिका सार्थक ढंग से निभा रहा है। मीडिया के चलते जो बातें कल तक छुपी रह जाती थीं, वो सारी बातें आज पूरी दुनिया के सामने हैं। वर्ष 1984 में इलाहाबाद में पुलिस द्वारा आदिवासियों के उत्पीड़न की खबर सभी के पास थी।

देश के कई पत्रकार इस कवरेज को करने पहुंचे, लेकिन पुलिस और प्रशासन के खिलाफ खबर छापने की हिम्मत उस वक्त किसी ने नहीं दिखाई। तब ये खबर केवल एक अखबार में प्रकाशित हुई। सिर्फ एक अखबार में इस खबर के छपने के बाद विधानसभा में हंगामा हो गया और इसके बाद सभी दोषियों को सजा मिली। मीडिया ने यह साबित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है कि एक प्रजातांत्रिक देश में पद और सत्ता के आधार पर इंसान-इंसान में भेद नहीं किया जा सकता। सभी मनुष्य समान हैं। मीडिया ने वर्तमान संदर्भ में एक नई संस्कृति को विकसित करने की कोशिश की है,

जिसे हम सशक्तिकरण की संस्कृति भी कह सकते हैं। आज मीडिया के कारण ही मानव अधिकारों के बहुत सारे संवेदनशील मामले सामने आए हैं। वर्ष 2005 में मीडिया ने लोकहित में यह बात लगातार उठाई कि सरकारी जानकारियों तक आम लोगों की पहुंच क्यों नहीं है। जब सब कुछ सरकार जनता के लिए करती है, तो ये जानना भी जनता का हक है कि आखिर उसकी सरकार कर क्या रही है।

और यदि कोई काम समय पर पूरा नहीं होता या उसमें भ्रष्टाचार हुआ है, तो सिर्फ यह कहने से काम नहीं चलने वाला कि यह गोपनीय है। इस दौरान यदि किसी के मानवाधिकारों का भी हनन हुआ है, तो वह भी सामने आना चाहिए और भविष्य में ऐसा न हो, यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए। मीडिया की लगातार उठाई गई मांग का परिणाम था कि वर्ष 2005 में देश में एक सशक्त सूचना का अधिकार अधिनियम पारित हुआ, जिससे सरकार के प्रत्येक विभाग से जुड़ी जानकारियों तक आम नागरिक की पहुंच हो गई।

लोकतंत्र की सफलता और विफलता उसकी पत्रकारिता पर निर्भर करती है। जब कोरोना संक्रमण अपना कहर बरपा रहा था और डॉक्टर्स व पैरामेडिकल स्टाफ योद्धाओं की भांति मैदान में डटे हुए थे, तो पत्रकार अपनी कलम और अपनी आवाज के जरिए लोगों को जागरुक करने का, उन तक जानकारी पहुंचने का काम कर रहे थे। डिजिटल मीडिया खासकर सोशल मीडिया ने देश और दुनिया में एक बड़ी जनसंचार क्रांति को जन्म दिया है।

इसने जन-सामान्य को बड़ी सरलता से आपस में जोड़ा है। इस विश्वव्यापी जुड़ाव का ही असर है कि आज कोरोना के खिलाफ लड़ाई का एक बड़ा हिस्सा इसी के जरिये लड़ा जा रहा है। देश में आज लोकतंत्र की जीवंतता का सबसे बड़ा कारण मीडियाकर्मियों की सक्रियता ही है। भारत में मीडिया न सिर्फ शांति स्थापित करने का कार्य कर रहा है, बल्कि लोगों को सूचनाओं के माध्यम से सशक्त भी बना रहा है।

गुरु नानक देव जी ने भी कहा है- “जब लगु दुनिआ रहीए नानक। किछु सुणिए, किछु कहिए।।” यानि जब तक संसार रहे तब तक संवाद चलते रहना चाहिए। कुछ कहना और कुछ सुनना, यही तो संवाद का प्राण है। यही लोकतंत्र की आत्मा है। राष्ट्रीय संकल्पों की सिद्धि के लिए हम एक स्वर में, एक आवाज में खड़े हों, ये बहुत जरूरी है।

आज दुनिया के तमाम देश प्रगति और विकास की ओर तेजी से बढ़ते भारत को एक नई उम्मीद से देख रहे हैं। भारत की आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक यात्रा की एक नई शुरुआत हुई है। आज भारत की पहचान बदल रही है और वह एक समर्थ परंपरा का सांस्कृतिक उत्तराधिकारी ही नहीं है, बल्कि तेजी से विकास करता हुआ राष्ट्र है। इसलिए वह उम्मीदें भी जगा रहा है। हम सबने ये देखा है, कि बीते कुछ वर्षों में जन-भागीदारी भारत का नेशनल कैरेक्टर बनता जा रहा है। पिछले 6-7 वर्षों में जन-भागीदारी की ताकत से भारत में ऐसे-ऐसे कार्य हुए हैं, जिनकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था।

आजादी के अमृत महोत्सव का जश्न मनाते हुए हमारा यह संकल्प होना चाहिए कि भारत विश्व में एक लोकतांत्रिक ताकत के रूप में उभरे। इसके लिए कई क्षेत्रों में हमें वैश्विक ऊंचाई को प्राप्त करना है। चाहे साइंस हो, टेक्नोलॉजी हो, इनोवेशन हो, स्पोर्ट्स हो, उसी प्रकार दुनिया में भारत की आवाज बुलंद करने के लिए हमारा मीडिया भी वैश्विक पहुंच बनाए, वैश्विक पहचान बनाए, ये समय की मांग है।

आज भारत की मीडिया को इस चुनौती को स्वीकार करना चाहिए और राष्ट्र निर्माण में अपना योगदान देना चाहिए। मीडिया इस देश की विविधता और बहुलता को व्यक्त करते हुए इसमें एकत्व के सूत्र निकाल सकता है। मीडिया का काम सिर्फ सूचनाएं देना नहीं है, अपने पाठकों को बौद्धिक रूप से उन्नत करना भी है। कोई भी लोकतंत्र ऐसे ही सहभाग से साकार होता है, सार्थक होता है।

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