स्मृतियाँ अतीत हैं ,सपने भविष्य हैं जबकि जीवन वर्तमान है, इनका मिलन ही जिन्दगी है- सुनील पाठक
हमारे गुरुजी आदरणीय ब्रजनंदन किशोर सर
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
वर्ष 1979-81 सत्र इंटर का था मेरा डी ए वी काॅलेज सीवान में।बाद में मैं राजेन्द्र काॅलेज छपरा आ गया था।सीवान काॅलेज में इंटर कला के तीन विषयों में एक प्रधान हिन्दी के विद्यार्थी होने के नाते हिन्दी के सभी प्राध्यापकों से छोटी कक्षाओं में भी अलग से मुलाकात हो जाती थी।त्रिपाठी सियारमण जी तब हिन्दी विभागाध्यक्ष थे।एक थे सोमेश्वर मिश्र जी और दूसरे डाॅ नंदकिशोर राय जी। फिर मेरे रहते ही एक नये प्राध्यापक आये थे-डाॅ ब्रजनंदन किशोर ।
कक्षा में कविता संग्रह ‘कादम्बिनी’ की स्पेसिमेन काॅपी पर मेरे चाचाजी डाॅ.प्रभाकर पाठक(ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय दरभंगा)का हस्ताक्षर देखकर पूछ बैठे थे सर-“यह किताब तुम्हारे पास यहाँ कैसे पहुँची?”मैंने बताया मैं डाँ.पाठक का ही भतीजा हूँ।उन्होंने कहा कि मैं उनका विद्यार्थी रह चुका हूँ।फिर तो एक घनिष्ठता बन गई।सर अकेले ही शुरु -शुरू में डेरा लेकर रहते थे।मैं कुछ-कुछ पढ़ने-समझने सर के डेरे पर जाने लगा।
नये शिक्षक को विद्यार्थी कुछ -कुछ अनर्गल पूछकर परेशान करते हैं।हमने भी शुरु-शुरु में कोशिश की थी।कुछ अपनी उच्छृंखलता और कुछ वरीय शिक्षकों के उकसावे पर। पर दाल गलती नहीं देख हम सभी शांत हो गये थे।सर बराबर तैयार होकर आते थे और टेक्स्ट पढ़ाने की ही कोशिश करते थे।आधुनिक कविताओं पर उनकी पकड़ काफी अच्छी थी।अज्ञेय और नयी कविता के कवियों को पढ़ना सर ने ही सिखाया था।उनसे सबसे बड़ा सबक यह मिला था कि भाषायी अलंकृति (तत्समतामूलक)के बगैर भी सुन्दर भावों और विचारों की सरल-सहज अभिव्यक्ति हो सकती है।कुछ ऐसे ही विचार हमने तारसप्तकीय कवि और अपने प्राध्यापक स्व. प्रो. राजेन्द्र किशोर जी से भी सुने थे।
गुरुवर ब्रजनंदन किशोर जी बोलते थे बहुत सरल- सहज और थे भी बिल्कुल शांत प्रकृति के।पूरे शालीन ।मितभाषी और मृदुभाषी भी।काँलेज की राजनीति से कोई लेना-देना नहीं।आए,क्लास लिया और डेरा लौट गये। उस जमाने में सर की टेबुल पर मैडम की खूबसूरत- सी स्टील फ्रेम में मढ़ी तस्वीर हमने देखी थी।उस समय काॅलेज की पोस्ट आफिस के पोस्टमास्टर थे जयप्रकाश जी।महाराजगंजी गाड़ी में आते-जाते भेंट उनसे होती रहती थी।उन्होंने एक दिन कहा “का पाठक हिन्दी पढ़ेवाला सबलोग एके लेखाँ होला का?” मैंने पूछा क्या बात है?फिर उन्होंने ब्रजनंदन सर के बारे में जो बताया वह आज मैं पहली बार उनसे भी साझा कर रहा हूँ।उन्होंने कहा-“अरे भाई! तहार गुरु किशोर जी बड़ी चिट्ठी लिखते हैं अपनी मिसेज को।”
जयप्रकाश जी की बात का अर्थ मुझे तब समझ में आया जब नौकरी में आ जाने के बाद सर के पास मैं मिलने जाता था। मैडम भी वी एम स्कूल में बाद में आ गयी थीं । सर जब हमलोगों से मिल रहे होते थे तो चाय बिन माँगे पहुँच जाती थी।सर ने चिट्ठियों के जरिए जो मिठास घोली थी वह चाय में खूब घुली-मिली लगती थी।सर को कभी क्रोधित होते हमने नहीं देखा।बातचीत में भी अत्यंत संयत-न एक शब्द ज्यादा, न कम।हिन्दी वाले बातूनी खूब होते हैं मगर हमारे किशोर सर इस धारणा के बिल्कुल अपवाद थे।
सर के लेखन में अज्ञेय और मुक्तिबोध का मिलाजुला प्रभाव शुरु से ही हमलोग देखते रहे हैं।अपनी कविताओं में बेहद संश्लिष्ट।मौलिक अनुभूतियों की काफी गज्झिन अभिव्यक्ति।
आज सर की दो किताबें मैंने उनसे मँगायी है ।उनकी लम्बी कविता की एक पुस्तक है-‘परछाइयों की अधखिली रात’ और दूसरी समीक्षा की किताब है-‘शिल्प,रचना- प्रक्रिया और अन्तर्वस्तु’।
मैं आज अपने इस लघु संस्मरण का अंत गुरुजी की तीस पृष्ठों वाली इस लम्बी कविता की आखिरी कुछ पंक्तियों से करना चाहता हूँ-
“सपने- के- भीतर सपने- के- भीतर-सपने…./अंतहीन कड़ी स्वप्न की /वही अतीत/वही वर्तमान/वही भविष्य/वही सबकुछ।”
ये सपना ही तो है जिसमें बहता मैं कहाँ से कहाँ चला गया था,45 वर्षों का अतीत लग रहा था ,काश आज मेरा वर्तमान हो जाता! जिसमें वही सर भी होते ,उनकी चिट्ठियाँ भी होतीं और हमारी गुस्ताखियाँ भी।
दरअसल , स्मृतियाँ अतीत होती हैं ,सपने भविष्य होते हैं और जीवन वर्तमान होता है जिसे ये दोनों मिलकर गुलज़ार करते हैं। सर की कविताओं पर विस्तार से कभी बातें करूँगा।फिलवक्त यहीं रुकता हूँ।
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