बिहार की राजनीति में लोकप्रिय जननेता मुनीश्वर बाबू और उनसे जुड़े हुए राजनीतिक किस्से
श्रीनारद मीडिया, स्टेट डेस्क:
जब देश के कई राज्य – पश्चिम बंगाल, असम, केरल, तमिलनाडु और पुडुचेरी – चुनावी समर में व्यस्त हों, तब ऐसे समय में बिहार की राजनीति के उस अप्रतिम जननेता को याद करना स्वाभाविक है, जिनके लिए जनता ही दल थी और सेवा ही राजनीति। वह नाम है – मुनीश्वर बाबू, जिन्हें इतिहास मुनीश्वर प्रसाद सिंह के नाम से जानता है।
यह वह दौर था जब राजनीति में विचार, सिद्धांत और त्याग की प्रधानता थी। मुनीश्वर बाबू वही जननेता थे, जिन्हें अंग्रेज़ी हुकूमत ने फाँसी और काला पानी की सजा सुनाई थी। देश आजाद हुआ तो वे नौकरी को ठुकराकर 1957 में अपनी जन्मभूमि महनार से चुनावी रणभूमि में उतरे। पहली बार हार का सामना करना पड़ा, पर 1962 में जब जीते तो ऐसा रिकॉर्ड बनाया कि आज तक स्मरण किया जाता है।
मंडल युग का वह चुनावी किस्सा:
साल था 1990। मंडल कमीशन की लहर देश भर में तेज थी। जनता दल का दबदबा चरम पर था। यही वह समय था जब जेपी आंदोलन से उभरे नेता सत्ता की सीढ़ियाँ चढ़ रहे थे और स्वतंत्रता आंदोलन से निकले समाजवादी धीरे-धीरे हाशिये पर धकेले जा रहे थे।
जनता दल ने एक योजना के तहत पुराने समाजवादियों को किनारे करना शुरू कर दिया। उनमें से एक थे मुनीश्वर बाबू। उन्हें उनके गढ़ महनार छोड़कर मुजफ्फरपुर के गायघाट से चुनाव लड़ने को कहा गया। पर वे अडिग रहे। उन्होंने स्पष्ट कह दिया – “महनार नहीं छोड़ूंगा।” पार्टी ने टिकट नहीं दिया, तो वे भी चुप नहीं बैठे। जनभावनाओं ने उन्हें उठाया और सोशलिस्ट पार्टी (लोहिया) के टिकट पर चुनावी मैदान में उतार दिया।
वीपी सिंह की सभा और जनता की हुंकार:
जनता दल ने उनके विरुद्ध रघुपति सिंह, रघुवंश प्रसाद सिंह के छोटे भाई को मैदान में उतारा। खुद प्रधानमंत्री वीपी सिंह महनार के बालक उच्च विद्यालय मैदान में प्रचार को आए। लेकिन मंच, कार्यकर्ता और जनता – सब मुनीश्वर बाबू के थे। जैसे ही वीपी सिंह ने बोलना शुरू किया – “मैं चाहूंगा कि…” – वैसे ही ज़ोरदार नारों से मंच गूंज उठा –
“वीपी सिंह की अंतिम आवाज़, वीर मुनीश्वर ज़िंदाबाद!”
सभा पल भर में रंग बदल गई। जो मंच विरोध के लिए बना था, वह समर्थन का प्रतीक बन गया।
जब प्रशासन भी झुक गया जनता के आगे:
मतदान के दिन आठ बूथों पर 90% से ज्यादा वोटिंग हुई। प्रशासन पर दबाव था, दोबारा मतदान हुआ – और इस बार और ज्यादा वोट पड़े। शुरूआती मतगणना में देसरी और सहदेई से बस 3,300 वोट मिले। निराशा के भाव मंडराने लगे, पर मुनीश्वर बाबू मुस्कराए – “अभी महनार की पेटियां खुलनी बाकी हैं।”
जब महनार का रिजल्ट आया, तो तस्वीर बदल गई। 800 वोटों से ऐतिहासिक जीत दर्ज हुई। मगर प्रशासन उन्हें प्रमाणपत्र देने से हिचक रहा था। तब वह जननेता जो कभी प्रमाणपत्र लेने नहीं जाता था, खुद काउंटिंग सेंटर पर पहुंचा। सारा सिस्टम उनके सामने झुक गया और उन्हें उनका विजय पत्र सौंपा गया।
वह दृश्य जब महनार ने दिवाली और होली एक साथ मनाई:
जीत की खबर जब गांव पहुंची तो हर गली, हर मोहल्ला, हर दिल झूम उठा। दलितों की बस्ती में अष्टयाम हो रहा था, महिलाएं दीप जलाकर पूजा कर रही थीं। यह किसी नेता की जीत नहीं थी, जनता की विजय थी।
यह चुनाव इसलिए भी याद रखा जाना चाहिए क्योंकि सिर्फ 50,000 रुपये के चंदे से यह पूरी चुनावी लड़ाई लड़ी गई थी। जहाँ एक ओर सत्ता, संसाधन और सत्ताधारी नेता एकजुट थे, वहीं दूसरी ओर था – एक अकेला जननेता, और उसके पीछे खड़ी थी – जनता की अडिग दीवार।
एक प्रेरणा, एक आदर्श, एक जननेता:
मुनीश्वर बाबू की कहानी बताती है कि सच्चा जननेता न तो पद का मोहताज होता है, न पार्टी का। वो चलता है तो जनसमर्थन उसके पीछे चलता है। राजनीति में जब भी मूल्य और मर्यादा की बात होगी, मुनीश्वर बाबू का नाम सम्मानपूर्वक लिया जाएगा।
उनके श्री चरणों में कलम से अर्पित एक विनम्र श्रद्धांजलि।
आलेख आभार – ✍ मनिंद्र नाथ सिंह ‘मुन्ना’
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