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पितृपक्ष की शुरूआत कब और क्यों हुई थी पिंडदान क्यों करना चाहिए जानिए सबकुछ पंडित पंकज मिश्रा जी से - श्रीनारद मीडिया

पितृपक्ष की शुरूआत कब और क्यों हुई थी पिंडदान क्यों करना चाहिए जानिए सबकुछ पंडित पंकज मिश्रा जी से

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सनातन धर्म में पितृपक्ष का एक बहुत हीं खास महत्व है। इस पक्ष में पूर्वजों को याद करके पिंडदान करने और दान-धर्म करने की परंपरा सदियों से चली आ रही है। आज के समय में ज्यादातर लोगों को ये मालूम भी नहीं होगा कि पितृपक्ष की शुरूआत कब और क्यों हुई थी तथा पिंडदान गया में हीं क्यों किया जाता है। हमारे संवाददाता ने जब जाने-माने प्रसिद्ध ज्योतिष शास्त्री पंडित पंकज मिश्रा जी से इस बारे में बात किया तो उन्होने पितृपक्ष के बारे में बहुत हीं सुन्दर बातें बताई। आइए जानते हैं पंडित पंकज मिश्रा जी के शब्दों में पितृपक्ष की महत्ता के बारे में।

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पितृ दोष निवारण का महनीय तीर्थ गया


पितृपक्ष

जीवतो वाक्यपालश्च मृताटे भूरिभोजनम।
गयायां पिंडदाश्च त्रिमि: पुस्त्रय पुत्रता ||
                                     (श्री मददेवी भागवत 6/4/15)

जीते जी पिता के वचन का पालन करना, श्राद्ध दिवस पर प्रचूर भोजन कराना और गया में पिंडदान करना इन तीन कार्यों से ही पुत्र की पुत्रता सिद्ध होती है।

पुरातन प्रज्ञा के प्रदेश बिहार की राजधानी पटना से तकरीबन 100 कि. मी. दक्षिण की ओर फल्गु नदी के किनारे विराजमान गया भारत वर्ष के प्राचीनतम नगरी मे से एक है । सदियो से श्राद्ध, पिंडदान व तर्पण की सर्वख्यात भूमि के रूप में चर्चित गया का वर्णन विवरण श्री वाल्मिकी रामायण, महाभारत, आनंद रामायण, वायु पुराण, अग्नि पुराण, गरुण पुराण, स्कंदपुराण, पदम पुराण, विष्णु पुराण सहित कितने ही उपपुराण, स्मृति, उपनिषद, ऐतिहासिक पुरातात्विक आख्यानो मे द्रष्टव्य है।

जन्म के साथ ही मनुष्य इस भू-धरा पर तीन प्रकार के ऋण से बंध जाता है – देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण। इसमें पितृ ऋण से उऋण होना तभी संभव है जब आप गया मे अपने पितरों के नाम श्राद्ध, पिंडदान जैसे धार्मिक अनुष्ठान संपन्न करते है। इस तरह पितृ दोष निवारण का सबसे महान स्थल गया है जिसे “पितृ पक्ष का महातीर्थ’ भी कहा गया है।

यह मानने कि बात है कि चंद्र मास की आधी अवधि पक्ष कही जाती है और पूरे वर्ष (पुरूषोत्तम मास को छोड़कर) में 24 पक्ष की स्थिति बोध होती है। इसी में आश्विन माह का प्रथम पक्ष अर्थात आश्विन प्रतिप्रदा से आश्विन अमावस्था की तिथि को पितृपक्ष के रूप में निरूपित किया आता है जो पितरण कार्य के लिए सर्व उपयुक्त कार्यकाल स्वीकारा जाता है।

युगों-युगों से संपूर्ण भारतीय भूमि में पंचयज्ञ की प्रधानता रही है जिसमे ‘ब्रह्मयज्ञ’, ‘देवयज्ञ’, ‘भूतयज्ञ’, ‘पितृयज्ञ’ और ‘नृयज्ञ का नाम आता है। इसी में पिंड क्रिया द्वारा जिस यज्ञ का संपादन किया जाता है वही पितृयज्ञ है और इसके अन्तर्गत श्राद्ध, पिंडदान व तर्पण का विधान है। ऐसे तो संपूर्ण भारतीय परिक्षेत्र में कितने ही तीर्थो मे श्राद्ध, पिंडदान जैसे अनुष्ठान किए जाते हैं पर इस कर्मकृत्य मे गया की महिमा अक्षुण्ण और माहात्मय अपरम्पार है।

प्राचीन मगध क्षेत्र के हृदय भाग में अवस्थित गया तीर्थ का यह वार्षिक समागम पुरातन काल से ही देश-विदेश में प्रसिद्ध रहा है जिसे ‘मगहिया महाकुंभ’ भी कहा जाता है। श्राद्ध, पिंडदान की महता के कारण ही गया को ‘मोक्ष तीर्थ’, ‘सायुज्य मुक्ति तीर्थ’, ‘पितृतीर्थ व ‘पंचम धाम’ की संज्ञा से अलंकृत किया गया है।

सर्वप्रथम यह जानना परम आवश्यक हो जाता है कि

श्राद्ध/ पिंडदान का सर्वोत्कृष्ट स्थल गया ही क्यों है?

पितृपक्ष

विषय से जुड़े तथ्य व साक्ष्यों के अध्ययन, अनुशीलन स्पष्ट करते हैं कि श्वेतवराह कल्प में त्रिपुरासुर व प्रभावती देवी का ज्येष्ठ पुत्र ‘गय’ हुआ परम भक्त बाल्यकाल से ही भगवान श्री विष्णु का पराक्रमी व साधक प्रवृति का था। विवरण है कि इसने अपने दाहिने पैर के अंगुठे पर अवलम्बित होकर लगातार निराहार रहकर दस हजार वर्षों की तपस्या की। 100 योजन लंबा और 60 योजन चौड़ा गयासुर ने कोलाहल पर्वत पर तपस्या की और इससे प्रसन्न होकर श्री विष्णु ने न सिर्फ अपने दिव्य दर्शन दिए वरन वरदान भी दिया कि जो तुम्हे स्पर्श कर ले, वो स्वर्गलोक का साक्षात अधिकारी बन जाएगा।

अब इस गयासुर के प्रभाव से सत्य-असत्य भाव के सभी जीव स्वर्ग को जाने लगे। इससे देव लोक में हलचल मच गई। अंत मे युगपिता ब्रहमा की मंत्रणा से सृष्टि के सफल संचालनार्थ एक यज्ञ होना सुनिश्चित हुआ और विप्र रूप में स्वयं ब्रह्मा ने ‘गय’ से याचना की कि उस भू-लोक मे तेरे शरीर जैसा परम पवित्र कुछ भी नही अतः भगवान विष्णु का यज्ञ तेरी काया पर ही संपन्न होगा। गय सहज में मान गया। कोटि-कोटि तीर्थ व देववृन्द की उपस्थिति मे यज्ञ होते समय ‘गय’ का शरीर पुन: कंपायमान हो गया।

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अब क्या था, संपूर्ण देवताओ के अनुनय विनय से भगवान श्री विष्णु गदा धारण कर यहां आए और अपने दाहिने पैर से ‘गय’ की छाती पर ऐसा भार बनाया कि गय सदा सर्वदा के लिए भावशून्य हो गया। इस तरह यह गयासुर की काया की माया है कि आज भी गया मे इसके नाम की आभा सदैव जीवन्त है। गयासुर के मांग के अनुरूप इस नगर को ‘गया’ कहा जाता है जिसका विस्तार प्राच्य काल में कुछ छ: कोस (पांच कोस का शरीर और एक कोस का सिर) का था।

गया में श्राद्ध पिंडदान की प्रथम शुरुआत युग पिता ब्रह्मा द्वारा किया गया। उल्लेख है कि इसी क्रम में ब्रह्मा जी ने चौदह गोत्रीय ब्राह्मण को उत्पन्न किया जो गयापाल (गयावाल) ब्राह्मण कहे जाते है। ब्रह्मकल्पित इन्हीं विद्वान ब्राह्मण या गयापाल पंडा जी के निर्देशन में गया श्राद्ध किए आने की निर्बाध परंपरा है। श्री विष्णु पद मंदिर पूजा और श्राद्ध पिडंदान के जानकार पंडा और गुर्दा घराने के वंशज महाकाल बाबू बताते हैं कि बगैर गयापाल के आर्शिवाद और सुफल के गया श्राद्ध की पूर्णता नहीं हो सकती।

यही कारण है कि गया आने वाले हरेक भक्त अपनी शक्ति व सामर्थ्य के अनुरूप गयापालों की सेवा अवश्य करते हैं। इनके सभी परिजन भी विष्णुपद और उससे सटे अंदर गया मुहल्ले में निवास करते हैं। श्राद्ध पिंडदान के विशेष अधिकारी होने के कारण इन्हे ‘श्री विष्णु का पार्षद’ भी कहा जाता है।

श्राद्ध पिंडदान के मिश्रित अति प्राचीन काल से गया में न सिर्फ देवी-देवता वरन महात्माओं के साथ राजे-महाराजे व आम भक्तों का आगमन बना हुआ है। इसी पक्ष कारण गया को भ्रमणकालीन संस्कृति का मूर्धन्य केन्द्र कहा जाता है। जहाँ रामायण काल में श्री राम, माता सीता, भ्राता लक्ष्मण व भरत का आगमन हुआ तो महाभारत काल में ऋषि-मुनियों के अलावे पांच पांडवों का पर्दापण हुआ है।

ऐतिहासिक युग में तथागत भगवान बुद्ध के बाद तो यहाँ देशी ही नही विदेशी लोगों का आगमन भी बना और इसकी परिपाटी वर्तमान मे भी जीवन्त है।

गया में श्राद्ध /पिंडदान कहाँ किए जाते हैं?

गया में श्राद्ध पिंडदान के कार्य जहाँ संपन्न किए जाते हैं उन्हें पिंडबेदी अथवा तीर्थ बेदी भी कहा जाता है। प्राचीन काल में इनकी संख्या 365 थी जहाँ एक-एक करके पूरे वर्ष तक धार्मिक कर्म कृत्य होता रहता था पर घटते-घटते काल के गाल में समाहित होने के बाद इनकी संख्या अब पचास के करीब हैं जिनमे श्री फल्गुजी, विष्णुपद व अक्षयवट का बड़ा हीं मान है और इन तीनों को मिलाकर ‘त्रिस्तम्भ वेदी’ भी कहा गया है।

गया में इन पिंड वेदियों में मंदिर, कुंड, तालाब, पर्वत, वृक्ष, कूप, नदी आदि की पूजा होती है जिनके अलग-अलग नाम है। यहाँ के कुछ वेदी वैदिक कालीन है तो कुछ की प्रतिष्ठा प्रभाविष्णु रामायण काल अथवा महाभारत काल मे स्थापित हुई है।

गया तीर्थ के पिंडवेदियों में गोदावरी वेदी को पहला व अक्षयवट को अंतिम बताया गया है। यह जानने है बात है कि पुराणों में ‘पुनपुन नदी’ तीर्थ को गया का प्रवेश द्वार कहा गया है। इसलिए प्रथम बेदी का काज पुनपुन में ही करके गया श्राद्ध के श्री गणेश का शास्त्रोक्त विधान है पर जो यह नही कर पाते वह गोदावरी से हीं गया श्राद्ध का शुभारंभ करते हैं।

पिंडदान/श्राद्ध कितने दिनों में सम्पन्न होता है?

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आज समय के साथ यहाँ काफी कुछ बदलाव आया है और ऐसी स्थिति में यहाँ श्राद्ध कर्ता एक दिवसीय, तीन दिवसीय, पंचदिवसीय, सप्तदिवसीय और पंद्रह दिनो में गया श्राद्ध सम्पन्न कर लेते हैं। जो एक दिवसीय पिंडदान करते है वे फल्गु तीर्थ, श्री विष्णुपद और अक्षयवट मे श्राद्ध संपन्न कर लेते हैं।

तीन दिवसीय पिडंदान करने वाले सर्वप्रथम पहले दिन फल्गु में स्नान तर्पण के उपरांत फल्गु तट पर पावन श्राद्ध संपन्न करके देव श्री गदाधर को पंचामृत स्नान कराते है। दूसरे दिन पंच वेदी (उत्तर) में ब्रह्मकुंड में श्राद्ध करने के उपरांत प्रेतशिला, रामशिला और फिर रामकुंड पर श्राद्ध करके काकबलि तथा स्थानबलि पिंडवेदी पर श्राद्ध करते हैं। तीसरे दिन फल्गु जी में स्नान तर्पण के बाद श्री विष्णुपद और उसके दक्षिणी दलान मे अवस्थित सोलह वेदी पर श्राद्ध करके अक्षयवट वेदी पर श्राद्ध संपन्न करते हैं। शैयादान के बाद गयापाल पंडा से सुफल प्राप्त कर तीर्थ अनुष्ठान संपन करते हैं।

जो तीर्थयात्री पांच दिनी श्राद्ध करते हैं वे प्रथम दिवस में फल्गु, ब्र्ह्मकुंड, प्रेतशिला, रामशिला, काकबली वेदी पर पिंड अर्पित करते हैं। दूसरे दिन उत्तर मानस, दक्षिण मानस, मातंगवाणी तथा धर्मारण्य पर पिंडदान का विधान है। तीसरे दिन गो प्रचार, आम्रसिंचन, काकबलि तथा तारक बेदी पर पिंड दिया जाता है। चौथा दिन गयासिर वेदी, विष्णुपद, सोलह वेदी पर पिंड अर्पण के बाद नृसिंह देवता व वामन देवता का दर्शन एवं पूजन करते हैं और अंत में पांचवा दिन गदालो बृह्दपरपिता वेदी व अक्षयवट वेदी पर गया श्राद्ध की पूर्णाहुति होती है।

सप्तदिवसीय पिंडदान में सबसे पहले फल्गु स्नान किया जाता है। तत्पश्चात ब्रहकुंड, प्रेतशिला, रामशिला व रामकुंड के साथ काकबलि तीर्थ में पिंडदान का विधान है। दूसरे दिन उत्तर मानस, उदीचि तीर्थ, कनखल तीर्थ, दक्षिण मानस, जिह्वालोल तीर्थादि पर गया श्राद्ध के कार्य किए जाते हैं। तीसरे दिन बोध गया स्थित मातंगवापी, धर्मारण्य एवं बोधिडुम पर पिंडदान होता है। चौथे दिन ब्रह्म सरोवर, तारक ब्रह्म, आमसिंचन, काकबलि आदि तीर्थों में पिंडापित होता है। पांचवे दिन श्री विष्णुपद, सोलहवेदी, गयासिर बेदी तथा फल्गु के उस पार सीताकुंड में पिंडदान का विधान है।

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छठे दिन मुण्डपृष्ठा वेदी, भीम गया वेदी, गो प्रचार, मंगलागौरी तथा श्री मार्कण्डेय महादेवजी का दर्शन किया जाता है। अंत में सातवें दिन वैतरर्ण, गदालोल तथा अक्षयवट पर पिंडदान व शैयादान के साथ सुफल लेने की पुरानी परंपरा है।

पंद्रह दिवसीय पितृपक्ष में गया श्राद्ध कर्ता श्री अनंत चतुर्दशी को पुनपुन श्राद्ध कर गया श्राद्ध का श्री गणेश करते हैं। पूर्णिमा के दिन फल्गु स्नान और खीर भात के पिंड के साथ श्राद्ध संपन्न किया जाता है। आश्विन कृष्ण पक्ष प्रतिपदा को ब्रह्मकुंड में जौ चूर्ण का पिंड, प्रेतशिला, रामशिला, व रामकुंड श्राद्ध करने के बाद काक, श्वान और यम के नाम पर तीन पिंड काकबलि तीर्थ मे अर्पित करते हैं।


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दूसरे दिन पंचतीर्थी श्राद्ध के अंतर्गत उतर मानस, उदीची, कनखल, दक्षिण मानस व मिघ्वालोल में श्राद्ध के बाद गदाधर देवता को पंचरत्न दान किया जाता है। तृतीय तिथि को सरस्वती तीर्थ में स्नान (पंचामृत स्नान) के उपरांत मातंगवापी, धर्मारण्य व बोधितट के सन्निकट श्राद्ध किया जाता है। चतुर्थी दिवस मे ब्रह्म सरोवर, काकबलि के बाद तारक ब्रह्म का दर्शन और आमसिंचन में धर्मानुष्ठान संपन किया जाता है। पंचमी तिमि को थी विष्णुपद श्राद्ध, तीर्थ दर्शन व ब्रह्मपद श्राद्ध का विधान है। षष्ठी तिथि को कार्तिक पद, दक्षिणाग्नि पद, माहपत्याग्नि श्राद्ध व आहवनीयामि श्राद्ध किया जाता है। सातवे दिन सूर्यपद वेदी, चंद्रपद वंदी, गणेशपद बेदी, संध्यामि बेदी, आवसांध्यामि पद व दधिचि पद पर श्राद्ध किया जाता है।

अष्टम दिन कण्व पद, मातंगपद, कौंचपद अगस्तय पद, इंद्र पद, कश्यप पद के श्राद्धोपरांत अधिकर्णपद मे द्रव्य तर्पण व अनुष्ठान का विधान है। नवम दिवस में फल्गु के उस पार राम गया श्राद्ध, सीता कुंड में बालूका राशि का पिंडादि अर्पण के बाद सौभाग्यवादन दान का विधान है। दसवे दिन गया सिर, गया कृप व मुण्डपृष्ठ वेदी पर श्राद्ध किया जाता है। एकादशी के दिन आदि गदाधर तीर्थ व धौतपद वेदी मे श्राद्ध कर चांदी दान की पुरानी परंपरा है।

बारहवें दिन मंगलागौरी तीर्थ के रास्ते भीम गया, गौ प्रचार, गदालोल श्राद्धादि का कार्य किया जाता है। तेरहवे दिन वैतरणी श्राद्ध, गोदान व दूध तर्पण किया जाता है। चर्तुदशी तिथि को श्री विष्णु जी का पंचामृत पूजन व तीर्थ दर्शन तो अमावस्या के अक्षयवट श्राद्ध, खीर का पिंड व षोडशदान व सुफल का विधान है। सबसे अंतिम दिन अर्थात गया से प्रस्थान के पूर्व गायत्री घाट का पिंड व आचार्य को दक्षिणा व अंगवस्त्र दान का विधान है।

सनातन धर्म में पिंडदान का महत्व?

यह जानने की बात है कि गया जी में साल के सभी दिन श्राद्ध-पिंडदान होते हैं पर पितृपक्ष में इसका महत्व अत्यधिक बताया जाता है। पुराणो की स्पष्ट स्वीकारोक्ति है कि पितृपक्ष के दौरान पित्तर फल्गुतट पर अदृश्य रूप में उपस्थित होकर अपने परिजनों से अन्न जल की अभिलाषा करते हैं। और जो हिंदु यह नहीं करता है उसके पित्तर श्राप देकर पुन: चंडलोक के पृष्ठतल में अवस्थित पित्तर लोक वापस चले जाते हैं। गया में स्वपिंडदान केन्द्र मे स्वयं का पिंडार्पण होता है।

अस्तु। युगों-युगों से गया तीर्थ में संपादित होने वाले श्राद्ध, पिंडदान व पितर पूजा भारतीय संस्कृति के मेरुदंड हैं। यही हमारी सनातन संस्कृति का आधार है जहाँ माता को धरती से बड़ी और पिता को स्वर्ग से बड़ा बताया गया (जाता) है। मगध की सांस्कृतिक सरोकार में यह कहा जाता है “बढे पुत्र पिता के धर्मे” अर्थात पुत्र पिता के धर्म से ही विकास पथ पर अग्रसर होता है। ऐसे में हरेक पुत्र का यह अति आवश्यक सनातन कर्म है कि वह गया श्राद्ध करे। विवरण है कि गया श्राद्ध कर्ता को अश्वमेघ यज्ञ आयोजित करने का फल सहज प्राप्त हो जाता है।

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