शचींद्रनाथ सान्याल की नजरें अंग्रेज जासूसों को भांप लेती थीं,कैसे?

शचींद्रनाथ सान्याल की नजरें अंग्रेज जासूसों को भांप लेती थीं,कैसे?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

क्रांतिकारी शचींद्रनाथ सान्याल को स्वाधीनता संग्राम में अंग्रेजों के विरुद्ध रणनीति बनाने में महारत हासिल थी। विदेश से अत्याधुनिक अस्त्र-शस्त्र भारत लाने, काकोरी ट्रेन एक्शन को अंजाम देने वाले शचींद्रनाथ सान्याल की पुण्यतिथि (7 फरवरी) पर पढ़िए कि किस तरह वे अंग्रेजी जासूसों को चकमा देकर अपने काम पूरे करते थे…।

लगातार जासूसों के साथ आंख-मिचौली का खेल खेलते-खेलते हम लोगों में यह खासियत पैदा हो गई थी कि इन लोगों को देखते ही भांप लेते थे कि यह जासूस है। अब तो सभी बातें प्रकट हो गई हैं, इसलिए अब साफ मालूम हो गया है कि हम कभी पुलिस के चकमे में नहीं आए, सिर्फ हमारा पीछा करके ही पुलिस एक भी नए आदमी का पता लगाने में समर्थ नहीं हुई।

हम पर जिस समय यम का-सा कड़ा पहरा रहता था, उसी समय हम लोग बम के गोले और रिवाल्वर लेकर काशी के विभिन्न स्थानों में आते-जाते रहे और इन चीजों को बाहर से काशी में लाए भी, फिर वहां से बाहर भेज भी दिया। मैं एक दिन सवेरे घर जा रहा था कि घर के पास आते ही एकदम भेदिया दारोगा के सामने जा पड़ा। दारोगा अकेला न था, उसके साथ उसका एक अनुचर भी था।

मुझ पर नजर पड़ते ही वह मुस्कुराकर आगे बढ़ा और मेरे पास आ खड़ा हुआ। मैं भी उसी तरह हंस-हंसकर उससे बातचीत करने लगा। – ‘क्या मार्निंग वाक करने गए थे?’ उसके इस सवाल पर मैंने भी कहा, ‘जी हां, जरा घूम-घाम आया हूं।’ -‘यह क्या है?’ कहकर मेरे बुक-पाकेट की एक छोटी सी किताब की ओर उसने अंगुली से इशारा किया। मैंने उसी वक्त किताब निकालकर दारोगा की ओर कर दी।

उसमें नेपोलियन की कुछ उक्तियां और ऐसे ही एक-दो अन्य विख्यात पुरुषों के जीवन की कोई-कोई विशेष घटना लिखी हुई थी। उसने खूब देख-भालकर मुझे किताब लौटा दी। फिर मुस्कुराकर हम लोग अपनी-अपनी राह चल दिए। उस दिन और उसी समय मेरे कोट के नीचे वाले पाकेट में गनकाटन (इस कपास से बम चलाने की बत्ती का पलीता बनता है) और इसी किस्म के अन्यान्य भीषण पदार्थ भरे हुए थे।

दूर से नजर पड़ते ही हम लोग ताड़ लेते थे कि यह पुलिस का आदमी है। मामूली पहरेदारों को तो उनकी जूतियों से ही पहचान लिया जाता था। फिर ज्यादातर उनके सिर की टोपी, चलने का ढंग और हाथ में छड़ी लेने की रीति-अपनी विशेषता के कारण-हमारी दृष्टि को धोखे से बचा लेती थी। कभी-कभी अपने साथियों के कारण ये लोग पहचान लिए जाते थे। सड़क पर चलते समय हम लोगों को कुछ ऐसी आदत पड़ गई थी, जो कि जेल से लौट आने पर भी बहुत दिन तक बनी रही। वह यह कि सड़क पर चलते समय एकाएक किसी जगह ठहरकर किसी व्यक्ति से बातचीत करने लगे और उसी अवसर पर आगे-पीछे नजर डालकर एक बार भलीभांति देख लिया कि कोई पीछा तो नहीं कर रहा है।

सड़क के मोड़ पर जाकर पीछे भेद भरी निगाह डालने की जो आदत मुझे पड़ गई थी, उसके लिए अभी उस दिन लोगों ने खूब मजाक किया। कभी कोई चीज मोल लेने के बहाने किसी दुकान पर ठहरकर या किसी और ढंग से चलते-चलते एकदम रुककर आगे-पीछे देखे बिना मैं रास्ता चलता ही न था। मैं इस बात का ध्यान हमेशा रखता था कि मेरी तनिक-सी भी गफलत से समूचा दल तहस-नहस हो सकता है।

यदि एक ही चेहरे पर कई बार नजर पड़ती तो उस पर तुरंत संदेह हो जाता था और मैं संदेह को जांचने के लिए किसी सुनसान गली में जा निकलता। उस समय या तो पीछा करने वाला पकड़ लिया जाता यानी विश्वास हो जाता कि यह जासूस है अथवा उसे लाचार होकर पीछा छोड़ देना पड़ा था।

अपना पीछा करने वाले को जब इस तरह हम चंगुल में फांस लेते थे, तब किसी तरह उसे धोखा देना ही हमारा पहला काम होता था। ऐसे मौके पर चकमा देने का खास ढंग था सुनसान रास्ते पर चलते-चलते एकाएक किसी भीड़भाड़ की जगह में जाकर गायब हो जाना। इसके सिवा घर से निकलने के पहले ही मैं खूब चौकन्ना हो जाता था और जिस दिन कोई खास काम होता, उस दिन तो बड़े तड़के घर से चल देता था। जब लौटकर घर आता तो देखता कि मेरा पीछा करने के लिए तैनात किए गए पहरेदार घर को घेरे हुए इस तरह बैठे हैं गोया मैं घर के भीतर ही हूं।

पुलिस के साथ मेरा ऐसा ही संबंध था। ऐसी ही दशा में तीन बजे दिन को मैं काशी आ पहुंचा। पुलिस की नजर बचाकर घर गया और फिर वहां से दादा के डेरे पर। रासबिहारी उस समय काशी में ही थे। किंतु पुलिस को उस समय स्वप्न में भी हमारी गतिविधि की कुछ भी जानकारी न थी।

दादा से सलाह करने पर निश्चय हुआ कि संयुक्त प्रांत के सैनिकों में भी विप्लव के विचार फैला देने चाहिए। पांच दिसंबर की बाट जोही जाने लगी, क्योंकि पृथ्वी सिंह से बातचीत हो जाने पर मेरा बंगाल जाना निश्चित किया गया था। इस बीच अब मैं इस ताक में लगा कि काशी की छावनी में, बैरकों में, किस प्रकार मेरी रसाई हो।

एक-दो दिन के बाद अखबार में पढ़ा कि अमेरिका से लौटे हुए कुछ सिख, तांगे में सवार हो, एक गांव में जा रहे थे। संदेह करके पुलिस उन्हें गिरफ्तार करने गई तो उनके पास से रिवाल्वर इत्यादि अस्त्र बरामद हुए। फिर पुलिस जब उन्हें गिरफ्तार करने को तैयार हुई तब सिखों ने गोली चलाई, जिससे एक सिपाही बहुत घायल हो गया। बाद में मालूम हुआ कि ये किसी खजाने को लूटने गए थे।

किंतु इनकी ‘होशियारी’ की ‘तारीफ’ करनी पड़ती है कि इन पर नजर पड़ते ही पुलिस को शक हो गया। ध्यान देने की बात है कि इस मौके पर गांववालों ने पुलिस की सहायता की थी। गांववालों ने समझा कि पुलिस मामूली उचक्कों और चोरों को गिरफ्तार कर रही है। बस, इसी धोखे में आकर उन्होंने पुलिस की मदद की थी। -(शचींद्रनाथ सान्याल की पुस्तक ‘बंदी जीवन’ का अंश)

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