लोक की रचना व्यक्ति नहीं समाज करता है- प्रो.रवीन्द्र नाथ श्रीवास्तव परिचय दास

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

महात्मा गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग की ओर से गांधी भवन परिसर स्थित नारायणी कक्ष में लोक साहित्य में चित्रित समाज पर विशिष्ट व्याख्यान का आयोजन किया गया।

कार्यक्रम में नव नालंदा महाविहार सम विश्वविद्यालय नालंदा से पधारे हिंदी विभाग के प्रो. रविंद्र नाथ श्रीवास्तव परिचय दास ने अपने उद्बोधन में कहा कि लोक साहित्य हमारे जीवन में सदैव उपस्थित होता है। समकालीन समय में लोक का चिंतन बदल गया है। लोक मौखिकता की मानोगति है क्योंकि लोक की रचना व्यक्ति नहीं समाज करता है,उसका मूल्य समाजगत है। लोकगायन में एक निश्चित कथा विन्यास होता है इसलिए लोक गाथाकार कहता है की कथा नष्ट नहीं होती, यह लोकगाथा का मर्म है।

हमारे समाज में शिव समाज के सबसे अच्छे बिम्ब है। समाज को जोड़ने का सबसे सुंदर साधन लोक है, यह जीवन का एकीकरण है। लोक जीवन में सबसे बड़ा महत्व स्मृति का है, इससे हम अपने जीवन में बने रहते हैं। मानवीकरण रचनात्मक साहित्य से कहीं अधिक इस लोक में उपस्थित होता है क्योंकि यहां मौखिकता की परंपरा पर बल होता है,जिसके कारण यह टिकाऊ होता है। आज समय बदला है, बाजार में हम वह लेते हैं जिसकी आवश्यकता हमको नहीं है, यी वैश्वीकरण है।

ज्ञान सूचनाओं में बदल गया है इससे जीवन भी सूचना में रूपांतरित हो गया है, भावना का स्थान सूचना ने ले लिया है। लोक साहित्य कई साहित्य का संकुल है। लोक साहित्य एक गंभीर विमर्श है, इसलिए प्रत्येक विश्वविद्यालय में एक लोक अध्ययन विभाग होना चाहिए। धर्म बदलने से संस्कृति नहीं बदलती इसका प्रमाण आप इंडोनेशिया में होने वाले रामलीला के मंचन को देख सकते हैं। लोक जीवन में भरोसा है, यह विश्वासों की धरती है। लोक जीवन बिखरा हुआ है उसे नए जीवन दृष्टि से देखने की आवश्यकता है।

शैव वैष्णव शाक्त कथाओं के माध्यम से लोक का निर्माण होता है ।लोक जीवन में सबसे बड़ा महत्व स्मृतियों का है । लोक साहित्य व्यक्ति सापेक्ष हो जाता है तब वह लोक ना होकर साहित्य हो जाता है। संबंधों का मानवीकरण रचनात्मक साहित्य की अपेक्षा लोक साहित्य में अधिक है।

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे हिंदी विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ. अंजनी कुमार श्रीवास्तव ने कहा कि लोक के प्रभावित होने से समाज प्रभावित हो रहा है, लेकिन लिपि आने के कारण लोक साहित्य नाम से लिखा जा रहा है। प्रिंट मीडिया ने इसे और बढ़ाया है, समाज में पाठकों का अंतर हो गया है। लेकिन लोक साहित्य से सभी का संबंध हो जाता है। लोक साहित्य हमारा अवचेतन है। लोक के संवर्धन के लिए लोक को मौखिकता की परिधि से बाहर निकलना चाहिए।

समारोह में स्वागत वक्तव्य प्रस्तुत करते हुए हिंदी विभाग के सहायक आचार्य डॉ. गोविंद प्रसाद वर्मा ने कहा कि लोक साहित्य की समुदायिकता होती है यह पूरे समाज का चित्रण करता है।

कार्यक्रम में सर्वप्रथम मुख्य अतिथि और श्रीमती वंदना श्रीवास्तव को पुष्पगुच्छ एवं शाॅल भेंटकर सम्मानित किया गया। वहीं विश्वविद्यालय की पत्रिका ज्ञानग्रह भी प्रदान किया गया।

इस अवसर पर श्रीमती वंदना श्रीवास्तव ने अपने भोजपुरी चित्रों का स्लाइड के माध्यम से चित्रण किया। वंदना मैम ने एक-एक चित्र पर अपनी टिप्पणियों से अवगत कराया। त्यौहारों को जीवंत रखने के लिए लोक कला को जीवित रखना आवश्यक है क्योंकि इसका सामाजिक प्रभाव है। भोजपुरी चित्रों को आधुनिक रूप देने की बात होनी चाहिए। लोक कला वर्षों का संचयन होता है इसलिए प्रत्येक विश्वविद्यालय में एक लोक विभाग अवश्य होना चाहिए।

मंच का संचालन शोधार्थी विकास कुमार ने किया जबकि धन्यवाद ज्ञापन हिंदी विभाग के शोधार्थी सोनू ठाकुर ने किया।

मुख्य वक्ता ने जिज्ञासु शोधार्थियों के प्रश्नों का समाधान किया, वहीं उन्होंने अपने मधुर लोकगीतों से सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया।
इस अवसर पर संस्कृत के विभागाध्यक्ष डॉ. श्याम कुमार झा, संस्कृत विभाग के सहायक आचार्य डॉ. बबलू पाल, अंग्रेजी विभाग के सहायक आचार्य डॉ. दीपक कुमार, हिंदी विभाग की सहायक आचार्य डॉ. गरिमा तिवारी, डॉ. श्यामनंदन, डाॅ. आशा मीणा सहित कई शोधार्थी एवं विद्यार्थी उपस्थित रहे।

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