मन में दीये सी जगमग वह भेंट.

मन में दीये सी जगमग वह भेंट.

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

दीपावली कहना हमेशा मुश्किल सा लगता है। दिवाली ज्यादा सहज स्वाभाविक ढंग से बोलचाल में निकलता है। इस दिवाली पर न जाने क्यों इंटरमीडिएट के अपने संस्कृत अध्यापक पंडित जयानंद मिश्रा याद आ रहे हैं। उम्र के इस पड़ाव पर स्मृतियों का क्या? आगे पीछे दौड़ती हैं। पिछली दिवाली की चीजें धुंधली हैं, पर अचानक 50 वर्ष पूर्व कालिदास के रघुवंशम  को रस लेकर पढ़ाते हुए अपने अध्यापक का चेहरा पानी में आधा डूबता आधा उतराता सा दीखता है।

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इस समय उनकी याद आने की दो वजहें हैं। एक तो मिथिला के किसी सुदूर अंचल से बनारस जैसे बड़े शहर में आए मिश्रा जिस तरह संस्कृत में रमे रहते थे, उसमें तद्भव के लिए यह आग्रह कि उनके छात्र दीपावली की जगह दिवाली कहें, कुछ-कुछ असंगत लगता था, पर उनकी टोका-टाकी अवचेतन पर आज भी ऐसे दर्ज है कि मुंह से दीपावली निकलने पर घबराकर चारों तरफ देखता हूं कि पंडित जी सुन तो नहीं रहे।

दो वर्ष ही उन्होंने मुझे पढ़ाया और दोनों वर्ष दिवाली की छुट्टी के पहले वाले दिन वह हर साल की अपनी आदत के मुताबिक दीयों के त्योहार पर पूरे घंटे बोले। उनका एक प्रिय विषय था कि अंतरतम के कूड़े-करकट की सफाई बाहरी साफ-सफाई से ज्यादा महत्वपूर्ण है। छात्र कितना सीखते थे, यह कह सकना तो मुश्किल है, पर बाहर निकलने के बाद ठहाके लगाते हुए अंदरूनी सफाई की व्याख्या जरूर बड़ी दिलचस्प होती। उनका दूसरा प्रिय विषय सुशासन था, जो अयोध्या वापसी के बाद राम द्वारा स्थापित शासन प्रणाली से था और जो जनता के सारे दुख-दर्द की दवा था। यही दूसरा विषय एक करुण प्रसंग में आज मुझे सता रहा है।

वर्षों बाद जब मैं अपनी सेवा के दौरान बनारस में नियुक्त हुआ, तो अचानक एक दिन मुझे पंडित जी का संदेश मिला कि वह मुझसे मिलना चाहते हैं। अस्वस्थता के कारण खुद नहीं आ सकते, क्या मैं उनके घर आ सकता हूं? दिवाली दो दिन बाद थी, तो मिठाई का डिब्बा लेकर उसी शाम उनके यहां पहुंच गया। मेरे पिता मानते थे कि बिना संस्कृत पढ़े हिंदी नहीं आती, इसलिए सालों तक गरमियों की छुट्टियों में हम संस्कृत का ट्यूशन पढ़ते। इसी चक्कर में दो-तीन साल उनके घर भी गया था। समय के साथ शहर में बहुत कुछ बदला था, लेकिन उनकी गली वैसी ही थी। पुराने खस्ता हाल मकान में समय जैसे रुक सा गया था। जिस मोटी सी कुंडी को खटखटाने पर अंदर आपकी सूचना पहुंचती थी, वह अभी भी यथावत थी, पर उसके बगल में ही एक कॉलबेल लगी दिखी। दबाते ही एक लड़का बाहर निकल आया।

सालों बाद भी एक परिचित सी सीलन का झोंका नाक से टकराया। घुसते ही एक छोटा सा कमरा, फिर आंगन जो हमेशा की तरह गीला था, सामने एक बरामदे को घेरकर बनाई गई रसोई और उसके बगल से ऊपर जाने वाली तंग सीढ़ी। कुछ भी बताने की जरूरत नहीं थी, मैं बिना किसी इशारे के ऊपर चढ़ता गया। ऊपर के दो छोटे कमरों को मिलाकर यह मकान बनता है और इनके बाहर का बरामदा हमारे संस्कृत ट्यूशन का केंद्र था, जहां एक आसनी बिछाकर पंडित जी पालथी मारकर बैठे होते और सामने एक कंबल को तहाकर जो आसन बनता था, उस पर छात्र बैठते थे। उन दिनों तनख्वाहें इतनी कम थीं कि ज्यादातर अध्यापक ट्यूशन पढ़ाते थे, हालांकि, तब तक शिक्षा व्यवसाय नहीं बनी थी। छात्र एक या दो के बैच में आते और शिक्षक अपने छात्रों को नंबर से नहीं, वरन नाम से पहचानते थे।

सीढ़ी से छत पर पहुंचते ही आदतन नजर बरामदे पर गई और धक्क से रह गया। गुरु की आसनी और शिष्यों के बैठने की व्यवस्था गायब थी और उस स्थान को एक झिनगा खटिया भर रही थी। बिना किसी औपचारिक घोषणा के मैं समझ गया कि एक समय के तेजस्वी काया के गौरवर्णी पंडित जयांनद मिश्रा एक कृषकाय पीतवर्णी ढांचे की शक्ल में लेटे हुए थे।

वह देर तक अपने बगल में पड़ी कुरसी पर बिठाकर मेरा हाथ पकड़े सहलाते रहे। समझ में आया कि उन्हें अपने ‘योग्य’ शिष्य पर गर्व है और भी इसी तरह की औपचारिक बातें जिन्हें यहां दोहराने का मतलब नहीं है। जो मुझे साझा करना है, वह दिवाली और सुशासन से जुड़ा प्रसंग है। वह स्मृतियों की भूल-भूलैया में यात्रा कर रहे थे और अचानक उन्होंने जो कहा उससे मैं हिल गया। बुदबुदाते हुए उन्होंने कहा कि पहले तो वह दिवाली कुत्ते की तरह मनाते थे। मैंने घबराकर कान उनके मुंह से लगभग सटा दिया। उन्हें जवानी के दिनों की संस्कृत पाठशाला याद आ रही थी, जिसमें वह 40 रुपये मासिक पर अध्यापक नियुक्त हुए थे। उन्हीं दिनों एक बार विद्यालय का मुआयना करने डिप्टी साहब पधारे।

मिथिला की जलमग्न धरती पर डिप्टी साहब नाव से उतरे, तो उनकी अभ्यर्थना के लिए खड़े युवा जयानंद को दो चीजें अब तक याद हैं।  एक तो उनकी अफसरी का प्रतीक सोला हैट और दूसरा उनके साथ नाव पर सफर करता बछड़े जैसे आकार का कुत्ता। कुत्ते की जंजीर पकड़े एक नौकर भी था और स्वाभाविक तौर से ये दोनों भी छात्रों और अध्यापकों के भय मिश्रित उत्सुकता के पात्र बने।

मुआयने भर चलन के मुताबिक डिप्टी साहब मास्टरों को डांटते रहे और जैसे ही मौका पाते कुत्ते के सेवक को डांटने लगते कि वह गरीबी और गंदगी में लिथड़े बच्चों को टॉमी नामधारी कुत्ते को छूने दे रहा है। अफसर को खुश करने के चक्कर में किसी अध्यापक ने पूछ लिया कि श्रीमान कुत्ता खाता क्या है? एक स्निग्ध मुस्कान के साथ डिप्टी साहब ने नौकर को बुलाकर उससे दिन भर के श्वान भोजन का मेन्यू पूछा। नौकर ने मुंह बाए अध्यापकों के सामने सुबह से रात तक के सामिष और निरामिष भोजन की जो सूची पेश की, उससे ज्यादातर को उस प्राणी से ईष्र्या तो हुई ही, पर असली दिक्कत तब खड़ी हुई, जब मुआयना खत्म होने के बाद गणित के अध्यापक ने जोड़कर बताया कि कुत्ते पर लगभग डेढ़ रुपया प्रतिदिन खर्च होता था, यानी अध्यापकों के वेतन का ड्योढ़ा। इतना कहकर पंडित जी हंसे। पता नहीं, क्यों उस कमजोर शरीर से लहरों में आती हंसी मुझे रुदन की तरह लगी।

कुछ दिनों पहले आक्सफैम के आंकड़े जारी हुए कि एक प्रतिशत भारतीयों की संपत्ति शेष 99 प्रतिशत हिन्दुस्तानियों की संपत्ति से अधिक है, तो मुझे लगा कि जब देश के महाशक्ति बनने की घोषणा करने वाले इन आंकड़ों को ईसाई षड्यंत्र कहकर हंसते होंगे, तब क्या वे सचमुच हंसते ही होंगे?

 

 

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