शब्दों के भीतर ठहरा हुआ मौन
विनोद जी को स्मृतियों प्रणाम
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

आज एक अजीब-सा मौन उतर आया है, हिंदी सृजन संसार में। एक ऐसे कवि को खो दिया, जिसने बोलने से अधिक चुप रहने की शैली में जीवन के सबसे गहरे अर्थ कहे। विनोद जी के शब्दों की गति भी इसी तरह की थी। धीमी, गहरी और शालीन। वे शब्दों को सजावट के लिए नहीं, बल्कि मनुष्यता के ताप को संभालने के लिए चुनते थे। उनके यहाँ कविता बाहरी चमक-दमक का नहीं, भीतर की स्पष्टता का संसार है। जैसे कोई बच्चा अपने भीतर की जिज्ञासा से दुनिया देखता है, वैसे ही विनोद जी जीवन देखते रहे। आठ दशक से अधिक समय तक एक बालसुलभ विस्मय के साथ।
जो लोग उन्हें मिले हैं, वे जानते हैं। वे बतकही में बहुत धीमे बोलते थे। उनकी चुप्पी में भी अर्थ होता था। पर, यही बात उनकी कविता को विलक्षण बनाती थी। वे शब्दों से अधिक शब्दों की अनुपस्थिति में संवाद करते थे।
याद है, जब पहली बार ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ पढ़ी। लगा यह उपन्यास नहीं, किसी विस्तृत कविता का रूप है। उसमें कथानक कहीं पीछे छूट जाता है और जो बचता है, वह मनुष्य की अनकही इच्छाओं, छोटे जीवन-सुखों और स्वप्न की परछाइयों का संगीत है।
विनोद जी ने सपनों को यथार्थ से अलग नहीं माना। उन्हें लगता था कि जीवन उन्हीं के सहारे अपना स्वर रचता है। शायद इसी कारण उनकी कविताएँ ‘किसी खेत में चुपचाप खड़े पेड़’ की तरह होती हैं। देखने वाले को सामान्य दिखें, पर जो संवेदना में झुके उनकी जड़ों में धरती की विह्वलता महसूस होने लगती है।
विनोद जी के लेखन का सबसे महत्वपूर्ण गुण यह था कि वे आदमी की गरिमा को बहुत आत्मीय भाव से पहचानते थे। बतौर बानगी ‘नौकर की कमीज’ को देख सकते हैं। इसकी सबसे सुंदर नजीर। वहाँ कोई बड़ा नायक नहीं है। बल्कि एक आम आदमी है, जो अपने अस्तित्व की स्वच्छता को बनाए रखने की कोशिश में लगा है।
उनकी लेखनी में मानवीय अनुभव है। वे यह नहीं कहते कि समाज अन्यायपूर्ण है। वे दिखाते हैं कि इस अन्याय में भी व्यक्ति भीतर से कितना निर्मल रह सकता है। उनकी सामाजिक दृष्टि में करुणा थी, तिक्तता नहीं। यह करुणा किसी दार्शनिक आग्रह से नहीं, गाँव और छोटे शहर की नैसर्गिक मनुष्यता से आती थी।
वे उन विरल लेखकों में रहे, जिनकी दृष्टि में ‘छोटा आदमी’ भी उतना ही विराट है, जितना कोई ऐतिहासिक पात्र। उन्हें देखने का उनका तरीका विनम्र था। इसलिए उनका साहित्य हमारी रूह तक उतर जाता है। हौले-हौले छू जाता है। विनोद जी की कविताई अपने समय से अलग नहीं थी। पर, उसका स्वर अपने समकालीनों से अलहदा था। सर्वथा भिन्न। जब कवि समाज पर गम्भीर टिप्पणी कर रहे थे या जटिल प्रतीक बना रहे थे, तब विनोद जी सीधी-सादी चीज़ों में कौतुक देख रहे थे। एक पत्ते में झिलमिलाती धूप, किसी बच्चे की आँखों की चमक, किसी घर की खिड़की का अकेलापन।
उनकी कविताओं में अक्सर हम पाते हैं। मौन का संगीत। सामान्य से जन्मा असामान्य अर्थ। और छोटे से दृश्य में छिपा विराट बोध।
वे यह मानते थे कि सच्ची कविता वही है, जो अपना अर्थ थोपती नहीं, बल्कि धीरे-धीरे खुलती है। संभवतः यही वजह है कि उनके पाठक को पढ़ते हुए ‘सोचने’ से पहले ‘महसूस’ करना पड़ता है। उनकी भाषा बहुत परिष्कृत थी। पर, उसमें कोई बनावट नहीं थी। हिंदी के आधुनिक कवियों में बहुत कम ऐसे हैं, जिनकी भाषा इतनी गृहस्थ और आत्मीय लगे। जैसे किसी घर में मां धीरे से बात करती है और उसका हर शब्द जीवन का संबल बन जाता है।
शुक्ल जी की पूरी सर्जना हिंदी की उस परंपरा को आगे बढ़ाती है, जिसमें सहजता, अनगढ़ता ही सौंदर्य का मूल है। तुलसी, नागार्जुन और शमशेर की संवेदनशीलता उनके भीतर मिल जाती थी। पर, जहाँ शमशेर की कविता में अमूर्तता थी, वहाँ विनोद जी के यहाँ धरती की ठोस गंध थी। वे अमूर्त भावों को जीवन के ठोस प्रसंगों में बदल देते थे। यही उनकी कहन की उस्तादी थी। वे अद्भुत कल्पनाशील थे। पर। कल्पना कभी यथार्थ से अलग नहीं होती थी। एक बार उन्होंने कहा भी था, “मैं वही लिखता हूँ, जो सोचता नहीं, जो भीतर धीरे-धीरे घटता है।” उनका यह ‘भीतर’ ही हिंदी कविताई की सबसे आद्र भूमि है। वहाँ संवेदना, आत्मीयता और सूक्ष्म विनोद का तादात्म्य है। कविता पढ़ने के बाद जो लंबा मौन हमारे भीतर उतरता है, वही उनकी विरासत है।
विनोद जी का जीवन भी उनकी कविताओं जैसा ही था। एक संतुलन। न प्रचार से चकित, न आलोचना से विचलित। वे ‘असफलता’ को भी अपनी सर्जना का हिस्सा मानते थे। उन्होंने कभी प्रसिद्धि की दौड़ में भाग नहीं लिया, इसलिए प्रसिद्धि उनके पीछे भागी।
अब जब वे नहीं हैं, उनके जाने में भी एक कविता है। रायपुर के उनके घर की खिड़की में शायद अब भी कोई कविता टंगी होगी। जो बाहर देखती भी है और भीतर भी।
वे कवि नहीं, जीवन के दुभाषिए थे। उन्होंने हमें सिखाया कि कविता सिर्फ़ शब्दों में नहीं, बल्कि देखने के ढंग में होती है। जो पेड़ के पत्ते, किसी बच्चे की मुस्कान या किसी बूढ़े की आह को गौर से देखना जानता है, वही सच्चा कवि है।
आज जब हम विनोद कुमार शुक्ल को विदा कह रहे हैं, तो लगता है, हिंदी ने अपने सबसे संवेदनशील मौन को खो दिया। उनकी कविताएँ अब भी हमारे भीतर बोलती रहेंगी। अतिरेक के इस समय में संतुलन का स्मरण दिलाती हुईं।
उनका रचा, कहा हमें याद दिलाता रहेगा कि जीवन, चाहे जितना कठिन क्यों न हो, सुंदर है, जब तक मनुष्य के भीतर करुणा की साँस बाकी है—
“हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था
व्यक्ति को मैं नहीं जानता था
हताशा को जानता था
इसलिए मैं उस व्यक्ति के पास गया
मैंने हाथ बढ़ाया
मेरा हाथ पकड़कर वह खड़ा हुआ
मुझे वह नहीं जानता था
मेरे हाथ बढ़ाने को जानता था
हम दोनों साथ चले
दोनों एक दूसरे को नहीं जानते थे
साथ चलने को जानते थे…”
प्रिय कवि विनोद जी को स्मृतियों प्रणाम।


