सुप्रीम कोर्ट ने संसद से की थी माब लिंचिंग पर सख्त कानून बनाने की संस्तुति.

सुप्रीम कोर्ट ने संसद से की थी माब लिंचिंग पर सख्त कानून बनाने की संस्तुति.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

अराजकता ऐसी कि सरेआम किसी के हाथ–पैर काटकर और पीट–पीटकर मार के लटका दिया जाए और निडर होकर कहे कि हमने अपराध किया है। यह बताता है कि भीड़तंत्र में कानून और सजा का भय नहीं है। देश में माब लिंचिंग की घटनाएं लगातार हो रही हैं, लेकिन अभी तक इससे निपटने के लिए अलग से कोई कानून नहीं है। बढ़ती घटनाएं बताती हैं कि मौजूदा कानून का भय और असर नहीं है।

सरकार का कहना है, आपराधिक कानूनों की हो रही है समीक्षा

सुप्रीम कोर्ट ने तीन साल पहले संसद से माब लिंचिंग के लिए अलग से विशेष कानून बनाने की संस्तुति की थी। शीर्ष अदालत ने कहा था कि इस बारे में विशेष कानून से उन लोगों में भय पैदा होगा, जो इस तरह की घटनाओं में शामिल होते हैं। लेकिन अभी तक माब लिंचिंग रोकने और दोषियों को सजा देने के लिए अलग से विशेष कानून नहीं आया है और न ही मौजूदा कानून में इसे अलग से अपराध बनाया गया है।

इस बारे में संसद में पूछे गए सवाल के जवाब में हाल ही में सरकार ने कहा था कि मौजूदा आपराधिक कानून की समीक्षा शुरू की गई है। उत्तर प्रदेश में लखीमपुर खीरी और दिल्ली-हरियाणा के सिंघू बार्डर की घटना ने एक बार फिर साबित किया है कि तत्काल प्रभाव से माब लिंचिंग के लिए अलग से सख्त कानून लाने की जरूरत है।

2018 में सुप्रीम कोर्ट ने माब लिंचिंग रोकने के बारे में दिया था अहम फैसला

सुप्रीम कोर्ट के तीन न्यायाधीशों की पीठ ने 17 जुलाई, 2018 को माब लिंचिंग रोकने के बारे में अहम फैसला दिया था। शीर्ष कोर्ट ने कहा था कि इसमें कोई संदेह नहीं कि कानून का भय व कानून के शासन के प्रति सम्मान सभ्य समाज की नींव है और भीड़तंत्र को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने माब लिंचिंग से निपटने के लिए निवारक, उपचारात्मक और दंडनीय दिशा-निर्देश जारी किए थे। साथ ही केंद्र और राज्य सरकारों को चार सप्ताह में उन पर अमल करने का निर्देश दिया था। इसमें अपराध रोकने और अपराध पर कार्रवाई के बारे में पुलिस की जिम्मेदारी से लेकर, पीड़ित को मुआवजा और मुकदमे का ट्रायल फास्ट ट्रैक कोर्ट में किए जाने तक के विस्तृत निर्देश थे।

कानून का ठीक तरीके से अनुपालन ही पर्याप्त

उत्तर प्रदेश के पूर्व डीजीपी विक्रम सिंह कहते हैं कि माब लिंचिंग के बारे में नया और विशेष कानून बनाने की जरूरत नहीं है, सिर्फ मौजूदा कानून का अनुपालन ठीक से हो जाए और फास्ट ट्रैक अदालत में मुकदमा चलाकर दोषी को जल्द सजा दी जाए तो भी स्थिति ठीक हो जाएगी। अगर कानून पर ठीक से अमल ही नहीं होगा तो नया हथियार (नया कानून) देने से क्या होगा।

वह कहते हैं कि आइपीसी की धाराओं को देखें, अगर माब लिंचिंग होगी तो 147,148,149, 307 और अगर मौत हो गई तो 302 साथ में 201 आइपीसी और नेशनल सिक्योरिटी एक्ट की उपधारा एक लोक व्यवस्था लगेगी। मजाल है कोई सामने आ जाए। कितने मामलों में इनका प्रयोग किया गया है। इसके अलावा उत्तर प्रदेश में गैंगस्टर एक्ट है। महाराष्ट्र और छह राज्यों में मकोका है। सब ठीक हो जाएगा, अगर मौजूदा कानून ठीक से लागू किए जाएं। दोषी को कानून के मुताबिक सजा मिले। राजनीतिक दखलअंदाजी बंद हो। बिना दंड के शासन नहीं चलता।

माब लिंचिंग की स्पष्ट परिभाषा की जरूरत

इलाहाबाद हाई कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश एसआर सिंह भी मानते हैं कि मौजूदा कानून भी अगर ठीक से लागू हों तो पर्याप्त है क्योंकि माब लिंचिंग हत्या और जघन्य अपराध में आता है जिसमें मृत्युदंड तक की सजा का प्रविधान है। साथ ही वह यह भी कहते हैं कि माब लिंचिंग पर अलग से कानून बनने में उस अपराध के बारे में ज्यादा स्पष्ट परिभाषा और अपराधी की भूमिका आदि तय होगी, जिसका असर पड़ सकता है जैसा विशेष कानूनों में होता है।

सरकार ने संसद में कहा, कानून बनाने को लेकर चल रहा है काम

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद माब लिंचिंग के बारे में संसद में पूछे गए एक सवाल के जवाब में 28 जुलाई को राज्यसभा में सरकार ने कहा था कि मौजूदा आपराधिक कानूनों की व्यापक समीक्षा शुरू की गई है ताकि उन्हें कानून और व्यवस्था की वर्तमान स्थिति के संगत बनाया जा सके, साथ ही समाज के कमजोर वर्गों को शीघ्र न्याय प्रदान किया जा सके।

सरकार ने कहा था कि वह एक ऐसा कानूनी ढांचा तैयार करने की मंशा रखती है, जो नागरिक केंद्रित हो और जीवन को सुरक्षित बनाने व मानवाधिकारों के संरक्षण को प्राथमिकता देता हो। सरकार की ओर से संसद में दिए गए इस जवाब से साफ है कि इस बारे में कुछ काम चल रहा है, लेकिन समय की दरकार है कि जो हो जल्दी हो ताकि मानवता को शर्मसार करने वाले जघन्य अपराधों पर लगाम लगे।

 

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