बलिदान का यह निरालापन और किसी देश में नहीं मिलता है-क्रांतिकारी शचींद्र नाथ बक्शी.

बलिदान का यह निरालापन और किसी देश में नहीं मिलता है-क्रांतिकारी शचींद्र नाथ बक्शी.

०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
PETS Holi 2024
previous arrow
next arrow
०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
PETS Holi 2024
previous arrow
next arrow

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सक्रिय सदस्य व काकोरी ट्रेन एक्शन के प्रमुख सहयोगी शचींद्र नाथ बक्शी ने चीन द्वारा भारत पर आक्रमण किए जाने के कुछ समय बाद यह लेख लिखा था…

भारतवर्ष में त्याग और दान का महत्व बहुत बड़ा है। हमारी सभ्यता और संस्कृति ने सिखाया है कि दान की मर्यादा सर्वोपरि है। इसी पृष्ठभूमि पर हमारे देश में द्रव्य, वस्तु, विद्यादान, कन्यादान और आज ग्रामदान, भूदान, प्राणदान आदि तरह-तरह के दानों की परंपरा चली है। ‘प्राणदान’ की बात अगर की जाए तो हमें मिलता है-मध्यकालीन राजपूत रमणियों का जौहर व्रत। जब सब पुरुष युद्ध में प्राणदान करने की ठान लेते थे, तब स्त्रियां और बालाएं एक विशाल अग्निकुंड में अपने को सामूहिक रूप से समर्पण कर देती थीं। ऐसी सामूहिक प्राणदान की मिसाल इतिहास में शायद कम ही मिलेगी।

हमारे देश को स्वतंत्र कराने की प्रचेष्टा में, अंग्रेजों से भारत को आजाद कराने की कोशिश में हमारे क्रांतिकारियों का बलिदान भी निराला ही रहा है। आज भले ही उनके बलिदानों का इतिवृत्त दब गया हो, देश ने आज भले ही उन्हें भुला दिया हो, लेकिन यह बात सत्य है कि उनका बलिदान अपूर्व रहा है। उन्नीसवीं सदी के अंत में पूना के चाफेकर बंधुओं से लेकर बंगाल के खुदीराम बोस, प्रफुल्ल चाकी, कन्हाईलाल, सत्येन, दिल्ली बम केस के बंदी पंजाब के करतार सिंह आदि, काकोरी षड्यंत्र केस के अशफाकउल्ला खां, राजेंद्रनाथ लाहिड़ी, रोशन सिंह तथा रामप्रसाद बिस्मिल, लाहौर केस के सरदार भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव आदि कितने ही दर्जनों नौजवानों ने देश की बलिवेदी पर, फांसी पर अपना प्राणदान दिया।

ब्रिटिश पुलिस से लड़कर गोली खाकर मरने वालों में बाघा जतिन और उनके साथियों का उदाहरण है। उसके बाद इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में चंद्रशेखर आजाद की वीरगति वर्ष 1931 की ही तो बात है। इसी तरह भारतवर्ष में सैकड़ों क्रांतिकारियों को लंबी-लंबी सजाएं मिलीं। कितनों ने लंबी-लंबी भूख हड़तालें कीं और यतींद्रनाथ दास आदि कई ने भूख हड़ताल में प्राण विसर्जित किए।

कई मौकों पर ऐसा भी हुआ है कि क्रांतिकारीगण गोली से गंभीर रूप से जख्मी होकर तड़प रहे हैं, मरणासन्न हैं और पुलिस उन्हें नहीं पहचान पा रही है। अंग्रेज अफसर पूछता है-‘नाम क्या है? बताओ, तुम तो वीरगति प्राप्त कर रहे हो, तुम्हारे देशवासियों को मालूम तो हो जाए कि तुम कौन हो।’ उत्तर में जख्मी, मृत्यु के पथ पर अग्रसर क्रांतिकारी मुस्कुराता है और कहता है, ‘मुझे परेशान मत करो, मुझे शांति से मरने दो।’ वह नाम नहीं बताता है। उसे इस बात की प्रसन्नता है कि वह देश की स्वतंत्रता के लिए कुछ कर गुजरा है। वह अनसंग, अनआनर्ड और अनवेप्ट ही जाना चाहता है। उसे नाम की ख्वाहिश नहीं।

उसी चौथे दशक में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ लड़ाई में बंगाल के क्रांतिकारियों में बहुत से पकड़े जाने से बचने के लिए तेज जहर खाकर बलिदान हो गए। बंगाल के सेक्रेटेरियट में सरकार के हेड-क्वार्टर, जिसे राइटर्स बिल्डिंग कहा जाता है, में एक दिन अकस्मात सूबे का इंसपेक्टर जनरल गोली से मारा जाता है। राजनैतिक कैदियों से कटु और कठोर व्यवहार करने वाले आई.जी. को मारने के बाद जो नौजवान इस काम के लिए गए थे, उन्होंने तेज जहर खाकर खुदकुशी कर ली।

उनमें से एक विनय गुप्त अस्पताल में बचा लिए गए और उन पर मुकदमा चला तथा उनको फांसी हो गई। उनके दो साथी अस्पताल जाने से पहले ही मृत्यु वरण कर चुके थे। ऐसे ही तरीके से कुमारी प्रीतिलता वादेदार ने भी अपना बलिदान दिया था। चटगांव अस्त्रागार लूट लिए जाने के बाद अंग्रेजों ने बदला लेने की भावना से चटगांव निवासियों को बहुत परेशान और तंग कर रखा था। अंग्रेजों के उस अत्याचार का बदला लेने की नीयत से एक रात चटगांव यूरोपियन क्लब पर हमला किया गया और कई अंग्रेज अफसर मारे गए। उस हमले का नेतृत्व किया था कुमारी प्रीतिलता वादेदार ने। एक अंग्रेज मिलिटरी अफसर की गोली से जख्मी होने पर प्रीतिलता ने जहर खाकर अपना बलिदान कर दिया।

बलिदान का यह निरालापन और किसी देश में नहीं मिलता है। अपने को बिल्कुल भुलाकर सब कुछ न्योछावर कर देने का ऐसा उदाहरण दुनिया में और कहीं भी नहीं दिखाई देता। भारतवर्ष के क्रांतिकारियों ने दुनिया के सब देशों के सामने जो बलिदान प्रस्तुत कर दिया है, वह आदर्श है, अतुलनीय है, अपूर्व है।

इन आदर्श उदाहरणों के बावजूद, आजादी के बाद पिछले 15-16 साल में धीरे-धीरे देश ने क्रांतिकारियों को भुला दिया। लोग यह समझने लगे कि अहिंसावाद एक सफल राजनीतिक सिद्धांत है, न कि जन आंदोलन की एक नीति। इसी संदर्भ में हमने अपनी सैन्य शक्ति नहीं बढ़ाई। स्वतंत्र भारत के सरहदी दायरे में (फ्रंटियर्स में) हजारों मील की बढ़ोतरी होने के बावजूद हमने अपना फ्रंटियर्स गाड्र्स नहीं बढ़ाया।

विस्तारवादी चीन के साथ मैत्री संबंध कायम रखा और अपनी सेना की आवश्यकताओं को पूर्ण करने में हमसे चूक हो गई। ऐसी परिस्थिति में अकस्मात पिछले अक्टूबर में चीन ने हमारे ऊपर सैनिक आक्रमण कर दिया। कई मोर्चों पर हमारी हार पर हार होती गई। इसी चीन को अपना भाई मानकर, हम र्‘ंहदी-चीनी भाई-भाई’ के नारे लगा चुके थे। इस विश्वासघात से सारे देश में चीन विरोधी आवाजें उठने लगीं और सारा देश एक हो गया।

उन दिनों मैं बनारस में था। वहां भी एक आल पार्टी मीटिंग हुई। उस सार्वजनिक सभा में उपस्थिति 15-20 हजार से ज्यादा रही होगी। चीन के खिलाफ बहुत आक्रोश था। मैंने जनता को दो बातें समझाईं। एक थी अनुशासन के बारे में। बिना सैन्य अनुशासन के कोई भी लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती, लड़ाई में कामयबाी नहीं मिल सकती। और दूसरी बात जिसका मार्मिक आग्रह मैंने किया था, वह था-रक्तदान।

उस वक्त हमारे करीब 2,000 सिपाही शहीद हो चुके थे या गुम हो गए थे। करीब आठ से दस हजार जख्मी हुए होंगे। उन जख्मी सिपाहियों का जख्म जल्द ठीक करके उन्हें फिर लड़ने के काबिल बनाने के लिए रक्तदान चाहिए। मैंने अपील की कि आप सैकड़ों की तादाद में सिविल अस्पताल जाकर रक्तदान कीजिए ताकि हमारे जख्मी सिपाही फिर से ठीक होकर बदला लेने की भावना लेकर लौटकर लड़ाई के मैदान में द्विगुणित उत्साह से जाकर लड़ें। रुपए-पैसे तो आप दे ही रहे हैं और देंगे भी, लेकिन रक्तदान इस वक्त निहायत जरूरी है।

मुझे मालूम था कि हमारी धरती है बलिदान की। मैंने दूसरे दिन देखा-400 से ऊपर व्यक्ति सिविल अस्पताल पहुंचकर लाइन में खड़े थे। इसी प्रकार जरूरत पड़ने पर हमेशा हमारा देश हर प्रकार के बलिदान करने को तत्पर रहेगा। जरूरत है समुचित और योग्य नेतृत्व की। सही रास्ता दिखाने वालों की। सही प्रचार की और सही संगठन की। बस इसी की कमी है। केवल अहिंसा के बल पर देश स्वतंत्र नहीं रह सकता, बलिदानी भारत को योग्य नेतृत्व चाहिए।

Leave a Reply

error: Content is protected !!