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चौरी चौरा जनाक्रोश को सही से समझने का समय. - श्रीनारद मीडिया

चौरी चौरा जनाक्रोश को सही से समझने का समय.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन और स्वाधीनता के लिए भारतीयों का भगीरथ प्रयास अंतर्निहित इतिहास ही माने जा सकते हैं। इस संपूर्ण घटनाक्रम का चित्रफलक इतना व्यापक है कि वैश्विक इतिहास लेखन में भारतीय स्वाधीनता की गाथा सर्वाधिक लोकप्रिय है, परंतु विभिन्न प्रकार के इतिहास लेखनों की प्रवृत्तियों ने स्वाधीनता की गाथा की जो पटकथा प्रस्तुत की, उसके फलस्वरूप देश की स्वाधीनता में जिन्होंने सर्वस्व न्यौछावर कर दिया, उन्हें और उनकी भागीदारी को न्याय नहीं मिला।

निश्चित ही इतिहास और इतिहासकार न्याय व न्यायाधीश की भूमिका में नहीं हो सकता, परंतु न्यायप्रिय होना उसका मौलिक धर्म है। चौरी चौरा को शायद इसी पथ की आवश्यकता है। यदि इस घटना के विभिन्न पक्षों को देखा जाए तो यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि यह एक ऐसी स्थानीय घटना थी जिसने राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास पर व्यापक प्रभाव डाले।

वर्ष 1857 के प्रयास के पश्चात भारतीयों ने निरंतर अपनी मातृभूमि को मुक्त कराने के लिए अनेक आहुतियां दीं। साम्राज्यवादी इन बलिदानों को अपने दस्तावेजों में उग्रवादी या भारतीय हत्यारा कहें तो अचंभा नहीं। पश्चिमी विद्या से उपजा भारतीय इतिहास लेखन इनके प्रयासों और समर्पण को अनदेखा करे तो उनकी ही दृष्टि और लेखनी में ऐसा क्यों? समझने की आवश्यकता है।

जैसे इनके अनुसार जार्ज वाशिंगटन के साथ रहे क्रांतिकारी महान थे, परंतु भारतीय जन का मुखर प्रतिरोध आतंकवाद था। स्वतंत्रता उपरांत की माक्र्सवादी अवधारणा ऐसे बलिदानों को व्यक्तिवादी नायकवाद कहते हुए आगे बढ़ जाएं और उपाश्रयी इतिहास लेखन इन घटनाओं का जातिगत विभाजन कर भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के कैंब्रिज स्कूल की विचारधारा को संतुष्ट कर जाएं, वस्तुत: चौरी चौरा और ऐसी अन्यान्य घटनाएं इस हेतु अभिशप्त हैं।

जनाक्रोश का आधार : चौरी चौरा को यदि राष्ट्रीय फलक पर समझना है तो जलियांवाला बाग जाना होगा। एक तथाकथित सुसंस्कृत राष्ट्र ने निहत्थे भारतीयों का कत्लेआम किया। जनाक्रोश राष्ट्रीय हुआ और असहयोग आंदोलन को इसके कारण आधार मिला। चौरी चौरा का आक्रोश जलियांवाला बाग की घटना का प्रत्युत्तर था, परंतु दुर्भाग्यवश घटना ने असहयोग आंदोलन को ही समाप्त कर दिया। विवेचना का प्रश्न है कि यह दुर्भाग्यवश था या एक सिद्धांत की अवसरवादिता। समकालीन प्रतिक्रिया जो हुई, शायद उसने चौरी चौरा की घटना के इतिहास लेखन को प्रभावित किया।

बारदोली प्रस्ताव के पूर्व ही गोरखपुर खिलाफत कांग्रेस समिति ने चौरी चौरा पर निंदा प्रस्ताव पारित करते हुए घटना से स्वयं को असंबद्ध किया। परंतु वास्तविकता यह थी कि घटना में अधिकांशत: असहयोग से जुड़े हुए स्वयंसेवक थे जो ग्रामीण अंचल पर मदिरा और मांस के बहिष्कार को आगे बढ़ा रहे थे। एक फरवरी 1922 को ऐसे ही एक स्वयंसेवक भगवान अहीर की चौरी चौरा के तत्कालीन दारोगा गुप्तेश्वर सिंह के द्वारा पिटाई कर दी गई थी, क्योंकि वह बाजार में मांस की बिक्री का विरोध कर रहा था।

अर्थात मूल रूप से गांधी जी के आह्वान पर चौरी चौरा में यह असहयोग का एक रूप था। तीन फरवरी, 1922 तक के इस घटनाक्रम को चौरी चौरा का प्रथम समय खंड काल यानी फस्र्ट टाइम लाइन माना जा सकता है।

चौरी चौरा का द्वितीय समय खंड काल यानी सेकेंड टाइम लाइन चार फरवरी, 1922 से प्रारंभ माना जा सकता है, जब स्वयंसेवकों के दल ने भगवान अहीर की पिटाई के खिलाफ थाने तक जुलूस ले जाने का कार्य किया। यह सर्वमान्य है कि जुलूस के स्वयंसेवक न ही किसी को मारने की योजना से गए थे और न ही उनकी मंशा थाना को जलाने की थी। घटनाक्रम कुछ जलियांवाला बाग की तरह ही हुआ।

निहत्थों पर प्रशासन द्वारा पहले लाठीचार्ज किया गया, तत्पश्चात उन पर गोलीबारी की गई। वाचिक इतिहास के तथ्यों से पता चलता है कि इस गोलीबारी में तीन स्वयंसेवक मारे गए, जिनका जिक्र सरकारी रिकार्डों में नहीं किया गया। तदुपरांत भीड़ उग्र हुई और चौरी चौरा के थाने और सिपाहियों को जलाने की घटना घटी। परंतु उग्र हुए भारतीयों ने अपने विवेक का परिचय दिया और थानाध्यक्ष गुप्तेश्वर सिंह की गर्भवती पत्नी को सुरक्षित जाने का मार्ग दिया।

चौरी चौरा का तीसरा समय खंड काल यानी थर्ड टाइम लाइन गोरखपुर सत्र न्यायालय में दाखिल वाद से प्रारंभ माना जा सकता है, जिस समय चौरी चौरा की घटना से जुड़े जनों के साथ न ही कांग्रेस संगठन के रूप में खड़ी थी, न ही अन्य कोई। यह आश्चर्य का विषय इसलिए नहीं, क्योंकि कांग्रेस प्रारंभ से ही बलिदानियों की इस प्रकृति के औपनिवेशिक विरोध का कभी पक्षधर नहीं रही थी।

चापेकर बंधुओं की शहादत से, भगत सिंह की शहादत तक, उसने स्वयं को असंबद्ध ही रखा। यहां पर उद्धृत करना आवश्यक है कि चापेकर बंधु के पक्ष में एकमात्र समकालीन समाचार पत्र ‘कालÓ के संपादक एसवी परांजपे ने चापेकर बंधुओं के पक्ष में लिखा, परिणामस्वरूप परांजपे को कांग्रेस के अधिवेशनों में आने से दादा भाई नौरोजी द्वारा रोक दिया गया। ऐसे अनेक तथ्य हैं जिनके आधार पर यह समझा जा सकता है कि आखिर चौरी चौरा जनाक्रोश की प्रस्तुति इतिहास में सही अर्थों में नहीं की गई।

चौरी चौरा के इस तृतीय समय खंड काल में शहीदों के साथ भावनात्मक समर्थन और संगठनों का समर्थन नहीं दिखाई पड़ता। सत्र न्यायालय गोरखपुर से 172 भारतीयों को फांसी की सजा सुनाई गई।

इसके पश्चात प्रारंभ होता है चौरी चौरा का चतुर्थ समय खंड काल, वह इसलिए कि 172 लोग फांसी नहीं चढ़े, शहादत की यह संख्या 19 ही रह गई। सत्र न्यायालय के निर्णय उपरांत एक व्यक्ति जो इन जनों के समर्थन में प्रत्यक्ष रूप से आते हैं, वह हैं बाबा राघवदास। मूलत: महाराष्ट्र के निवासी और एक संत के रूप में पूर्वांचल द्वारा अपनाए गए। शायद यही भारतीयता का मूल तत्व है, आप कहां के हैं यह मायने नहीं, आपके कार्य एवं आप समाज के लिए समर्पित हैं तो भारतीय समाज आपको बिना किसी भेदभाव के स्वीकार करता है।

बाबा राघवदास ने चौरी चौरा के सत्र अदालत के निर्णय का खुला विरोध किया एवं चंदा एकत्रित कर महामना से संपर्क कर इलाहाबाद उच्च न्यायालय में वाद दाखिल कराया। महामना द्वारा चौरी चौरा का मुकदमा लड़ा गया और 172 जनों को हुई फांसी की सजा को 19 जनों में उच्च न्यायालय ने परिवर्तित किया।

प्रश्न यह उठता है कि जिस प्रकार से औपनिवेशिक तंत्र कार्य करता था और चौरी चौरा की घटना को लेकर बाबा राघवदास एवं महामना जैसे देशभक्त भी उसी प्रकार की प्रतिक्रिया करके मौन रहते, जैसे अन्य के द्वारा की गई थी तो वस्तुत: आज चौरी चौरा में इन बलिदानियों की सूची 19 की न होकर 172 की होती। इतिहास के इस सत्य और ‘शायदÓ को चिन्हित कर पाना चौरी चौरा के संदर्भ में लगभग असंभव है। समझने की आवश्यकता है कि चौरी चौरा का कथानक किन स्तंभों पर खड़ा किया गया? उत्तर स्पष्ट है- अधिकांशत: इस प्रकार की घटनाएं भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के घटनाक्रम में आंदोलन की मर्यादा को क्षीण करने वाली घटनाओं के रूप में दर्शाई गई हैं।

क्या यह जलियांवाला बाग का प्रतिरोध नहीं था? क्या राष्ट्रीय आंदोलन का खंड काल जलियांवाला बाग से प्रारंभ हो चौरी चौरा तक एक नया अध्याय नहीं लिख रहा था? आवश्यकता है इतिहास के इस क्रम को जोड़कर देखने की। जलियांवाला बाग एक तथाकथित सुसंस्कृत राज्य का हत्याकांड था और चौरी चौरा उस तथाकथित सुसंस्कृत राज्य को प्रत्युत्तर।

यदि 1922 की घटना न्यायिक और नैतिक अपराध की श्रेणी में मात्र इसलिए आती है कि यह अहिंसा के सिद्धांतों को एक सीमा के पश्चात अस्वीकार कर देती है, क्योंकि यहां राज्य अपनी बर्बरता का निरंतर परिचय देता रहता है। यदि उच्च न्यायालय में महामना द्वारा किए गए तर्कों पर ध्यान केंद्रित किया जाए तो वह इसी तथ्य पर आधारित है कि स्वयंसेवक थाना जलाने अथवा हत्या के इरादे से नहीं आए थे अर्थात घटना इरादतन नहीं थी और जो घटना घटी उस में तत्कालीन जिला प्रशासन की महत्वपूर्ण भूमिका कारक तत्व थी।

इसके अतिरिक्त, यदि हिंसा का मुद्दा इतना महत्वपूर्ण सिद्धांत था तो आजाद हिंद फौज के मुकदमे में भारतीयों के बचाव में वे लोग क्यों अत्यंत तत्पर हो गए जो हिंसा के पुरजोर विरोधी थे और नेता जी की भूमिका एवं वैचारिकी से असहमत थे। उत्तर है देश का ज्वार और नेता जी एवं आजाद हिंद फौज की लोकप्रियता जोकि शीघ्र ही स्वतंत्र देश की राजनीतिक स्थितियों पर अपना प्रभाव छोड़ सकती थी।

अत: आवश्यकता है चौरी चौरा को उसके खंड कालों में समझा जाना, जिससे यह मात्र एक स्थानीय घटना न होकर, राष्ट्रीय आंदोलन की दिशा को परिवर्तित करने वाले एक अति महत्वपूर्ण घटना की तरह समझा जा सके। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि इस घटना के पश्चात कांग्रेस असहयोग के मुद्दे को लेकर लगभग दूसरी बार बंटवारे के मुहाने पर आकर खड़ी हो गई थी।

गांधी और समाचार पत्र-पत्रिकाओं की प्रतिक्रिया %

इस घटना पर कांग्रेस और महात्मा गांधी की प्रतिक्रिया सर्वविदित है। इसके अतिरिक्त यदि समकालीन समाचार पत्र-पत्रिकाओं में चौरी चौरा की घटना पर प्रतिक्रिया देखी जाए तो वह भी घटना की आलोचना से परिपूर्ण है। उदाहरण के लिए ‘अभ्युदयÓ साप्ताहिक पत्र के 11 फरवरी, 1922 के अंक में शीर्षक दिया गया- खेदजनक और भीषण हत्याकांड- दो दारोगा और 15 कांस्टेबलों की हत्या। इसके अलावा -द लीडरÓ ने अपने आठ फरवरी, 1922 के अंक में लिखा- हिंसा और आगजनी के तांडव के बीच भीड़ ने बेहद सुनियोजित तरीके से थाना पर हमला करते हुए पुलिसवालों को जिंदा जला दिया।

इस खबर में घटना को सुनियोजित जामा पहना दिया गया। दिनांक नौ फरवरी के ‘द लीडरÓ अखबार में एक और खबर छपी- गोरखपुर में सामने आया भयावह त्रासदी का दृश्य। इसके बाद एक अन्य अखबार ने एक और शीर्षक से खबर लिखी जिसके बाद से चौरी चौरा को एक भीषण हत्याकांड के रूप में स्थापित कर दिया गया। कांग्रेस की संगठन के रूप में प्रतिक्रिया, तत्कालीन समाचार पत्रों की प्रतिक्रिया और आश्चर्यजनक रूप से अंतरराष्ट्रीय मीडिया द्वारा चौरी चौरा को जलियांवाला बाग से कहीं अधिक स्थान देना, इन सबने मिलकर चौरी चौरा की घटना को चौरी चौरा हत्याकांड की स्थानीय प्रस्तुति में स्थापित कर दिया।

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