पटना पूर्व बाढ़ की पहली सांसद का आज जन्मदिन है 

पटना पूर्व बाढ़ की पहली सांसद का आज जन्मदिन है 

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

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बला की खूबसूरत, चेहरे पर एक चार्म, बॉब कट बाल, साड़ी और स्लिवलेस ब्लाउज पहने कार से उतरती है और सीधा दनदनाते हुए सकरवार टोला, मोकामा के पंडित केशव प्रसाद शर्मा के पास पहुँच जाती है …….

पीछे -पीछे दो चार गाड़ियाँ हाॅर्न बजाती हुई वहाँ आ जाती है। वर्ष था 1952 का और मौका था देश के पहले आम चुनाव का। 1952 में बाढ़ सहित मोकामा उसी क्षेत्र का हिस्सा था। 1957 में नया परिसीमन हुआ और बाढ़ लोकसभा क्षेत्र अस्तित्व में आया। तारकेश्वरी सिन्हा तब कांग्रेस की प्रत्याशी थीं और इस क्षेत्र से पहली सांसद भी बनीं।

केशव बाबू तब मोकामा ही नहीं बिहार के बड़े नेताओं में शुमार थे। कांग्रेस में बड़ा कद था उनका। स्वतंत्रता आंदोलन में अपनी पाई- पाई लुटा दी थी उन्होंने। कांग्रेस उन्हें चुनाव लड़ाना चाहती थी लेकिन उन्होंने खुद आगे बढ़कर तारकेश्वरी सिन्हा के नाम का समर्थन किया था। इसी कृतज्ञता के कारण तारकेश्वरी केशव बाबू से आशीर्वाद लेने आईं थीं।

तारकेश्वरी सिन्हा के बारे में कहा जाता है कि वह जहांँ खड़ी हो जाती थीं, वहांँ का माहौल ही बदल जाता था।‌ लोगों के बीच उन्हें लेकर खास दीवानगी थी।‌ उन्हें ग्लैमरस गर्ल ऑफ पार्लियामेंट कहा जाता था।

केशव बाबू तारकेश्वरी सिन्हा को पुत्रीवत् मानते थे। उन्होंने न सिर्फ़ अपना समर्थन दिया बल्कि घूम घूमकर वोट भी माँगे थे।

तारकेश्वरी के पिता पटना में सर्जन थे। वह उनकी अकेली लड़की थीं। कॉलेज में पढाई के दौरान ही वह छात्र राजनीति में कूद पड़ी थीं। देखते ही देखते बिहार की बड़ी छात्र नेता के रूप में उभरीं। उस समय उनकी उम्र बमुश्किल 19-20 साल रही होगी।

इसके बाद 1942 के अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन में उन्होंने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया।‌ खूबसूरती के साथ उनमें ज़बरदस्त एग्रेशन भी था। हालांकि राजनीति में उनकी बढ़ती दिलचस्पी ने बाद में उनके परिवार को चिंतित भी किया। बहुत युवा उम्र में ही उनकी शादी छपरा के जाने- माने भूमिहार जमींदार परिवार में तय कर दी गई।‌ पति निधिदेव सिंह तब बड़े वकील थे।

तारकेश्वरी के पिता को लगा कि अब उनकी बेटी राजनीति को भूलकर घर में मन लगाएगी। पति के साथ वह कोलकाता की शानदार पैतृक हवेली में रहने लगीं। लेकिन शायद राजनीति से दूर रहना उनका शगल नहीं था। वह फिर से स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई में कूद पड़ीं।

इस बीच लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से उन्होंने इकोनॉमिक्स में एमएससी की पढ़ाई के लिए लंदन का रूख किया । वहांँ भी वह डिबेट में हिस्सा लेतीं और अपने तर्कों से लोगों पर जादू कर देतीं।‌हालांकि उन्हें पढाई बीच में ही छोड़कर लौटना पड़ा।

1952 में वे पटना से कांग्रेस के टिकट पर जीतीं और महज 26 साल की उम्र में लोकसभा पहुंँच गईं। तब वह बेबी ऑफ हाउस थीं तो ग्लैमर गर्ल ऑफ इंडियन पॉलिटिक्स भी। कई लोगों ने तो उन्हें ब्यूटी विद ब्रेन कहा था । कहा जाता था कि उस समय बहुत से सांसद लोकसभा में आते ही केवल इसलिए थे कि वह तारकेश्वरी को देख सकें या बोलते हुए सुन सकें।

बड़े बुजुर्ग कहते हैं, जब वह बोलती थीं तो लोकसभा रुक सी जाती थी। किसी ने उनको लोकसभा की बुलबुल कहा, तो किसी ने हंटरवाली। भाषण ऐसा कि सुनने वाला मंत्रमुग्ध हो जाए।‌ जिस किसी ने इनका भाषण सुना, वो हमेशा के लिए इनका दीवाना हो गया।

तारकेश्वरी की खासियतों की भी लंबी फेहरिश्त है । वे एक से एक साड़ियां पहनती थीं। उनके बारे में कहा जाता था कि कभी वह उसे दोहराती नहीं थीं। वह अपने लुक के प्रति बहुत सचेत थीं। बहुत से नेता तो उनसे बातचीत हो जाने को ही अहोभाग्य मान लिया करते थे।

जाने-माने फिल्मकार और गीतकार गुलज़ार ने जब उन दिनों आंधी फिल्म बनाई थी,तब ऐसा माना जाता था कि ये फिल्म इंदिरा गांधी के जीवन पर आधारित है। लेकिन खुद गुलजार का कहना था कि ये फिल्म तारकेश्वरी के जीवन से भी रिसेंबल करती है।

52, 57 और 62 का लोकसभा चुनाव जीतने के बाद उनका राजनीतिक करियर ठहर गया। फिर चुनावों में उनकी हार का सिलसिला जो शुरू हुआ ,तो रुका ही नहीं। आखिरकार 1978 में समस्तीपुर का चुनाव हारने के बाद उन्होंने सियासत से किनारा कर लिया।

तारकेश्वरी सिन्हा के दो बेटे और दो बेटियां हैं। लेकिन उनमें से कोई राजनीति में नहीं आया। उनके बड़े बेटे डॉ. उदयन सिन्हा अमेरिका में एक कंपनी चलाते हैं। लेकिन कुछ-कुछ समय पर बिहार आते रहते हैं। वह कुछ दिन रहकर बच्चों को पढ़ाते हैं। उनकी परीक्षा लेते हैं. बेहतर प्रदर्शन करने वालों को लैपटॉप या नकदी का इनाम देते हैं। डॉ. सिन्हा मैथमेटिक्स सिस्टम एजुकेशन फॉर रूरल और ए ग्रास रूटर्स एफर्ट एलईडी के अलावा ट्रेडमार्क, गणित, विज्ञान, रोबोट आदि का मुफ्त में प्रशिक्षण देते हैं।

14 अगस्त 2007 को तारकेश्वरी सिन्हा का देहांत हो गया। उनके निधन की खबर शायद ही दिल्ली के किसी अखबार में छपी हो। ये हैरानी की बात है कि जो महिला नेता अपनी खूबसूरती से लेकर तेज़-तर्रार राजनीति के लिए दिल्ली और वहाँ के मीडिया की खबरों में रहती थी, उसे तब सबने भुला दिया ,जब उसने आखिरी सांसें लीं।

वे बेहद संवेदनशील कवियत्री और अच्छी लेखिका भी थीं। आज़ जयंती पर उनकी स्वप्निल यादों को भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ।

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