भिखारी ठाकुर की जयंती पर नमन
जयंती पर विशेष
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

भिखारी ठाकुर की जयंती पर नमन करते हुए कुछ बातों की ओर ध्यान दिलाना चाहता हूँ। भिखारी ठाकुर की जयंती केवल श्रद्धा प्रकट करने का अवसर नहीं है, बल्कि उनके रचना-कर्म और उस पर बने विमर्श को गंभीरता से देखने का भी समय है। भिखारी ठाकुर बंगाल में रहकर वहाँ के सामाजिक सांस्कृतिक परिवेश से प्रभावित हुए और उसी प्रभाव के भीतर उन्होंने अपना रचना-कर्म किया।
यह प्रभाव उनकी नाट्य नौटंकी, मंचन की प्रस्तुति शैली में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि वामपंथी गढ़ में रहकर, वामपंथी प्रभावों के बीच काम करते हुए भी वे अपने राम को कभी नहीं भूले। उनकी आस्था, उनका संस्कार और उनका आत्मबोध किसी एक वैचारिक खाँचे में सीमित नहीं रहा।
भिखारी ठाकुर की तुलना शेक्सपीयर से करने का जो चलन बना है, वह न केवल अतार्किक है बल्कि बचकाना भी है। इस तरह की तुलना न तो भिखारी ठाकुर के लोकनाट्य की प्रकृति को समझने में मदद करती है और न ही साहित्यिक विवेक को समृद्ध करती है। ऐसी तुलना से बचना चाहिए, क्योंकि इससे उनके रचना-संसार की मौलिक समझ धुंधली होती है और एक अनावश्यक महिमामंडन का रास्ता खुलता है।
यह भी स्पष्ट रूप से स्वीकार किया जाना चाहिए कि भिखारी ठाकुर की अधिकांश रचनाएँ बंगाल से प्रभावित रहीं। उनके रचना-संसार को पूर्वांचल या संपूर्ण भोजपुरिया संस्कृति का स्वाभाविक, स्वतःस्फूर्त प्रतिनिधि मान लेना तथ्यात्मक रूप से सही नहीं ठहरता। उनका रचनात्मक संसार एक विशेष अनुभव भूमि से निकला हुआ है, जिसका सीधा और गहरा संबंध व्यापक भोजपुरिया लोकजीवन से जोड़ना कई बार भ्रम पैदा करता है। इस बिंदु पर स्पष्टता आवश्यक है, ताकि इतिहास और आलोचना दोनों ही संतुलित रह सकें।
दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि भिखारी ठाकुर पर अब तक हुए अधिकांश विमर्श मुख्यतः मार्क्सवादी विचारधारा के पोषक, एजेंडा प्रधान लेखकों द्वारा ही संचालित रहे हैं। इस कारण उनका मूल्यांकन एकतरफा होता चला गया। जब किसी रचनाकार को केवल एक ही वैचारिक दृष्टि से देखा जाता है, तो उसका समग्र व्यक्तित्व और रचना-संसार सामने नहीं आ पाता। इसलिए इस विमर्श को सही दिशा देना आज की ज़रूरत है, ताकि भिखारी ठाकुर को एकांगी नहीं, बल्कि यथार्थ रूप में समझा जा सके।
भिखारी ठाकुर रचनावली, जो बिहार सरकार द्वारा प्रकाशित की गई, उस पर भी गंभीर प्रश्न उठते हैं। उनकी रचनाओं को सही रूप में प्रस्तुत करने के लिए कितना श्रम हुआ, वह श्रम किस-किस ने किया, किन स्रोतों और पाठों के आधार पर संपादन हुआ! यह सब सार्वजनिक पटल पर आना चाहिए। बिना इस पारदर्शिता के न तो शोध का सम्मान होता है और न ही पाठक को प्रामाणिक पाठ मिल पाता है।
भिखारी ठाकुर के नाम से जिस बिदेसिया को बार-बार उनकी रचना बताकर प्रचारित और प्रसारित किया जाता है, वह उनकी अपनी रचना नहीं है। स्वयं भिखारी ठाकुर ने कभी ऐसा दावा नहीं किया। उनके जीवनकाल में ही अनेक विद्वानों ने यह सिद्ध कर दिया था, फिर भी आज इसे उनकी रचना कहकर प्रस्तुत करना बौद्धिक ईमानदारी के विरुद्ध है।
अंत में इतना ही कहना है कि भोजपुरी की अँजुरी हीरे और नगीनों से भरी पड़ी है। किसी एक रचनाकार या एक दृष्टि को ही सर्वस्व मान लेना खतरनाक है। एकांगी विमर्श से बचना ही साहित्य और संस्कृति के हित में है।
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