Notice: Function _load_textdomain_just_in_time was called incorrectly. Translation loading for the newsmatic domain was triggered too early. This is usually an indicator for some code in the plugin or theme running too early. Translations should be loaded at the init action or later. Please see Debugging in WordPress for more information. (This message was added in version 6.7.0.) in /home/imagequo/domains/shrinaradmedia.com/public_html/wp-includes/functions.php on line 6121
हमें अपनी मूल संस्कृति से फिर से जुड़ना होगा,कैसे? - श्रीनारद मीडिया

हमें अपनी मूल संस्कृति से फिर से जुड़ना होगा,कैसे?

हमें अपनी मूल संस्कृति से फिर से जुड़ना होगा,कैसे?

०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
priyranjan singh
IMG-20250312-WA0002
IMG-20250313-WA0003
previous arrow
next arrow
०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
priyranjan singh
IMG-20250312-WA0002
IMG-20250313-WA0003
previous arrow
next arrow

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

जब कभी आदिवासियों के विकास की बात होती है तब यह कहा जाता है कि आदिवासी संस्कृति में बदलाव कर उन्हें विकास की धारा से जोड़ा जा सकता है। ऐसे विचार आदिवासी विकास और आत्मनिर्भरता के लक्ष्य से हमें भटका रहे हैं। वास्तव में आदिवासी संस्कृति के विस्तार से ही आत्मनिर्भरता का लक्ष्य पूरा किया जा सकता है।

प्रकृति का संरक्षण और संवर्धन आदिवासी संस्कृति की विशिष्टता है। प्रकृति के सान्निध्य में अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं कर लेना आदिवासी समाज को आत्मनिर्भर बनाता है। पश्चिमी मुनाफाखोरी प्रवृत्ति के दबाव में अधिकांश आदिवासी समाज का नकारात्मक चित्रण कर आदिवासी समाज की विशिष्टता को हतोत्साहित कर सीमित करने का प्रयास किया गया है। आज अधिकांश लोगों के पास आदिवासी संस्कृति के सहभागी अवलोकन का अनुभव नहीं है तथा भ्रमित द्वितीयक सामग्री पर आधारित प्राप्त सूचना के आधार पर लोग आदिवासी संस्कृति में बदलाव कर उन्हें विकास की धारा से जोड़ने की बात करते हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि आदिवासी संस्कृति विकास की मुख्यधारा है तथा इसे अपना कर ही देश के विकास और आत्मनिर्भरता के लक्ष्य को पूरा किया जा सकता है।

पूर्व तथा वर्तमान में विभिन्न सरकारों द्वारा विकास संबंधी कई योजनाओं का निर्माण किया गया, लेकिन आत्मनिर्भरता का लक्ष्य आज तक पूरा नहीं हो सका। ऐसे में इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि आदिवासी समाज तक सरकार की विभिन्न विकास योजनाओं की पहुंच अन्य समाज के मुकाबले न्यूनतम है। इसके बावजूद अन्य समाज की तुलना में आदिवासी समाज में आत्मनिर्भरता सर्वाधिक है।

इसका मुख्य कारण आदिवासी संस्कृति की वह विशिष्टता है जिसके अंतर्गत विकास की रणनीति बाह्य पारिस्थितिकी तंत्र से प्रभावित न होकर स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र, सर्वसम्मति, स्वशासन और प्रकृति संवर्धन से प्रभावित होकर बनाई जाती है। अपनी संस्कृति में स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र के संवर्धन को शामिल करना आदिवासी समाज को सतत विकास के साथ जोड़कर रखता है जिस कारण से वैश्विक आर्थिक मंदी जैसी स्थिति भी आदिवासी क्षेत्रों में न्यूनतम प्रभावी या अप्रभावी हो जाता है।

भारत में आत्मनिर्भरता का स्वर्णिम इतिहास रहा है, लेकिन समय के साथ बाह्य प्रभावों के कारण आत्मनिर्भरता धीरे-धीरे खत्म होती गई। वर्तमान स्थिति तो ऐसी हो गई है कि परिवार के एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानीय सामाजिक संस्कृति नगण्य होती जा रही है, जबकि पश्चिमी संस्कृति ज्यादा प्रभावी रूप से दिखने लगी है। हमें यह समझना चाहिए कि संस्कृति ही किसी समाज को आत्मनिर्भर बनाती है तथा जिस किसी भी क्षेत्र में स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र पर आधारित संस्कृति की तुलना में बाह्य संस्कृति का ज्यादा प्रभाव होगा, उन क्षेत्रों में सरकार लगातार विकास की योजनाओं में आर्थिक निवेश कर भी आत्मनिर्भरता नहीं ला सकती है।

संस्कृति के माध्यम से ही एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में सांस्कृतिक तत्वों का संचार होता है तथा अगली पीढ़ी भी प्रकृति के सान्निध्य में आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक रूप से आत्मनिर्भर बनती है। आदिवासी समाज में सांस्कृतिक संचार की प्रक्रिया काफी प्रभावशाली रही है। आदिवासी समाज के कई ऐसे संस्थान हैं जिनके माध्यम से सांस्कृतिक संचार प्रभावी तरीके से किया जाता है। इन्हीं में से एक है- धुमकुड़िया। यह एक ऐसा मंच या संस्थान है जहां युवा शैक्षणिक तथा सांस्कृतिक गतिविधियों से परिचित होते हैं। जब सांस्कृतिक गतिविधियों की बात होती है तो उसके अंतर्गत यहां आíथक गतिविधियां भी शामिल हैं।

सामाजिक महत्व के विभिन्न विषयों पर चर्चाएं होती हैं। नृत्य और गायन भी इसका एक पक्ष है। यह सांस्कृतिक रूप से चली आ रही व्यवस्था है। सामाजिक सहयोग से यह संस्था चलती आ रही है। ऐसी संस्थाओं के माध्यम से समाज में एकता भी बढ़ती है, संस्कृति से युवाओं का परिचय भी होता है तथा आत्मनिर्भरता भी आती है। एक साथ बैठकर सामाजिक विषयों पर बातचीत करना तथा विकास से संबंधित अपने विचारों को प्रस्तुत करना युवाओं को अपने समाज से जोड़कर रखता है।

कुल मिलाकर पारिस्थितिकी तंत्र, समाज और स्वास्थ्य जैसे विषयों का अनुभवजन्य ज्ञान प्राप्त युवा किसी सरकार से मदद मांगने की बजाय स्वयं आत्मनिर्भर होने का गुण प्राप्त कर लेता है। अगर हम आदिवासी संस्कृति के धाíमक स्थलों की विशिष्टता पर चर्चा करें तो आज भी यह समाज प्रकृति के ज्यादा नजदीक है। बड़े-बड़े विशालकाय भवनों के मुकाबले इस समुदाय में घने जंगल, पेड़, नदी और पहाड़ आदि को ज्यादा महत्व दिया जाता है। सभी प्राकृतिक विरासतों का संवर्धन धाíमक मान्यताओं से जुड़ा हुआ है।

सांस्कृतिक विशेषताओं की बात करें तो आदिवासी समाज की कथनी और करनी में अंतर नहीं होता। अगर नदी, जंगल, पहाड़ को पूजनीय माना गया है तो केवल इनकी पूजा ही नहीं की जाती, इन प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण और संवर्धन भी प्रतिबद्धता के साथ किया जाता है। आदिवासी आंदोलनों के इतिहास को अगर पढ़ा जाए तो इन आंदोलनों में प्रकृति को बचाने से संबंधित आंदोलन प्रमुखता से सामने आते हैं। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि आदिवासियों ने व्यक्तिगत स्वार्थ से ज्यादा प्रकृति को महत्ता दी जिससे पारिस्थितिकी तंत्र की परिधि में रहने वाला हर प्राणी आत्मनिर्भर हुआ।

आदिवासी संस्कृति से शिक्षा प्राप्त कर सरकार के द्वारा विकास संबंधी योजनाएं बनाई जाएंगी, तभी हमारा देश आत्मनिर्भरता के लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। अन्यथा देश में आर्थिक प्रगति तो हो सकती है, लेकिन आत्मनिर्भरता का लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकता है।

Leave a Reply

error: Content is protected !!