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हम हर हाल में जीतेंगे! जीतकर रहेंगे! कैसे?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

अंधेरे में छिपी, एक रात की खामोशी में, किसी ने नदियों को रोते हुए सुना है क्या? नदियों के किनारे मवेशियों को नहलाना और कपड़े धोना कहां तक ठीक है? कभी सोचा है क्या कि कोई दूसरे किनारे पर अपनी प्यास बुझा रहा होगा या कोई महिला अपने किसी देवता को जल चढ़ा रही होगी? अपने घर के पीछे वाले आंगन में कभी हवा को खून के छींटे बरसाते हुए देखा है क्या? अपनी व्यस्तता से कुछ क्षण निकालकर कभी इस गूंगी धरती से बात की है क्या? उसके दर्द पूछे हैं क्या? अगर नहीं, तो हमें खुद से जरूर पूछना चाहिए कि क्या हम इन्सां हैं?

फिर भी अगर हमें एहसास नहीं है तो उन लोगों से जाकर समझना चाहिए, जिनके घर की छत पर छेद हैं और उन छेदों से घुसकर जालिम हवा रोज उनकी खिचड़ी को ठंडी कर जाती है! आसमां से गिरते आंसू, उस छेद से इतने टपकते हैं कि उनके आलुओं की ‘तरी’ बन जाती है! ये बात हुई शुद्ध रूप से पर्यावरण की। पर्यावरण दिवस अभी पांच जून को ही बीता है। हमने उस दिन तमाम एहतियात की शिक्षा ली, दी और भूल गए। फिर से जुट गए, पानी बहाने में, पेड़ों को काटने में और नदियों को प्रदूषित करने में! नियम, सिद्धांत लागू होने चाहिए, मन से। बात केवल पर्यावरण या प्रकृति या धरती से संबंधित ही नहीं है।

जीवन के हर क्षेत्र, हर विभाग, प्रभाग, प्रशासन, सरकार, व्यवस्था, कानून, सब जगह लागू होना चाहिए, उनके हिस्से के नियम और सिद्धांत! तब बनेगी बात। तभी हमारे दिन अच्छे होंगे! तभी हमारी रातें पलकें झपकना सीखेंगी! तभी हमारे बीच का सर्वहारा सफलता का पर्वत चढ़ेगा। तभी हमारी मां- बहनें एक-दूसरे की चोटियों में उम्मीदें गूंथेंगी! वर्ना तो देश चल ही रहा है।

महिला पहलवान कई दिनों तक दिल्ली के दरवाजे पर बैठकर आंसू बहाती रहीं और थक-हारकर वापस ड्यूटी पर लौट गईं! तो क्या हुआ, उन्हें न्याय नहीं मिल सका! तो क्या हुआ किसी जिम्मेदार ने उनके आंसुओं को नहीं पोंछा! उल्टे उन पर एक फूहड़ हंसी जरूर आए दिनों उड़ती रही! आखिर, व्यवस्था, कानून, प्रशासन और सरकार, हर तरफ से किसी को निराशा मिले तो कोई क्या कर सकता है? रोटी पकाने वाले चूल्हे में हाथ देकर कोई कब तक जलता रहे आखिर!

फिर मामला ये एक ही नहीं है! बहुत से नर्म चेहरे, जो जवां थे, उन पर अब झुर्रियां पड़ चुकी हैं! जो खाली पेट थे, वे सिकुड़कर पीठ के भरोसे सह रहे हैं अपराध। आगे भी सह ही लेंगे! करेंगे यकीन, अपने सत्ताधीशों के खोखले वादों का! क्या फर्क पड़ता है! वो गरीब, वो मध्यम वर्ग का आदमी सहता रहेगा सब कुछ। उसकी चमड़ी बड़ी मोटी और सख्त होती है। इसलिए नहीं कि वो पहाड़ ढोता है। बल्कि इसलिए कि वो वक्त का बोझ उठाकर चलता है!

और वो रेल हादसा! जैसे कभी हम किसी पुरानी किताब को खोलते हैं। आहिस्ता-आहिस्ता! कि उसके पन्ने हमारे छूने भर से बिखर न जाएं कहीं। उतनी ही धीरे से जब हम उस रेल हादसे की याद में दाखिल होते हैं तो यहां-वहां लाशों और कंकालों के बिखराव के सिवाय कुछ नजर ही नहीं आता। लाशें जिम्मेदारियों की, कंकाल लापरवाहियों के और उनपर मिट्टी पड़ी बदबू मार रही होती है। यह मिट्टी इतने बड़े हादसे पर लीपापोती की है, जो कभी लाशों की गंध छुपाती है, तो कभी कंकालों की सूखी, झनझनाती हड्डियों पर मरहम लगाती है!

सरकारें भी आखिर क्या करें? वे तो ओडिशा जाकर पटरियों का सांदा बदलने या सिग्नल देने से रहीं! तर्क यह हो जाता है। कभी-कभी लगता है इस जमाने को ईश्वर या कोई अदृश्य शक्ति नहीं, बल्कि वाट्सएप पर चल रहे तर्क-कुतर्क चला रहे हों! …और हो सकता है आखिर वही सही हों, क्योंकि उन्हीं के भरोसे अब चुनाव लड़े जा रहे हैं। जीते भी जा रहे हैं और सरकारें भी बनाई जा रही हैं! इसलिए! हां, इसीलिए लगा है जमाना भर, किसी वाट्सएप चैट पर, किसी वाट्सएप ग्रुप पर।

एक समय ही है जो खर्च हो रहा है औजारों की तरह! बाकी सब बचाया जा रहा है! नैतिकता! ईमानदारी! जिम्मेदारी! यहां तक कि जवाबदेही भी! हम आम लोगों की मजबूरी यही है कि हमने अपने होंठ सिल लिए हैं और चाहते हैं ये सिले ही रहें।

दरअसल, हमारी चाहत ही अब हमारी नहीं रही। पूरी तरह पराई हो चुकी। कहना चाहिए- मर चुकी है।इसलिए कि ये मौसम ही कुछ ऐसा है। ठंड के दिनों में अब गर्मी होती है। गर्मी के दिनों को बेरहम बारिश ने भिगो दिया है …और भर बरसात के दिनों में भला क्या होगा, ईश्वर जाने! वास्तव में अब मौसम की भी अपनी कोई चाहत या मर्जी नहीं रही। अब तो बारहों महीने चुनाव का मौसम रहता है! वादों का मौसम! वोटों का मौसम! और मुफ्त की रेवड़ियों का मौसम!

बहरहाल, लोहारों की भट्टी भड़क उठी है। कुम्हारों का ‘आवा’ दहकने लगा है। मुनादी धनाधन बजने लगी है। नगाड़ों पर ऐलान हो रहे हैं- अब ये लड़ाई रुकने वाली नहीं है। ये चुनावी जंग है। किसी का हाथ टूटे या सर फूटे, जंग हम जीत कर रहेंगे। ये जगह हमारी है। हम हर हाल में जीतेंगे! जीतकर रहेंगे!

बहुत से नर्म चेहरे, जो जवां थे, उन पर अब झुर्रियां पड़ चुकी हैं! जो खाली पेट थे, वे सिकुड़कर पीठ के भरोसे सह रहे हैं अपराध। आगे भी सह ही लेंगे! करेंगे यकीन, अपने सत्ताधीशों के खोखले वादों का! क्या फर्क पड़ता है!

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