भारतीय राज्य के वर्तमान नौकरशाही की क्या चुनौतियां है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

भारतीय राज्य बहुत बड़े होने और फिर भी बहुत छोटे होने का विरोधाभास रखता है। किसी शहरी क्षेत्र में व्यवसाय स्थापित करने या घर बनाने के प्रयास में किसी व्यक्ति को तुरंत ही एहसास हो जाता है कि लाइसेंस, परमिट, मंज़ूरी और अनुमतियों की भारी संख्या कैसे जीवन को दुश्वार बना देती है। यहाँ तक कि एक सामान्य नागरिक के रूप में भी, कोई भी व्यक्ति कभी भी कानून और जटिल नियमों के सही पक्ष पर होने के बारे में आश्वस्त नहीं हो सकता है।

  • भारत में ‘वेबेरियन राज्य’ (Weberian state) बहुत छोटा है । G-20 समूह में, भारत में प्रति व्यक्ति सिविल सेवकों की संख्या सबसे कम है।
  • भारत में कुल रोज़गार में सार्वजनिक क्षेत्र की हिस्सेदारी (5.77%) इंडोनेशिया और चीन के मुक़ाबले महज आधी और यूनाइटेड किंगडम की तुलना में लगभग एक तिहाई है।
  • लगभग 1600 प्रति मिलियन के आँकड़े के साथ भारत में केंद्रीय सरकारी कर्मियों की संख्या संयुक्त राज्य अमेरिका में 7500 प्रति मिलियन की तुलना में बहुत कम है।
  • इसी प्रकार, विकास के समान चरण वाले देशों से तुलना करें तो भारत में चिकित्सकों, शिक्षकों, नगर नियोजकों, पुलिस, न्यायाधीशों, अग्निशमन कर्मियों, खाद्य एवं औषधि निरीक्षकों और नियामकों की प्रति व्यक्ति संख्या सबसे कम है।

वेबेरियन राज्य:

  • वेबेरियन राज्य जर्मन समाजशास्त्री मैक्स वेबर (Max Weber) द्वारा विकसित एक अवधारणा है । उनके अनुसार, एक आधुनिक राज्य प्रशासन एवं विधि की एक प्रणाली है जिसे राज्य और विधि द्वारा संशोधित किया जाता है तथा जो कार्यकारी कर्मचारियों के सामूहिक कार्यों का मार्गदर्शन करता है; इसी प्रकार कार्यपालिका को संविधि द्वारा विनियमित किया जाता है और यह संघ/एसोसिएशन के सदस्यों (जो आवश्यक रूप से जन्म के आधार पर एसोसिएशन से संबद्ध होते हैं) पर अधिकार का दावा करती है, लेकिन उस क्षेत्र में सक्रिय रूप से घटित उन सभी चीज़ों पर व्यापक दायरे के भीतर जिस पर वह प्रभुत्व रखती है।

भारतीय राज्य के समक्ष विद्यमान प्रमुख चुनौतियाँ:

  • अपर्याप्त राज्य क्षमता के कारण आउटसोर्सिंग सेवाएँ: भारतीय राज्य कर-जीडीपी अनुपात और सार्वजनिक व्यय-जीडीपी अनुपात जैसे मापन पर अपेक्षाकृत छोटा है। चाहे वह सार्वजनिक वस्तुओं के प्रावधान हों, कल्याणकारी भुगतान हों या न्याय प्रणाली हों—यह अधिशेष के बजाय कमी को प्रकट करता है।
    • अपर्याप्त राज्य क्षमता के कारण, केंद्र और राज्यों की सरकारें प्राथमिक स्वास्थ्य जैसी सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा बेहतर प्रदान की जाने वाली सेवाओं की आउटसोर्सिंग के लिये बाध्य होती हैं।
  • विकृत प्रोत्साहन और कौशल अंतराल: मुख्य समस्याओं में से एक है सार्वजनिक संस्थानों द्वारा सृजित विकृत प्रोत्साहन (Perverse Incentives) और अधिकारियों के बीच कौशल अंतराल (Skill Gap)। इन कारकों ने राजनीतिक कार्यपालिका और सिविल सेवाओं की ठोस नीति निर्माण और प्रवर्तन की क्षमता को नष्ट कर दिया है।
  • शक्तियों का अत्यधिक संकेंद्रण: भारत में नीति निर्माण और कार्यान्वयन शक्तियों का अत्यधिक संकेंद्रण पाया जाता है।
    • इसके अलावा, कार्यान्वयन से संबंधित मुद्दों पर निर्णय लेने के लिये अग्रिम पंक्ति के कर्मियों पर प्रतिबंध की स्थिति अविश्वास की संस्कृति और अकुशल कार्यान्वयन के लिये जवाबदेही की कमी को बढ़ावा देती है।
  • टेक्नोक्रेटिक अंतराल: शीर्ष नीतिनिर्माता तेज़ी से जटिल होती जा रही अर्थव्यवस्था को संचालित करने के लिये टेक्नोक्रेटिक कौशल की कमी दर्शाते हैं। आर्थिक, वित्तीय, अनुबंध और अन्य तकनीकी मामलों से निपटने के लिये पर्याप्त क्षमता के अभाव में केंद्र और राज्य परामर्श फर्मों की नियुक्ति के लिये बाध्य होते हैं।
    • मीडिया रिपोर्टों के अनुसार केंद्र सरकार ने पिछले पाँच वर्षों में पाँच बड़ी कंसल्टेंसी फर्मों—प्राइसवाटरहाउसकूपर्स (PricewaterhouseCoopers), डेलॉइट (Deloitte), अर्न्स्ट एंड यंग (Ernst & Young), केपीएमजी (KPMG) और मैकिन्से (McKinsey) को महत्त्वपूर्ण कार्यों की आउटसोर्सिंग के लिये 500 करोड़ रुपए से अधिक का भुगतान किया।
  • बाज़ार निगरानीकर्ताओं के पास कर्मियों की कमी: भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (SEBI) और भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) जैसे बाज़ार निगरानीकर्ताओं के पास पेशेवर कर्मचारियों की कमी है।
    • SEBI के पास लगभग 800 पेशेवर कर्मी हैं, जबकि अमेरिका में इसके समकक्ष अमेरिकी प्रतिभूति एवं विनिमय आयोग (U.S. Securities and Exchange Commission) के पास कॉर्पोरेट्स के शासन के लिये 4,500 से अधिक विशेषज्ञ हैं।
    • इसी तरह, RBI के पास पेशेवर कर्मचारियों की संख्या 7000 से भी कम है जो यूएस फेडरल रिज़र्व की तुलना में बहुत कम है जिसे 22000 पेशेवरों की सहायता प्राप्त है।
  • कमज़ोर निरीक्षण और ऑडिट अभ्यास: एक अन्य समस्या भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (CAG) द्वारा ऑडिट के दायरे का सीमित होना है। यह सरकार में वित्त और प्रशासनिक प्रभागों को नीतिगत उद्देश्यों के बजाय नियमों के अनुपालन पर ध्यान केंद्रित करने के लिये अधिक प्रोत्साहित करता है।
    • केंद्रीय सतर्कता आयोग (CVC), केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) जैसी अन्य निगरानी एजेंसियों और न्यायालयों द्वारा संदर्भ को समझे बिना पूर्व-सूचना का उपयोग करने की प्रवृत्ति ने नौकरशाहों को नीतिगत मामलों में विवेक का प्रयोग करने से विमुख कर दिया है।
    • अधिकारी प्रायः बड़े अनुबंधों को रद्द कर देना पसंद करते हैं, भले ही विस्तार की अनुमति देना बेहतर हो।
      • इसके कारण वस्तुओं एवं सेवाओं की खरीद में देरी और अनावश्यक संविदात्मक विवाद की स्थिति बनती है।
  • सेवानिवृत्त अधिकारियों की समस्याजनक नियुक्ति: नियामक निकायों और न्यायाधिकरणों में सेवानिवृत्त अधिकारियों की नियुक्ति भी समस्याजनक है। ऐसी नियुक्तियों के लाभार्थियों को पिछली सेवाओं से मिलने वाले पेंशन लाभों से समझौता किये बिना मोटा वेतन प्राप्त होता है।
    • यह सिविल सेवकों को राजनीतिक हेरफेर के प्रति भेद्य बनाता है और उनके सेवाकालीन निर्णयों को प्रभावित करता है।
  • सार्वजनिक क्षेत्र की कम प्रभावकारिता: सार्वजनिक क्षेत्र की राजनीतिक अर्थव्यवस्था भी इसकी प्रभावकारिता को कम करती है। प्रदर्शन से संबद्ध वेतन और प्रोत्साहन योजनाएँ (जैसे बोनस), जो निजी क्षेत्र में अच्छी भूमिका निभाती हैं, सार्वजनिक क्षेत्र में अधिक प्रभावकारी नहीं हैं।
    • भारत में विशेष रूप से छठे वेतन और सातवें वेतन आयोग द्वारा पर्याप्त वेतन वृद्धि के कारण सार्वजनिक क्षेत्र में वेतन बहुत अधिक है (नौकरी की प्रकृति के अनुपात से विसंगत)
    • शीर्ष स्तर को छोड़कर, अधिकांश कौशल स्पेक्ट्रम के लिये सार्वजनिक क्षेत्र का वेतन निजी क्षेत्र के वेतन से बहुत अधिक है। यह नियुक्तियों में भ्रष्टाचार को बढ़ावा देता है क्योंकि यह सरकारी नौकरियों को सभी के लिये अत्यधिक आकर्षक बनाता है, चाहे वह सामाजिक रूप से प्रेरित हो या नहीं।
  • पृथक नीति निर्माण और कार्यान्वयन: ऑस्ट्रेलिया, मलेशिया और यूनाइटेड किंगडम जैसे देशों के अनुभव बताते हैं कि नीति निर्माण एवं कार्यान्वयन की ज़िम्मेदारियों को पृथक करने से निष्पादन में तेज़ी आती है और नवाचारों को बढ़ावा मिलता है, जिससे कार्यक्रम स्थानीय संदर्भों के लिये बेहतर अनुकूल हो जाते हैं।
    • भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (National Highways Authority of India) को राष्ट्रीय राजमार्ग परियोजनाओं को निष्पादित करने का कार्य सौंपा गया है जबकि नीतिगत निर्णय मंत्रालय स्तर पर किये जाते हैं। इस व्यवस्था से देरी और लागत वृद्धि में भारी कमी आई है।
  • वित्तीय और प्रशासनिक शक्तियाँ प्रत्यायोजित करना: उस दुष्चक्र को तोड़ा जा सकता है जिसमें कमज़ोर प्रत्यायोजन और अपर्याप्त राज्य क्षमता एक-दूसरे को पोषित करते हैं। इसके लिये वित्तीय और प्रशासनिक शक्तियों (उनके उपयोग के लिये स्पष्ट रूप से परिभाषित प्रक्रियाओं के साथ) को अग्रिम पंक्ति के पदाधिकारियों या निचले स्तर के नौकरशाहों को सौंपना उपयुक्त होगा।
  • पार्श्व प्रवेश संस्कृति का सामान्यीकरण: मध्य और वरिष्ठ स्तर पर एक संस्थागत एवं नियमित पार्श्व प्रविष्टि (Lateral Entry) सिविल सेवाओं के आकार और टेक्नोक्रेटिक अंतराल को दूर करने में मदद कर सकती है।
    • गैर-आईएएस सेवाओं (जैसे भारतीय राजस्व, आर्थिक और सांख्यिकीय सेवाओं) के योग्य अधिकारियों को उच्च-स्तरीय पदों पर उचित अवसर मिलना चाहिये, यदि उनके पास आवश्यक प्रतिभा एवं विशेषज्ञता है।
    • इसके साथ ही, विभिन्न स्तरों के सिविल सेवकों को मिशन कर्मयोगी (सिविल सेवा क्षमता निर्माण के लिये राष्ट्रीय कार्यक्रम ) के तहत विषय-विशिष्ट प्रशिक्षण प्रदान किया जा सकता है।
  • नियामक एजेंसियों को संवेदनशील बनाना: पंचाट और अदालती निर्णयों के विरुद्ध अपील करना अधिकारियों का डिफ़ॉल्ट मोड ही बन गया है, जिससे सरकार सबसे बड़ी याचिकाकर्ता बन गई है।
    • इस परिदृश्य से निपटने के लिये निरीक्षण एजेंसियों को नीतिगत निर्णयों के संदर्भ की सराहना करने के लिये संवेदनशील बनाया जाना चाहिये। उन्हें वास्तविक निर्णयों के साथ-साथ उनके विकल्पों से जुड़ी लागतों को भी ध्यान में रखना चाहिये।
  • सेवानिवृत्ति की आयु बढ़ाना: नियामक निकायों में सेवानिवृत्त अधिकारियों की नियुक्ति प्रायः सिविल सेवकों को राजनीतिक हेरफेर के प्रति भेद्य/संवेदनशील बनाती है।
    • सभी सरकारी नौकरियों के लिये सेवानिवृत्ति की आयु बढ़ाकर 65 वर्ष करने और सभी नियुक्तियों के लिये एक पूर्ण ऊपरी सीमा का निर्माण करने से इस समस्या का समाधान किया जा सकता है।
  • सार्वजनिक क्षेत्र नियोजन में सुधार लाना: सार्वजनिक क्षेत्र को आंतरिक रूप से प्रेरित व्यक्तियों को आकर्षित करना चाहिये ताकि वे सामाजिक भलाई में योगदान कर सकें
    • रोज़गार सुरक्षा और बेहतर कार्यशील परिस्थितियों के कारण सार्वजनिक क्षेत्र में जोखिम और कौशल-समायोजित वेतन निजी क्षेत्र की तुलना में कम होना चाहिये।
    • इसका एक संभावित समाधान यह हो सकता है कि भविष्य के वेतन आयोग द्वारा मध्यम वेतन वृद्धि लागू की जाए और सरकारी नौकरियों के लिये ऊपरी आयु सीमा में कमी लाई जाए।
  • निजी क्षेत्र में रोज़गार सृजन: उच्च आर्थिक विकास, जो निजी क्षेत्र में आकर्षक रोज़गार अवसर उत्पन्न करता है, सरकारी नौकरियों को उन लोगों के लिये कम आकर्षक बना देगा जो प्राप्त वेतन पर अधिक विचार करते हैं। यह भ्रष्टाचार को कम कर सकता है और सामाजिक रूप से प्रेरित व्यक्तियों के सरकार में शामिल होने की संभावना को बढ़ा सकता है।

भारत के शासन संबंधी विरोधाभास (governance paradox) के लिये व्यापक सुधारों की आवश्यकता है, जैसे नीति निर्माण को कार्यान्वयन से अलग करना, अग्रिम पंक्ति के कर्मियों को सशक्त बनाना और सेवानिवृत्ति की आयु को समायोजित करना। इन परिवर्तनों का उद्देश्य प्रशासनिक दक्षता बढ़ाना और सामाजिक भलाई के लिये प्रतिबद्ध लोगों को आकर्षित करना है। भारत अपनी राज्य मशीनरी को पुनर्जीवित कर प्रभावी शासन के वैश्विक मॉडल के रूप में उभर सकता है।

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