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भू-राजनीति में भारत के समक्ष कौन-सी चुनौतियाँ मौजूद हैं?

भू-राजनीति में भारत के समक्ष कौन-सी चुनौतियाँ मौजूद हैं?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

भारतीय विदेश नीति को अपने पड़ोस में ही एक बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। जबकि भारत वैश्विक स्तर पर, विशेष रूप से ‘वैश्विक दक्षिण’ (Global South) का नेतृत्व करने और विश्व राजनीति में एक प्रमुख हितधारक बनने के रूप में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने की महत्त्वाकांक्षा रखता है, निकट पड़ोस में विद्यमान जटिलताओं से उसके प्रयासों में बाधा आ रही है।

दक्षिण एशियाई क्षेत्र, जहाँ भारत अवस्थित है, भारत की महत्त्वाकांक्षाओं के साथ संरेखित होने को लेकर उत्साहित नहीं है। वस्तुतः ऐसा प्रतीत लगता है कि भारत की राह में बाधाएँ ही उत्पन्न की जा रही हैं, आंशिक रूप से इसलिये कि इस क्षेत्र में एक शक्तिशाली पड़ोसी के उद्भव को लेकर अन्य देश आशंका रखते हैं। यह परिदृश्य भारत के लिये एक अद्वितीय और चुनौतीपूर्ण स्थिति पेश कर रहा है, जिसका सामना भारत को पहले कभी भी नहीं करना पड़ा है।

जॉन मियरशाइमर का आक्रामक यथार्थवाद का सिद्धांत: जॉन मियरशाइमर (John Mearsheimer) अंतर्राष्ट्रीय संबंधों पर एक प्रमुख सिद्धांतकार हैं जो आक्रामक यथार्थवाद (Offensive Realism) के अपने सिद्धांत के लिये जाने जाते हैं।

आक्रामक यथार्थवाद का मानना है कि अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था अंतर्निहित रूप से अराजक है और राज्यों को अन्य राज्यों के सापेक्ष अपनी शक्ति को अधिकतम करने के प्रयास के माध्यम से अपनी सुरक्षा एवं अस्तित्व को प्राथमिकता देनी चाहिये।

मियरशाइमर का तर्क है कि राज्य प्रभुत्व की तलाश (pursuit of dominance) से प्रेरित होते हैं और यह तलाश प्रतिस्पर्द्धा, असुरक्षा और अंततः संघर्ष को जन्म देती है।

भारत को अपने पड़ोस में कई दुविधाओं (dilemmas) का सामना करना पड़ रहा है, जिनमें से प्रत्येक दुविधा अद्वितीय चुनौतियाँ प्रस्तुत करती है। इन दुविधाओं को तीन मुख्य प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है:

  • राजनीतिक दुविधा (Political Dilemma): 
    • भारत विरोधी शासन व्यवस्थाएँ: प्रमुख दुविधाओं में से एक है दक्षिण एशिया में राजनीतिक रूप से भारत विरोधी शासनों का उदय। उदाहरण के लिये, मालदीव में नई सरकार ने भारत विरोधी रुख अपनाते हुए मुखरता से भारतीय सैनिकों को देश से निकालने की मांग की है।
    • संभावित विचारधारात्मक बदलाव: बांग्लादेश में आगामी चुनाव, जहाँ खालिदा ज़िया के पुनः सत्ता में लौटने की संभावना है, भारत की राजनीतिक दुविधा में एक और परत जोड़ता है।
      • यह आशंका मौजूद है कि ऐसी सरकार विचारधारा के स्तर पर भारत विरोधी हो सकती है, जिससे राजनयिक संबंध और क्षेत्रीय स्थिरता जटिल बन सकती है।
  • संरचनात्मक दुविधा (Structural Dilemma): 
    • चीन का प्रभाव: दक्षिण एशिया में चीन के बढ़ते प्रभाव के कारण भारत को संरचनात्मक दुविधा का सामना करना पड़ रहा है। चीन की बढ़ती उपस्थिति भारत के क्षेत्रीय प्रभुत्व और प्रभाव के लिये एक चुनौती है। चूँकि चीन इस क्षेत्र में एक महत्त्वपूर्ण आर्थिक और राजनीतिक खिलाड़ी बन गया है, यह भौतिक लाभ की इच्छा रखने वाले क्षेत्रीय देशों को आकर्षित कर रहा है।
      • इस संरचनात्मक बदलाव से भारत के लिये अपने पड़ोसी देशों की भौतिक आवश्यकताओं को पूरा करने में प्रभावी ढंग से प्रतिस्पर्द्धा कर सकना कठिन हो गया है, जिससे उन देशों का झुकाव चीन की ओर होता जा रहा है।
  • मानदंडात्मक दुविधा (Normative Dilemma): 
    • बदलती क्षेत्रीय गतिशीलता: ऐतिहासिक रूप से भारत का इस भूभाग के प्रति एक मानदंडात्मक और राजनीतिक रुख रहा है। एक गैर-मानदंडात्मक विकल्प के रूप में चीन का उद्भव भारत के पारंपरिक समीकरण को चुनौती दे रहा है।
      • चीन का ‘मानदंड-मुक्त क्षेत्र’ (norms-free-zone) होने का दृष्टिकोण दक्षिण एशियाई कूटनीति की गतिशीलता को बाधित कर रहा है, क्योंकि क्षेत्र के देशों को एक ऐसी शक्ति के साथ संरेखित होना अधिक आकर्षक लग सकता है जो उन पर मानदंडात्मक शर्तें नहीं लागू करता।
    • सीमित विकल्प: दक्षिण एशियाई राज्यों के लिये व्यवहार्य विकल्पों का अभाव एक दुविधा उत्पन्न करता है। चीन द्वारा एक गैर-मानदंडात्मक विकल्प की पेशकश के साथ, भारत को क्षेत्र में बदलती गतिशीलता को समायोजित करने के लिये अपने दृष्टिकोण को अनुकूलित करने की चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। यह बदलाव अपने पड़ोस में मानदंड और राजनीतिक अपेक्षाएँ लागू करने में भारत के ऐतिहासिक प्रभुत्व को चुनौती दे रहा है।

चीन भारत से किस प्रकार अलग स्थिति रखता है? 

  • BRI और आर्थिक प्रभाव: बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) और अन्य परियोजनाओं में चीन की सक्रिय भागीदारी के परिणामस्वरूप क्षेत्र में छोटे राज्यों के बीच उलझाव बढ़ गया है।
    • BRI एक वृहत अवसंरचना और आर्थिक विकास परियोजना है जिसमें विभिन्न देशों में निवेश के साथ कनेक्टिविटी और व्यापार को बढ़ाना शामिल है।
    • चीन की वित्तीय क्षमता और इन पहलों के प्रति प्रतिबद्धता उसे भारत पर एक उल्लेखनीय लाभ की स्थिति प्रदान करती है। 
    • हालाँकि भारत भी क्षेत्रीय आर्थिक परियोजनाओं से संलग्न है, चीन की वृहत आर्थिक क्षमता क्षेत्र में उसके प्रभाव को अधिक सघन करती है।
  • दक्षिण एशियाई राज्यों की ओर हाथ बढ़ाना: चीन ने दक्षिण एशियाई राज्यों की ओर हाथ बढ़ाने में एक अग्रसक्रिय दृष्टिकोण का प्रदर्शन किया है, जबकि अन्य अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ी मानक या अन्य कारणों से उनकी अनदेखी कर सकते हैं या उनका साथ छोड़ सकते हैं।
    • इसके प्रमुख उदाहरणों में तालिबान के नेतृत्व वाले अफगानिस्तान, सैन्य शासित म्यांमार और संकटग्रस्त श्रीलंका के साथ चीन की संलग्नता के रूप में देखा जा सकता है।
    • भारत भी राजनयिक पहुँच बढ़ाने में संलग्न है, लेकिन चीन के प्रयासों का पैमाना और वित्तीय समर्थन इस क्षेत्र में उसके अधिक उल्लेखनीय समग्र प्रभाव में योगदान देता है।
  • सीमा विवाद समाधान रणनीति: अपने पड़ोसियों के साथ (भारत को छोड़कर) सीमा विवादों के निपटान का चीन का दृष्टिकोण इस भूभाग के देशों को अपनी ओर आकर्षित करने पर लक्षित एक विशिष्ट रणनीति है। चीन विभिन्न मुद्दों का समाधान कर (जैसा कि भूटान के साथ किया जा रहा है) स्वयं को एक विश्वसनीय एवं सहयोगी भागीदार के रूप में स्थापित करना चाहता है।
    • भारत भी पड़ोसियों के साथ सीमा विवादों को सुलझाने के प्रयास में लगा हुआ है, लेकिन चीन द्वारा नियोजित विशिष्ट फोकस एवं रणनीति इस क्षेत्र में उसकी अद्वितीय स्थिति में योगदान करती है।
  • संयुक्त राज्य अमेरिका की घटती उपस्थिति: इसका पहला कारण है बदलती क्षेत्रीय भू-राजनीतिक वास्तुकला, जो दक्षिण एशिया में संयुक्त राज्य अमेरिका की घटती उपस्थिति से चिह्नित होती है।
    • ऐतिहासिक रूप से अमेरिका इस क्षेत्र में एक भूराजनीतिक स्थिरांक (geopolitical constant) की स्थिति रखता था। हालाँकि उसकी मौजूदगी भारत के लिये हमेशा लाभप्रद नहीं रही, लेकिन उसका जाना भारत के लिये हानिप्रद माना जा रहा है। 
    • संयुक्त राज्य अमेरिका की अनुपस्थिति ने एक शक्ति शून्यता (power vacuum) उत्पन्न कर दी है, जिससे अन्य खिलाड़ियों, विशेष रूप से चीन को इस शून्यता को भरने का अवसर मिल गया है।
  • भू-राजनीतिक बफ़र के रूप में चीन का उदय: दूसरा कारण चीन का आक्रामक और प्रभावकारी उदय है। क्षेत्र में एक प्रमुख भू-राजनीतिक हितधारक के रूप में चीन के उद्भव ने छोटे राज्यों के लिये ‘भू-राजनीतिक बफ़र’ (Geopolitical Buffer) के रूप में कार्य किया है। 
    • इन राज्यों ने अपनी विदेश नीति में ‘चाइना कार्ड’ का तेज़ी से उपयोग किया है और स्वयं को रणनीतिक रूप से चीन के साथ संरेखित कर लिया है।
    • इस बदलाव को संयुक्त राज्य अमेरिका की अनुपस्थिति से उत्पन्न शक्ति शून्यता की प्रतिक्रिया के रूप में देखा जाता है और यह उस गतिशीलता को दर्शाता है जहाँ पड़ोसी राज्य भारत के परिप्रेक्ष्य में तो अपनी स्वायत्तता का दावा करने के लिये अधिक इच्छुक हैं, लेकिन जब चीन की बात आती है तो एक वे अलग झुकाव प्रदर्शित करते हैं।
  • पड़ोसी देशों की रणनीतिक स्वायत्तता और चीन का आकर्षण: तीसरा कारण पड़ोसी राज्यों द्वारा चुने गए रणनीतिक विकल्पों से संबंधित है। हालाँकि ये राज्य अपने संबंधों में रणनीतिक स्वायत्तता की इच्छा रख सकते हैं, लेकिन चीन के साथ व्यवहार में इस स्वायत्तता पर बल देने का उनका उत्साह सीमित है। 
    • क्षेत्र में एक शक्तिशाली खिलाड़ी के रूप में चीन के उदय ने छोटे राज्यों को अपने हितों को आगे बढ़ाने के लिये भारत और चीन दोनों के साथ अपने संबंधों का लाभ उठाने के लिये अधिक कुशल बना दिया है।
    • यह गतिशीलता अपने पड़ोसियों के साथ संलग्न होने और क्षेत्र में प्रभाव बनाए रखने के भारत के प्रयासों के लिये एक चुनौती है।

इस भू-राजनीतिक बदलाव का क्या परिणाम हो सकता है? 

  • इसका सकल परिणाम या वह परिणाम जो समय के साथ विकसित हो सकता है, कुछ हद तक चिंताजनक है। यदि भारत नवोन्मेषी उपाय नहीं करता है तो इस बात की प्रबल संभावना है कि वह स्वयं को भू-राजनीतिक रूप से एक अमित्र या गैर-अनुकूल दक्षिण एशिया में फँसा हुआ पाएगा।

भारत को क्या करना चाहिये? 

  • मैत्रीपूर्ण बाह्य अभिकर्ताओं को संलग्न करना: भारत को परस्पर सम्मान, विश्वास और सहयोग के आधार पर अपने पड़ोसी देशों के साथ अपने द्विपक्षीय एवं बहुपक्षीय संबंधों को सुदृढ़ बनाने का प्रयास जारी रखना चाहिये।
    • भारत को इस भूभाग के साथ अपने ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक संबंधों पर बल देना चाहिये और व्यापार, कनेक्टिविटी, विकास, सुरक्षा एवं आपदा प्रबंधन जैसे क्षेत्रों में अपनी सहायता एवं साझेदारी की पेशकश करनी चाहिये।
    • भारत को अपने पड़ोसी देशों के लिये एक विश्वसनीय और रचनात्मक भागीदार बनने का लक्ष्य रखना चाहिये, न कि एक दबंग या वर्चस्ववादी शक्ति के रूप में स्वयं को प्रस्तुत करना चाहिये।
  • लचीली कूटनीति: भारतीय कूटनीति को पड़ोसी देशों में विभिन्न हितधारकों को संलग्न करने के लिये पर्याप्त अनुकूल होना चाहिये। कूटनीति का सार भारत विरोधी तत्वों की शत्रुता को कम करने में निहित है, न कि उनके प्रति घृणा रखने में।
    • वर्तमान नेतृत्वकर्ताओं के साथ संलग्न होना बुद्धिमानी है, लेकिन केवल सत्ता में बैठे लोगों तक ही संलग्नता रखना नासमझी होगी।
  • राजनयिक कार्मिकता का विस्तार करना: भारत को अपनी राजनयिक गतिविधियों में संसाधनों और कार्मिकों का अधिक निवेश करना चाहिये। भारत को अपने राजनयिकों की संख्या और गुणवत्ता में भी वृद्धि करनी चाहिये, जो इस भूभाग और उससे परे भारत के हितों एवं मूल्यों का प्रभावी ढंग से प्रतिनिधित्व कर सकें और उन्हें आगे बढ़ा सकें।
    • भारत को अपनी उपलब्धियों, विविधता एवं ‘सॉफ्ट पॉवर’ का प्रदर्शन कर और लोगों के परस्पर संपर्क एवं अंतःक्रियाओं को सुगम बनाकर अपनी सार्वजनिक कूटनीतिक और सांस्कृतिक पहुँच को भी आगे बढ़ाना चाहिये।

चीन के उदय और बदलती गतिशीलता के बीच दक्षिण एशिया में भारत की विदेश नीति को महत्त्वपूर्ण चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। इस परिदृश्य में कुशलतापूर्वक आगे बढ़ने के लिये भारत को आर्थिक कनेक्टिविटी को प्राथमिकता देनी चाहिये, क्षेत्रीय सुरक्षा सहयोग को बढ़ावा देना चाहिये और सकारात्मक संबंधों के लिये अपने ‘सॉफ्ट पावर’ का उपयोग करना चाहिये।

विकसित हो रहे दक्षिण एशियाई परिदृश्य में एक स्थिरताकारी शक्ति बनने के लिये रणनीतिक संचार, क्षेत्रीय मंचों में सक्रिय भागीदारी और धैर्यवान एवं दीर्घकालिक दृष्टिकोण भारत के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।

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