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कश्मीरी पश्मीना शाॅल इतना लोकप्रिय क्यों हैं?

कश्मीरी पश्मीना शाॅल इतना लोकप्रिय क्यों हैं?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

कश्मीर की प्रसिद्ध पश्मीना शॉल, जो सदियों से अपने जटिल बूटा या पैस्ले पैटर्न के लिये जानी जाती है, को फ्रेंच टच मिला है।

  • ऐसा परिवर्तन, जहाँ कश्मीरी शॉल को जटिल कढ़ाई के बजाय अमूर्त चित्रों से सजाया गया, ने नए युग के सौंदर्यशास्त्र के साथ कपड़े को फिर से पेश किया है।

पश्मीना 

  • परिचय:
    • पश्मीना एक भौगोलिक संकेत (GI) प्रमाणित ऊन है जिसकी उत्पत्ति भारत के कश्मीर क्षेत्र से हुई है।
      • मूल रूप से कश्मीरी लोग सर्दियों के मौसम के दौरान खुद को गर्म रखने के लिये पश्मीना शॉल का इस्तेमाल करते थे।
    • ‘पश्मीना’ शब्द एक फारसी शब्द “पश्म” से लिया गया है जिसका अर्थ है बुनाई योग्य फाइबर जो मुख्य रूप से ऊन है।
    • पश्मीना शॉल ऊन की अच्छी गुणवत्ता और शॉल बनाने में लगने वाली कड़ी मेहनत के कारण बहुत महँगी होती हैं।
      • पश्मीना शॉल बुनने में काफी समय लगता है और यह काम के प्रकार पर निर्भर करता है। एक शॉल को पूरा करने में आमतौर पर लगभग 72 घंटे या उससे अधिक समय लगता है।
  • स्रोत:
    • पश्मीना शॉल की बुनाई में उपयोग किया जाने वाला ऊन लद्दाख में पाए जाने वाले पालतू चांगथांगी बकरियों (Capra hircus) से प्राप्त किया जाता है।
      • चांगपा अर्द्ध-खानाबदोश समुदाय से हैं जो चांगथांग ( लद्दाख और तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र में फैले हुए हैं) या लद्दाख के अन्य क्षेत्रों में निवास करते हैं।
      • भारत सरकार के आरक्षण कार्यक्रम के तहत चांगपा समुदाय को अनुसूचित जनजाति के रूप में वर्गीकृत किया गया था।
  • महत्त्व:
    • पश्मीना शॉल दुनिया में बेहतरीन और उच्चतम गुणवत्ता वाले ऊन से बने होती हैं।
    •  पश्मीना शॉल ने दुनिया भर के लोगों का ध्यान आकर्षित किया और यह पूरी दुनिया में सबसे अधिक मांग वाले शॉल में से एक बन गई है।
      • इसकी उच्च मांग ने स्थानीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा दिया है।
      • कश्मीर का जिक्र हो और वहां की खूबसूरती व कश्मीरी पश्मीना शाल की बात न छिड़े, ऐसे भला कैसे हो कसता है। लेकिन कश्मीर घूमने आने वाले अक्सर पहचान न कर पाने के कारण नकली पश्मीना से ठगे जाते हैं। पर अब उन्हें परेशान होने की कतई जरूरत नहीं।

        जम्मू-कश्मीर हस्तशिल्प व हथकरघा विभाग अब पूरी तरह सक्रिय होता नजर आ रहा है। पर्यटक केवल कश्मीरी पश्मीना शाल ही खरीदें, इसके लिए विभाग ने अभियान शुरू किया है। इस अभियान में सभी को जीआई टैग (ज्योग्रेफिकल इंडीकेशन) कश्मीरी पश्मीना शाल खरीदने और बेचने के लिए ही प्रेरित किया जा रहा है। इससे खरीदारों के साथ-साथ पश्मीना शाल और इसके बुनकरों का भी संरक्षण होगा।

        जिस तरह आतंकवाद ने कश्मीर को चोट पहुंचाई, उसी तरह नकली पश्मीना और कश्मीरी पश्मीना शाल के नाम पर बिकने वाले घटिया शाल ने कश्मीरी पश्मीना शाल व बुनकरों को तबाह किया है। लेकिन अब पोस्टर, होर्डिंग, रेडियो और वीडियो के जरिए लोगों को बताया जा रहा है कि वह दुकानदारों से जीआई टैग वाले कश्मीरी पश्मीना शाल का आग्रह करें।

        हस्तशिल्प एवं हथकरघा विभाग कश्मीर के निदेशक महमूद शाह ने दैनिक जागरण के साथ बातचीत में कहा कि यहां अक्सर पर्यटक पश्मीना शाल के नाम पर ठग लिए जाते हैं। इससे कश्मीरी पश्मीना शाल उद्योग और इससे जुड़े लोगों को नुकसान हो रहा है। इसलिए असली-नकली की पहचान करने के लिए ही जीआई टैग ही एकमात्र सही तरीका है। इसलिए हमने एक अभियान शुरू किया है, इसके तहत हम लोगों को समझा रहे हैं कि सस्ते के फेर में फंसने क बजाए जीआई टैग देखें।

        हम यह अभियान इंटरनेट मीडिया पर ले गए हैं। पश्मीना शाल सादा भी हो सकता है और कढ़ाई वाला भी। उसी कश्मीरी पश्मीना शाल पर जीआई टैग लगाया जाता है जो जांच में सही साबित होता है। कश्मीरी पश्मीना शाल पूरी तरह से हाथ से बुना जाता है। मशीन में बने शाल पर चंद ही सालों बाद रोएं उठ जाते हैं। उसमें प्लास्टिक का महीन धागा इस्तेमाल किया जाता है। मशीन पर निॢमत शाल की उम्र ज्यादा नहीं होती। हाथ से बना शाल आप पीढ़ी दर पीढ़ी संभाल कर रख सकते हैं।

        पश्मीना परीक्षण एवं गुणवत्ता प्रमाणन केंद्र के प्रबंधक यूनुस फारूक ने कहा कि हम चार बिंदुओं को ध्यान में रखकर जांच करते हैं और उसके बाद ही जीआई टैग जारी किए जाते हैं। हम पता लगाते हैं कि यह पूरी तरह पश्मीना से निर्मित विशुद्ध कश्मीरी शाल है या मशीन पर बुना गया या इसमें कोई अन्य धागा इस्तेमाल हुआ है। हम रेशों की मोटाई का भी ध्यान रखते हैं कि क्या यह 16 माइक्रान से कम है या नहीं। प्रत्येक जीआई टैग पर अंक आधारित कोड रहता है।

        कोई भी ग्राहक आनलाइन इस कोड की सच्चाई जान सकता है। अगर किसी शाल या पश्मीना से निर्मित किसी अन्य उत्पाद को किसी कारीगर, बुनकर या किसी ब्रांड विशेषज्ञ के नाम पर पेटेंट किया गया है तो वह जानकारी भी टैग कोड के साथ नजर आएगी। पश्मीना शाल के जीआई टैग की जांच आनलाइन डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू.कश्मीरपश्मीना.सिक्योर जीए.काम पर भी कर सकते हैं।

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        जीआई टैग की नहीं हो सकती नकल : हस्तशिल्प एवं हघकरघा विभाग के निदेशक महमूद शाह ने बताया कि जीआई टैग की नकल नहीं की जा सकती। इस पर दिए गए कोड नंबर के आधार पर आप आनलाइन संबंधित शाल और उसके बुनकर या विक्रेता के बारे में भी जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।

        फिलहाल सिर्फ 4500 शाल पर लगा है जीआई टैग : यूनुस फारूक ने कहा कि हम अभी घाटी में 4500 के करीब शालों पर ही जीआई टैग लगा चुके हैं। कश्मीरी पश्मीना शाल विक्रेता और कारीगर गुलजार अहमद रेशी ने कहा कि जीआई टैग जारी करने की प्रक्रिया में तेजी लानी चाहिए। अगर इसमें स्टाफ कम है तो उसे बढ़ाया जाए। हम विदेश में भी निर्यात करते हैं। ओमान में हमारा अपना शोरूम भी है, जीआई टैग लगा होगा तो वहां भी इसकी बिक्री बढ़ेगी।

        दो हजार करोड़ के सालाना कारोबार की संभावना : कश्मीर चैंबर आफ कामर्स एंड इंडस्ट्रीज के चेयरमैन शेख आशिक अहमद ने कहा कि अगर सही प्रोत्साहन मिले तो कश्मीरी पश्मीना का सालाना कारोबार करीब दो हजार करोड़ रुपये तक आसानी से पहुंच सकता है। मिडिल ईस्ट में ही नहीं अमेरिका, कनाडा, इंग्लैंड, फ्रांस, इटली और बेल्जियम में हमारे लिए बहुत बड़ा बाजार है

      • हस्तशिल्प एवं हथकरघा विभाग के निदेशक महमूद शाह ने कहा कि सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, करीब 600 करोड़ रुपये का पश्मीना उत्पाद हमने दो साल पहले निर्यात किया है। कोविड के कारण इसमे कुछ कमी आई है। हालात में बेहतरी के साथ यह बढ़ेगा। पश्मीना शाल और पश्मीना से बना अन्य सामान का सालाना कारोबार डेढ़ से दो हजार करोड़ तक होगा, क्योंकि इसमें सरकारी हस्तक्षेप ज्यादा नहीं है।

        कश्मीरी पश्मीना के नाम पर नकली शाल : मुगल हैंडीक्राफ्ट के मालिक ताहिर हुसैन ने कहा कि हाथ से बना कश्मीरी पश्मीना शाल अपनी गुणवत्ता, ऊन और डिजायन के आधार पर महंगा होता है। मशीन पर तैयार शाल जो पश्मीना जैसी हो, तीन हजार रुपये में आसानी मिल जाता है। असली कश्मीरी शाल की शुरुआत ही सात-आठ हजार से होती है और लाखों रुपये में चली जाती है।

        कैसे करें असली-नकली की पहचान : असली पश्मीना शाल में ज्यादा चमक नहीं होती। अच्छे शाल का ग्रेड 14-15 माइक्रान होता है। अगर मोटाई 19 माइक्रान से ज्यादा है तो शाल घटिया और नकली हो सकता है। माइक्रान जितना कम होगा, शाल उतना नर्म, मुलायम व गर्म होगा।

      • शाल के किनारे से एक धागा निकालें और उस धागे को माचिस की तीली से जलाएं। उसकी राख पाउडर जैसी हो और गंध जले बालों की गंध की तरह तो पश्मीना सही है। अगर राख की गांठ बनती है या प्लास्टिक जलने की बू आती है तो शाल में मिलावट है। जीआइ टैग भी देखें।

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        पश्मीना उत्पादन : चीन और रूस में सालाना करीब 800-800 टन पश्मीना पैदा होता है, जबकि मंगोलिया में करीब 1100 टन पश्मीना पैदा होता है। जम्मू कश्मीर व लद्दाख में मात्र 100 टन के करीब पश्मीना पैदा होता है। इरान, तुर्की और अफगानिस्तान में भी पश्मीना पैदा होता है। चीन कच्चा पश्मीना भी आयात करता है और करीब 12 हजार टन पश्मीना उत्पादों का निर्यात करता है।

        कश्मीर में पश्मीना का इतिहास : आधुनिक इतिहासकार दावा करते हैं कि कश्मीर में पश्मीना शाल बुनाई मुस्लिम धर्म प्रचारकों की देन है। कश्मीर में इसे एक उद्योग की तरह विकसित करने का श्रेय 15वीं शताब्दी के सुल्तान जैन उल आबदीन को दिया जाता है। उसने तुर्कीस्तान से कारीगरों को कश्मीर बुलाया था।

      • ईसा पूर्व तीसरी सदी अैर इसा बाद 11वीं सदी के एतिहासिक दस्तावेजों में शाल बुनाई का जिक्र मिलता है। कश्मीरी पश्मीना शाल की लोकप्रियता और गुणवत्ता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि नेपोलियन बोनापार्ट ने भी अपनी महारानी को इसे उपहार में दिया था। स्वतंत्रता पूर्व ब्रिटेन की महारानी को भी कश्मीरी पश्मीना शाल भेंट किए जाते रहे हैं।
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