जिला अदालतों में लोगों को तारीख पे तारीख से मुक्ति नहीं मिल पा रही,क्यों?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

दामिनी फिल्म के बाद पिछले 30 सालों में सुप्रीम कोर्ट में 25 प्रधान न्यायाधीश आने के बावजूद तारीख पे तारीख का मर्ज कायम है. जिला अदालतों में 4.41 करोड़, उच्च न्यायालयों में 61.7 लाख और सर्वोच्च न्यायालय में लगभग 79 हजार मामले लंबित हैं. राज्यों और केंद्र सरकार में राजस्व विभाग, नगर पंचायत, आयकर और जीएसटी और सर्विस से जुड़े विवादों का तो इन आंकड़ों में लेखा-जोखा ही नहीं है.

करोड़ों हैरान और परेशान लोगों के साथ अब सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने तारीख पे तारीख के बढ़ते मर्ज पर गंभीर चिंता जतायी है. सुप्रीम कोर्ट, 25 हाइकोर्ट और लगभग 20 हजार जिला स्तरीय अदालतों में सही और जल्द न्याय मिलने के संवैधानिक अधिकार का हनन होना खतरनाक होने के साथ चिंताजनक भी है. पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने बड़े ही भावुक और संवेदनशील तरीके से जजों से इसके समाधान करने का निवेदन किया था. कुछ जरूरी बातों पर चिंतन के साथ त्वरित कार्रवाई हो, तो न्याय की गाड़ी पटरी पर आ सकती है.

रसूखदार लोगों के खिलाफ सामान्यतः कोई कार्रवाई नहीं होती और अगर संयोग से मामला दर्ज हो जाए, तो रईस लोगों को बड़े वकीलों के दम पर झटपट राहत मिल जाती है, लेकिन आम जनता के लिए न्यायिक व्यवस्था जटिल हो गयी है, जिसका सजीव चित्रण दामिनी के साथ अंधा कानून जैसी फिल्मों में किया गया है. जिला अदालतों में 80 फीसदी मामले यानी 3.31 करोड़ मुकदमे फौजदारी के हैं, जिनमें पुलिस यानी सरकार एक पक्षकार है. इनमें एक करोड़ मुकदमे पुलिस की वजह से लंबित हैं.

लगभग 19 लाख मामलों में चार्जशीट दायर होने के बावजूद पुलिस ने दस्तावेज जमा नहीं किये, 33 लाख मामलों में गवाह की पेशी नहीं हो पा रही और 45 लाख मामलों में जमानत के बाद फरार आरोपियों को पुलिस अदालत में पेश नहीं कर पा रही. सुप्रीम कोर्ट में 34 जज हैं, जिनकी वैकेंसी की खबरें सुर्खियां बन जाती हैं,

जबकि जिला अदालतों में 5850 से ज्यादा रिक्त पदों को प्राथमिकता से भरने की कोशिश करने के बजाय जजों की संख्या में बढ़ोतरी की एकेडमिक बहस का चलन बढ़ गया है. जिला अदालतों में जजों के पास जरूरी स्टॉफ और सुविधाएं नहीं हैं. सरकार न्यायिक सिस्टम पर जीडीपी का सिर्फ 0.1 फीसदी यानी हजार में एक रुपया खर्च करती है. इसलिए जिला अदालतों में लोगों को तारीख पे तारीख के नासूर से मुक्ति नहीं मिल पा रही.

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