दिल्ली में बाढ़ क्यों आई?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

भूगोल को पढ़कर और नदियों से मिलकर अबतक नदियों को जितना समझ पाया हूँ उसके आधार पर मुझे यही कहना है कि नदियां अपने क्षेत्र से एक इंच भी ज्यादा नहीं लेती हैं। यदि वे अपने मुख्य मार्ग से थोड़ा भटक कर दाहिनें बढ़ जाएं तो उतना बायीं तरफ या अगर बायें बढ़ जाएं तो फिर उतना ही दायीं तरफ छोड़ देती हैं। नदियों की गति निर्बाध और एकदिशिक होती है और गति की प्रबलता ऐसी कि सामने आने वाले किसी भी चीज को खुद में समाहित कर लें।

हालांकि यह लंबी प्रक्रिया है जिसे कोई व्यक्ति अपने जीवनकाल के कम से कम दो दशक को गुजारने के बाद ही समझ पाएगा। 1852 में चीन की शोक नदी कही जाने वाली ‘ह्वांगहो’ तो अपने किनारों की सीमा को तोड़ते हुए 300 मील दक्षिण-पश्चिम की तरफ बह आयी थी। इस नदी द्वारा तय की गई दूरी का अंदाजा बस इसी बात से लगा लें आप कि पीला सागर(Yellow Sea) में गिरने वाली ह्वांगहो अपना रास्ता बदल कर बोहाई की खाड़ी (Gulf of Bohai) तक जा पहुंची।

आंकडे़ बताते हैं कि नदी द्वारा अपने इस पथ परिवर्तन में कम से कम दस लाख लोग मारे गये। बिहार की कोशी या फिर बंगाल का दामोदर। ये सभी नदियां अपने रास्ते बदलने के लिए कुख्यात हैं किंतु आप इतिहास उठा कर देख लें कि जितना ये अपना रास्ता बदलती हैं उतना ही दूसरी तरफ छोड़ते भी जाती हैं।

आजकल दिल्ली में भी यमुना की तुलना कुख्यात कोशी,ह्वांगहो और दामोदर से की जा रही है। हालांकि नदियाँ कभी कुख्यात हो ही नहीं सकती। सभ्यताओं को पैदा करने वाली और उन्हें सींचने वाली नदियाँ भला कुख्यात कैसे हो सकती हैं? विभाग के आंकड़ों के मुताबिक यमुना के जलस्तर में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है जो कि खतरे के निशान के ऊपर है तथा जिससे कारण दिल्ली के विद्यालयों एवं ऑफिसों को बंद कर दिया है। जल शोधन संयंत्र ठप पड़ चुके हैं और चार या पाँच दिनों तक दिल्ली को ठीक-ठाक पीने का पानी तक नसीब नहीं होने वाला है और तो और कल-परसों से मेट्रों को भी बंद करने की बात सामने आ रही है।

बहरहाल, आपसभी को जानकारी के लिए बता दूँ कि जब आप दिल्ली का इतिहास पढ़ेंगे तो पता लगेगा कि ‘किंग्सवे कैंप’ का यह यही इलाका है जिसे सर्वप्रथम 1912-30 के आसपास राष्ट्रपति भवन (तत्कालीन वायसराय हाऊस) के निर्माण के लिए एडविन लुटियंस एवं हरबर्ट बेकर ने चुना था। इसी कारण इसका नाम किंग्सवे भी पड़ा और कालांतर में कैंप नाम विभाजन के पश्चात् देश में विभाजन का दंश झेल रहे लोगों के बड़े-बड़े शिविरों एवं डेरों के कारण पड़ा।

यह क्षेत्र विन्यास में तब बेहद ही आकर्षक था और यही कारण था कि इसी के पास में विश्वविद्यालय स्थापित किया गया। कालांतर में विस्तृत सर्वे के पश्चात् बेकर एवं लुटियंस ने पाया कि यह पूरा का पूरा इलाका यमुना के बाढ़ के मैदान (Flood-Plain) का क्षेत्र है जिसके फलस्वरूप राष्ट्रपति भवन निर्माण को फिर रायसीना की पहाड़ी पर ले जाया गया। अब जो क्षेत्र स्वयं यमुना का क्षेत्र ही रहा है,वहां यमुना के पानी पहुंचने पर यह चिल्लाहट कैसी कि यमुना बाढ़ लेकर आ गयी?

यमुना का पानी लालकिले तक क्या पहुंच गया मानों एकदम हाहाकार सी मच गई है। आप यदि लालकिले को देखें तो पायेंगे कि उसके चारों ओर खाई या ख़ंदक़ ( Moat) का निर्माण का किया गया है जहां से कभी यमुना बहा करती थी। अब जब यमुना वापस लालकिले की तरफ आ गई तो फिर यह रोना क्यों कि यमुना का बाढ़ दिल्ली को ले डूबेगा? लालकिला का यह क्षेत्र तो सर्वदा से यमुना द्वारा प्रक्षालित रहा है और तो और लालकिले के निर्माण में इसक बखूबी ध्यान भी रखा रखा गया है।

तो फिर बाढ़ कैसा? क्या आप जानते हैं यमुना का यह भयावह रूप क्यों है? वस्तुतः यह हम मानवों के कुकृत्यों का प्रतिफल है जो भविष्य में और भी ज्यादा प्रगाढ़ होने वाला है। मानव का प्रकृति को खुद के वश में करने की चाह, सांस्कृतिक क्रियाकलापों का बहाने पारिस्थितिकी तंत्र को नष्ट करने की गंदी मानसिकता और तो और विकास का ऐसा भौड़ा प्रदर्शन जहां बस हमें कंक्रीट ही कंक्रीट के जंगल दिखलाई पड़ रहे हैं।

अगर यह कंक्रीट के जंगल ना होते तो साधारण मिट्टी की सतह बहुत अच्छे तरीके से निरोध द्रोणी (Detention Basin) की भांति काम करती जैसे चँवर के इलाकों में होता है जिससे हमारा भूमिगत जल भी आराम से रिचार्ज हो जाता और दिल्ली में जलस्तर की समस्या नहीं होती। भवन एवं सड़क निर्माण के सारे मलबों को नदियों के मुख्यमार्ग में डाला जा रहा है जिसके कारण भी जलस्तर में ऐसी वृद्धि देखने को मिली है।

खैर! समस्याएं गिनाई जाएं तो अनंत हैं किंतु हमें इसके समाधान को खोजने की आवश्यकता है। तो समाधान यही है कि विकास के क्रियाओं के संदर्भ में भी हम प्रकृति से अपना समन्वय स्थापित करें। आज दिल्ली का जनसंख्या घनत्व लगभग पंद्रह हजार से भी ज्यादा है जो दिल्ली के ढ़ोने की क्षमता को पार कर चुका है। यदि यही स्थिति बनी रही तो फिर दिल्ली को नेक्रोपोलिस बनते देर नहीं लगने वाली। यह जलप्रलय का द्योतक है जिसे हमें अभी गंभीरता से लेने की आवश्यकता है। प्रकृति तथा इसके तत्वों के साथ हमें किसी भी कीमत पर सहअस्तित्व की अवधारणा को आत्मसात् करने आवश्यकता है वरना सबकुछ नष्ट हो जाएगा।

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