बिहार में आखिरकार क्यों की गई जाति आधारित जनगणना?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

बिहार जातीय गणना के आंकड़े जारी करने वाला पहला राज्य बन गया है। इसमें अत्यंत पिछड़ा वर्ग 36%, अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) 27% हैं। सबसे ज्यादा 14.26% यादव हैं। ब्राह्मण 3.65%, राजपूत (ठाकुर) 3.45% हैं। सबसे कम संख्या 0.60% कायस्थों की है।

पहले बिहार एक समृद्ध राज्य हुआ करता था। गांव का देश हुआ करता था। जहां हर कोई एक-दूसरे पर आश्रित रहते थे। बिहार में साल 1967 के पूर्व तक बिहार में जाति को लेकर इतनी राजनीति नहीं थी। जब बिहार में पहली बार नॉन कांग्रेस में महामाया प्रसाद सिन्हा ने सरकार बनाई तो कर्पूरी ठाकुर डिप्टी सीएम के साथ शिक्षा मंत्री बनाए गए। यही वह दौर था, जब बिहार की राजनीति में जातीय समीकरण सामने आया। इस दौर में सबसे पहले यादव लोगों को साधने की कोशिश की गई।

राम लखन सिंह यादव तब यादवों के सबसे बड़े नेता हुआ करते थे। यही वह दौर था, जब यादव जाति को लेकर शोषित दल बना था। इसमें गया के जगदेव प्रसाद का अहम रोल था। कुशवाहा और कोइरी जाति भी यही से सामने आई। यह दौर जातीय समीकरण को सामने लाने का विशेष काल कहा जा सकता है।

जाति के नाम पर हुए बवाल के बाद मंडल कमीशन काला अध्याय के रूप में जाना गया। बिहार के लड़कों ने दिल्ली में सबसे पहले विरोध की आग लगाई थी। बिहार के हजारों छात्र-छात्राओं ने दिल्ली में लीड कर डरावना विरोध-प्रदर्शन किया। इसका बिहार में बड़ा असर हुआ था। यह काल जातीय संघर्ष का काफी घिनौना दौर था। यह समय क्लाइमेक्स का था।

रोचक बात तो यह है कि बिहार में चार या पांच यूनिवर्सिटी हुआ करती थी। यह भी जातियों के हिसाब से बंट गई थी। वीसी जातीय आधार पर तैनात किए जाते थे। पटना, मगध, बिहार यूनिवर्सिटी भागलपुर और रांची यूनिवर्सिटी थी। यह पूरी तरह से कास्ट की लाइन पर बंट चुकी थी।जैसे मगध में राजपूतों का कब्जा, पटना यूनिवर्सिटी में लाला जी होंगे व बंगाली लोग होंगे। बिहार यूनिवर्सिटी भूमिहारों की होगी। इस तरह जाति के हिसाब से सब सेट होता था। रांची के लिए आदिवासी से लेकर अन्य लोग थे।

विश्वविद्यालयों का डिस्ट्रीब्यूशन समाज को जाति में बांटने वाला ही था। पुराने जर्नलिस्ट बताते हैं- 1967 में जब शोषित दल और संसोफा व प्रसोफा जब बना तब जाति का मुद्दा आम हो गया। यह पिछड़ों के लिए था, अपर कास्ट के लिए कांग्रेस और जनसंघ तो था ही।

1993 में कोईरी-कुर्मी को लेकर भी बड़ा ट्रेंड हुआ

जर्नलिस्ट लव कुमार मिश्रा बताते हैं कि राजनीति में नवजागरण 1967 में यादवों के बीच में सबसे पहले आया। बाद में कोइरी, कुर्मी का हुआ। साल 1993 में नीतीश कुमार जब लालू से अलग हुए तो गांधी मैदान में कुर्मी सम्मेलन बुलाया था। इसमें मुंबई से छगन लाल भुजवल भी आए थे। पहला सम्मेलन ऐसा हुआ था, जो कुर्मियों को अपनी आइडेंटिटी बताने के लिए था। ये कुर्मियों को एक करने के लिए लगाया गया बड़ा दांव था। इसके पहले यादव वर्ग संगठित हो चुके थे।

जातियां तो अनंत काल से हैं, लेकिन राजनेताओं ने वोट के लिए समाज को जाति के आधार पर बांट दिया। इस कारण से जाति के आधार पर गहरा विभाजन हो गया। जाति के आधार पर टिकट बांटना और सीएम तक चुना जाने लगा। बिहार में उपजातियों के आधार पर विभाजन हो रहा है। इससे बिहार में जातीय संघर्ष की स्थिति बन रही है। जाति तोड़ों आंदोलन भी चला, समाजवादी जो जातियों के विभाजन के खिलाफ लड़ाई लड़े वहीं अब जातियों को बांटने में लगे हैं।

मौजूदा समय में बिहार में सबसे ज्यादा मंत्री पिछड़ा वर्ग (OBC) के हैं। बिहार सरकार के मौजूदा कैबिनेट में लगभग 55 प्रतिशत मंत्री ओबीसी वर्ग के हैं। इनमें केवल यादव जाति से 23% मंत्री हैं।जबकि एससी, सवर्ण और दलित जाति के मंत्रियों की हिस्सेदारी लगभग 17-17% है। अगर सवर्ण की जातिवार स्थिति को देखें तो ब्राह्मण, भूमिहार और राजपूत की मौजूदगी 3 प्रतिशत से भी कम है।

ओबीसी की बात करें तो बिहार विधानसभा में ओबीसी विधायकों की संख्या लगभग 42% है। इसमें सबसे अधिक यादव जाति के लगभग 21 प्रतिशत, वैश्य-10%, कुश‌वाहा लगभग 7% और कुर्मी लगभग 4% हैं। जबकि एससी की उपस्थिति 16 प्रतिशत और एसटी की मौजूदगी 0.9% है। वहीं मुस्लिम विधायकों की संख्या लगभग 8% है।

जातीय गणना की रिपोर्ट से ये तो पता चल रहा है कि ओबीसी की आबादी जितनी अनुमान लगाई जा रही थी उससे ज्यादा है। अब बिहार की क्षेत्रीय पार्टियां केंद्र सरकार पर दबाव बनाएंगी कि बिहार एक ऐसा राज्य है जिसने इस तरह की गणना की और इसके आंकड़े भी जारी किए है। ऐसी जनगणना देश भर में की जाए। केंद्र पर इसका दबाव बनेगा।

सबसे बड़ी डिमांड केंद्र सरकार में नौकरियों को लेकर होगा। सरकारें मांग करेंगी कि ओबीसी को केंद्र की नौकरी में जितना आरक्षण दिया गया है वो कम है। बिहार में तो 30 प्रतिशत है। लेकिन सारा खेल केंद्र की नौकरियों के बारे में है। अभी केंद्र की नौकरियों में 27 फीसदी आरक्षण है, लेकिन गणना के जो ताजा आंकड़े हैं उसमें उनकी आबादी 60 प्रतिशत है। अब इसकी चर्चा होगी कि आबादी 60 प्रतिशत और आरक्षण दिया जा रहा है केवल 27 प्रतिशत।

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