भारत को हरित क्रांति की आवश्यकता क्यों पड़ी?

भारत को हरित क्रांति की आवश्यकता क्यों पड़ी? 

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

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एम.एस. स्वामीनाथन नहीं रहे। लेकिन उनकी विरासत कृषि क्षेत्र से संबद्ध हर छात्र और वैज्ञानिक के पास बनी रहेगी। उन्हें 1960 के दशक के मध्य में, जब भारत लगातार सूखे का सामना कर रहा था, भारत में हरित क्रांति (Green Revolution) लाने के लिये नॉर्मन बोरलॉग (Norman Borlaug) के साथ कार्य करने के लिये सबसे अधिक जाना जाता है। यदि देश में हरित क्रांति नहीं आती तो लाखों लोग भूख से मारे जाते।

तब भारत को ‘शिप टू माउथ’ अर्थव्यवस्था (ship to mouth economy) के रूप में जाना जाता था, क्योंकि देश P.L.480 स्कीम के तहत अमेरिका से 10 मिलियन टन खाद्यान्न का आयात कर रहा था और भारत के पास इसके भुगतान के लिये पर्याप्त विदेशी मुद्रा नहीं थी। स्थिति इतनी गंभीर हो गई थी कि तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने राष्ट्र से ‘सप्ताह में एक समय का भोजन नहीं करने’ और गेहूँ की चपाती सहित विभिन्न गेहूँ उत्पाद शादी की पार्टियों में नहीं परोसने का आह्वान किया था।

  • तीव्र जनसंख्या वृद्धि, निम्न कृषि उत्पादकता, बार-बार पड़ने वाले सूखे और खाद्य आयात पर निर्भरता के कारण 1960 के दशक में भारत गंभीर खाद्य संकट का सामना कर रहा था।
  • भारत खाद्य निर्यातक देशों, विशेषकर संयुक्त राज्य अमेरिका के बाहरी दबावों और राजनीतिक हस्तक्षेप के प्रति भेद्य/संवेदनशील था, जो खाद्य सहायता को कूटनीति और उत्तोलन के एक उपकरण के रूप में उपयोग कर रहा था।
  • भारत अपनी आबादी के लिये आत्मनिर्भरता एवं खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना चाहता था और गरीबी एवं कुपोषण को कम करना चाहता था। 
  • भारत अपनी कृषि का आधुनिकीकरण करना चाहता था और इसे वैश्विक बाज़ार में अधिक कुशल, लाभदायक और प्रतिस्पर्द्धी बनाना चाहता था।

हरित क्रांति:

  • क्रांति: 
    • हरित क्रांति एक प्रमुख पहल थी जिसका उद्देश्य उच्च उपज देने वाली किस्मों के बीज, उर्वरक, कीटनाशक, सिंचाई और मशीनीकरण जैसी नई तकनीकों को पेश करने के माध्यम से भारत में खाद्य फसलों, विशेष रूप से गेहूँ एवं चावल के उत्पादन और गुणवत्ता को बढ़ाना था।
  • उद्देश्य: 
    • आबादी के लिये आत्मनिर्भरता एवं खाद्य सुरक्षा प्राप्त करना और खाद्य आयात पर निर्भरता कम करना। 
    • लाखों किसानों और ग्रामीण लोगों की आय एवं जीवन स्तर में सुधार लाना तथा गरीबी एवं भुखमरी को कम करना। 
    • कृषि क्षेत्र का आधुनिकीकरण करना और इसे वैश्विक बाज़ार में अधिक कुशल, लाभदायक और प्रतिस्पर्द्धी बनाना।  
  • प्रमुख विशेषताएँ: 
    • खाद्य उत्पादन बढ़ाने के लिये उच्च उपज वाले किस्म (High-Yield Variety- HYV) के बीजों का उपयोग करना। इन बीजों को एम.एस. स्वामीनाथन—जिन्हें व्यापक रूप से भारत में हरित क्रांति का जनक माना जाता है, जैसे कृषि वैज्ञानिकों द्वारा विकसित किया गया था।
    • वर्षा पर निर्भरता को कम करने और फसलों के लिये नियमित जल आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिये विभिन्न सिंचाई विधियों, जैसे ट्यूबवेल, नहर, बाँध एवं स्प्रिंकलर को शामिल करना।
    • श्रम लागत को कम करने और दक्षता बढ़ाने के लिये प्रमुख कृषि अभ्यासों—जैसे जुताई, बुआई, कटाई और मड़ाई का मशीनीकरण तथा इसके लिये ट्रैक्टर, हार्वेस्टर, ड्रिल आदि का उपयोग करना।
    • मृदा की उर्वरता बढ़ाने और फसलों को कीटों एवं रोगों से बचाने के लिये रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों का उपयोग करना।
    • मौजूदा कृषि भूमि में ‘दोहरी फसल’ (Double cropping) प्रणाली का उपयोग करना, जिसका अर्थ है फसल सघनता और उपज बढ़ाने के लिये एक ही खेत में एक वर्ष में दो फसलें उगाना।
    • सिंचाई और HYV बीजों का उपयोग करते हुए अधिकाधिक भूमि को खेती के अंतर्गत लाकर, विशेष रूप से अर्द्ध-शुष्क और शुष्क क्षेत्रों में, कृषि क्षेत्र का विस्तार करना।

हरित क्रांति के प्रभाव  

  • खाद्य उत्पादन में वृद्धि: हरित क्रांति से कृषि उत्पादकता में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। उच्च उपज देने वाली नई फसल किस्मों (जैसे कि बौना गेहूँ और चावल) ने प्रति हेक्टेयर भूमि पर अधिक पैदावार प्रदान किया, जिससे खाद्य की बढ़ती वैश्विक मांग को पूरा करने में मदद मिली।
    • उदाहरण के लिये, वर्ष 1978-1979 में फसल उत्पादन में व्यापक वृद्धि के कारण 131 मिलियन टन अनाज का उत्पादन हुआ, जिससे भारत विश्व के सबसे बड़े कृषि उत्पादकों में से एक बन गया।
  • खाद्यान्न आयात में कमी: भारत गेहूँ, चावल और अन्य खाद्यान्न (जैसे राई, मक्काज्वार, कुट्टू, बाजरारागी आदि) का शुद्ध निर्यातक है और इनका आयात नगण्य है।
    • वर्ष 2020-21 में भारत ने 18.5 मिलियन टन चावल का निर्यात किया जो एक वर्ष की अवधि में अब तक का सर्वाधिक निर्यात था। भारत ने वर्ष 2020-21 में 2.1 मिलियन टन गेहूँ का भी निर्यात किया, जो पिछले छह वर्षों में सबसे अधिक था।
  • गरीबी उन्मूलन: उच्च कृषि उत्पादकता प्रायः किसानों के लिये उच्च आय के रूप में परिलक्षित होती है। हरित क्रांति ने छोटे पैमाने के किसानों की एक बड़ी संख्या को, उनकी फसल की पैदावार और आय के स्तर में वृद्धि कर, गरीबी से बाहर निकालने में मदद की।
    • उदाहरण के लिये, ग्रामीण भारत में निर्धनता अनुपात वर्ष 1993-94 में 50.1% से घटकर वर्ष 2011-12 में 25.7% रह गया, जो आंशिक रूप से हरित क्रांति के प्रभाव के कारण था।
  • तकनीकी प्रगति: हरित क्रांति ने किसानों को उन्नत बीज, उर्वरक और कीटनाशकों सहित नई कृषि प्रौद्योगिकियों से परिचित कराया। ये तकनीकी प्रगतियाँ आज भी कृषि को लाभान्वित कर रही है और संवहनीय अभ्यासों एवं अधिक दक्षता में योगदान दे रही हैं।
    • उदाहरण के लिये, उन्नत बीजों के उपयोग से फसलों की आनुवंशिक विविधता में वृद्धि हुई है, जिससे वे कीटों, बीमारियों और जलवायु परिवर्तन के प्रति अधिक प्रत्यास्थी हो गए हैं।
    • ट्रैक्टर, हार्वेस्टर एवं सिंचाई प्रणाली जैसे यंत्रीकृत कृषि उपकरणों के उपयोग से श्रम लागत कम हुई है और कृषि उत्पादकता में वृद्धि हुई है।
  • ग्रामीण विकास: कृषि उत्पादकता में वृद्धि से ग्रामीण विकास को बढ़ावा मिल सकता है। किसानों की आय में वृद्धि के साथ वे अपने समुदायों में निवेश कर सकते हैं, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में अवसंरचना, शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल में सुधार होता है। 
    • उदाहरण के लिये, भारत में हरित क्रांति से ग्रामीण सड़कों, विद्युतीकरण, सिंचाई और संचार नेटवर्क का विस्तार हुआ, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों की पहुँच एवं कनेक्टिविटी में सुधार हुआ।
  • भूमि रूपांतरण में कमी: हरित क्रांति ने फसल की पैदावार बढ़ाकर वनों और अन्य प्राकृतिक पर्यावासों को कृषि भूमि में रूपांतरित करने की आवश्यकता को कम करने में मदद की। इससे जैव विविधता के संरक्षण और वनों की कटाई को कम करने के रूप में सकारात्मक पर्यावरणीय प्रभाव उत्पन्न हुए हैं।
  • आर्थिक विकास: हरित क्रांति के परिणामस्वरूप बढ़ी हुई कृषि उत्पादकता को कई देशों में समग्र आर्थिक विकास से जोड़कर देखा गया है। कृषि कई भूभागों में आर्थिक विकास की एक प्रमुख चालक है और उच्च पैदावार समग्र अर्थव्यवस्था को बढ़ावा दे सकती है।

हरित क्रांति के कारण उत्पन्न चुनौतियाँ: 

  • सिंथेटिक उर्वरकों और कीटनाशकों के उपयोग तथा मिट्टी के कटाव और जल प्रदूषण के कारण पर्यावरण में गिरावट आई है। उदाहरण के लिये, आधुनिक कृषि प्रौद्योगिकियों पर निर्भरता ने कुछ देशों और समुदायों को बाहरी आदानों (इनपुट) पर निर्भर बना दिया है, जो महँगा सिद्ध हो सकता है और बाज़ार में उतार-चढ़ाव के अधीन हो सकता है।
  • इससे जैव विविधता और फसलों की आनुवंशिक विविधता का नुकसान हुआ है, साथ ही स्वदेशी फसलों और पारंपरिक कृषि पद्धतियों का विस्थापन भी हुआ है। उदाहरण के लिये, हरित क्रांति के बाद गेहूँ और चावल का उत्पादन तो दोगुना हो गया, लेकिन अन्य खाद्य फसलों, जैसे स्वदेशी चावल किस्मों और मोटे अनाज की खेती में कमी आई।
  • इसने किसानों, विभिन्न भूभागों और देशों के बीच सामाजिक एवं आर्थिक असमानताओं और संघर्षों को जन्म दिया। उदाहरण के लिये, हरित क्रांति को भारत में किसानों की आत्महत्या, ग्रामीण ऋणग्रस्तता और बार-बार सूखे की स्थिति से जोड़कर देखा गया है।
  • इससे फसलों की कीटों, बीमारियों और जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनशीलता बढ़ा दी है। उदाहरण के लिये, चावल और गेहूँ के मोनोकल्चर ने उन्हें ब्राउन प्लांट हॉपर और व्हीट रस्ट जैसे कीटों एवं बीमारियों के प्रकोप के प्रति अधिक संवेदनशील बना दिया है।

क्या हरित क्रांति 2.0, हरित क्रांति का समाधान है? 

  • हरित क्रांति 2.0 (Green Revolution 2.0)  को बदलती जलवायु और सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के लिये कृषि को अधिक अनुकूलनशील एवं प्रत्यास्थी बनाने तथा वर्तमान एवं भविष्य की पीढ़ियों के लिये खाद्य और पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करने के एक तरीके के रूप में देखा जाता है।
  • हरित क्रांति 2.0 की कुछ विशेषताएँ इस प्रकार हैं: 
    • जैव प्रौद्योगिकी और जेनेटिक इंजीनियरिंग: हरित क्रांति 2.0 ऐसी फसलों को विकसित करने के लिये जैव प्रौद्योगिकी और जेनेटिक इंजीनियरिंग पर बल देती है जो जलवायु परिवर्तन, कीटों और बीमारियों के प्रति अधिक प्रत्यास्थी हों। आनुवंशिक रूप से संशोधित (GM) फसलें, यदि ज़िम्मेदारी से अपनाई जाएँ, तो वे उत्पादकता को बढ़ाने और पर्यावरणीय प्रभाव को कम करने में योगदान कर सकती हैं।
    • परिशुद्ध कृषि (Precision Agriculture): इस दृष्टिकोण में जल, उर्वरक और कीटनाशक जैसे संसाधनों के इष्टतम उपयोग के लिये GPS-निर्देशित ट्रैक्टर और ड्रोन जैसी उन्नत प्रौद्योगिकियों का उपयोग करना शामिल है। परिशुद्ध कृषि दक्षता बढ़ा सकती है और खेती के पर्यावरणीय प्रभाव को कम कर सकती है।
    • संवहनीयता (Sustainability): हरित क्रांति 2.0 ऐसे अभ्यासों को बढ़ावा देकर संवहनीयता को प्राथमिकता देती है जो मृदा के स्वास्थ्य को संरक्षित करते हैं, रासायनिक इनपुट को कम करते हैं और कृषि के पर्यावरणीय प्रभाव का शमन करते हैं। इसमें जैविक खेती (organic farming), कृषि पारिस्थितिकी (agroecology) और एकीकृत कीट प्रबंधन शामिल हैं।
    • विविधीकरण: पहली हरित क्रांति के विपरीत, जो मुख्य रूप से गेहूँ और चावल जैसी कुछ प्रमुख फसलों पर केंद्रित थी, हरित क्रांति 2.0 फसल विविधीकरण (crop diversification) को बढ़ावा देती है। विभिन्न प्रकार की फसलों की खेती को प्रोत्साहित करने से पोषण की वृद्धि हो सकती है, मोनो-क्रॉपिंग से जुड़े जोखिम कम हो सकते हैं और जैव विविधता का संरक्षण हो सकता है।
    • समग्र दृष्टिकोण: हरित क्रांति 2.0 कृषि का समग्र दृष्टिकोण रखती है, जहाँ यह माना जाता है कि यह केवल फसल उत्पादन तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें मृदा स्वास्थ्य, खाद्य प्रसंस्करण, विपणन और मूल्य संवर्द्धन जैसे पहलू भी शामिल हैं। एकीकृत दृष्टिकोण संपूर्ण खाद्य आपूर्ति शृंखला को संबोधित करते हैं।
    • पर्यावरणीय विचार: इसमें आधुनिक कृषि से जुड़े नकारात्मक पर्यावरणीय प्रभावों, जैसे मृदा का कटाव, जल प्रदूषण और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के प्रयास शामिल हैं। संवहनीय अभ्यासों का लक्ष्य इन प्रभावों को न्यूनतम करना है।
    • जलवायु परिवर्तन के प्रति अनुकूलन: चूँकि जलवायु परिवर्तन कृषि के लिये नई चुनौतियाँ पैदा कर रहा है, हरित क्रांति 2.0 जलवायु-प्रत्यास्थी फसल किस्मों और अभ्यासों को विकसित करने का प्रयास करती है जो बदलते मौसम पैटर्न और चरम दशाओं के अनुकूल बन सकते हैं।
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