साहित्यकारों के साहित्यकार – शिवपूजन सहाय

साहित्यकारों के साहित्यकार – शिवपूजन सहाय

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

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स्वतंत्रता के बाद शिवपूजन सहाय ‘बिहार राष्ट्रभाषा परिषद’ के संचालक तथा ‘बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ की ओर से प्रकाशित ‘साहित्य’ नामक शोध-समीक्षाप्रधान त्रैमासिक पत्र के सम्पादक थे।

शिवपूजन सहाय (जन्म अगस्त 1893, शाहाबाद, बिहार; मृत्यु- 21 जनवरी 1963, पटना) हिन्दी के प्रसिद्ध उपन्यासकार, कहानीकार, सम्पादक और पत्रकार थे। उन्हें साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में सन १९६० में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।

प्रारम्भिक शिक्षा आरा (बिहार) में हुई। फिर १९२१ से कलकत्ता में पत्रकारिता आरम्भ की। 1924 में लखनऊ में प्रेमचंद के साथ ‘माधुरी’ का सम्पादन किया। 1926 से 1933 तक काशी में प्रवास और पत्रकारिता तथा लेखन। 1934 से 1939 तक पुस्तक भंडार, लहेरिया सराय में सम्पादन-कार्य किया। 1939 से 1949 तक राजेंद्र कॉलेज, छपरा में हिंदी के प्राध्यापक रहे। 1950 से 1959 तक पटना में बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् के निदेशक रहे। 1962 में भागलपुर विश्वविद्यालय द्वारा दी. लिट्. की मानद उपाधि।

इनके लिखे हुए प्रारम्भिक लेख ‘लक्ष्मी’, ‘मनोरंजन’ तथा ‘पाटलीपुत्र’ आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित होते थे। शिवपूजन सहाय ने 1934 ई. में ‘लहेरियासराय’ (दरभंगा) जाकर मासिक पत्र ‘बालक’ का सम्पादन किया। स्वतंत्रता के बाद शिवपूजन सहाय बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के संचालक तथा बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन की ओर से प्रकाशित ‘साहित्य’ नामक शोध-समीक्षाप्रधान त्रैमासिक पत्र के सम्पादक थे।

हिन्दी-साहित्य में देश की आजादी के पूर्व अनेक यशस्वी साहित्यकार हुए, जो हिन्दी-नभ में नक्षत्र की भाँति देदीप्यमान हैं। मगर एक ऐसे ध्रुवतारे भी हुए, जिन्होंने न केवल खुद लिखा बल्कि दूसरों से भी लिखवाया और दूसरों की लिखी हुई रचनाओं को अपने भाषा-कौशल से सँवारा भी। एक साथ जिनमें साहित्यिक चेतना के साथ-साथ वाङ्मय-चेतना का भी पूर्ण समावेश था, सहज और परिष्कृत शैली का मणि-कांचन योग था , एक यथार्थवादी लेखक होने के साथ-साथ एक कुशल सम्पादक के रूप में जो पूज्य थे, सशक्त भाषा के जो प्रतिमान थे, विनम्रता की जो प्रतिमूर्ति थे, ऐसे ‘शिवपूजन सहाय जी’ सचमुच हिन्दी-गगन के चमकते ध्रुवतारे की तरह संयमित और स्थिर भी थे।

शिवपूजन सहाय जी हिन्दी के एक ऐसे स्वनामधन्य प्रकाश-स्तम्भ बन गये कि प्रायः हर बड़े आयोजनों में आपके सभापति बनने के लिए आग्रह होने लगा। हिन्दी के प्रति उनका ऐसा प्रेम था कि हर परिस्थिति में वे आग्रह को टाल नहीं पाते थे। 15 फरवरी 1942 को उन्होंने ‘हिन्दी साहित्य परिषद्’ बरहज ख्गोरखपुर, का सभापतित्व किया तो साहित्य परिषद् सूर्यपुरा, आरा का सभापतित्व 16 मई 1942 को किया। राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह की जब भी कोई पुस्तक तैयार होती तो शिवपूजन बाबू सूर्यपुरा आकर उनकी पाण्डुलिपि अपने साथ ले जाकर उसकी शुद्धि करके ही छपाई कराते।

उस समय के सभी प्रख्यात लेखक अपनी पांडुलिपियाँ शिवपूजन सहाय जी को देकर निश्चिन्त हो जाते थे। कहा जाता है कि जयशंकर प्रसाद जी की ‘कामायनी’ की पांडुलिपि को भी शिवपूजन सहाय जी ने ही देखा था और उनके द्वारा देख लेने के बाद ही इसकी छपाई हुई थी। दिनकर जी ने अपनी पहली कृति ‘रेणुका’ के प्रकाशन के बारे में लिखा है-‘‘कवि के रूप में लोग मुझे थोड़ा-बहुत पहले भी जान चुके थे। किन्तु पुस्तक-लेखक के रूप में मुझे पेश करने का काम शिवपूजन बाबू ने किया।

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