दलित वोटों की सबसे बड़ी दावेदार भाजपा; कांग्रेस की तो इच्छाशक्ती ही नहीं-अभय कुमार दुबे.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

डॉ. आम्बेडकर ने अपने देहांत से कुछ पहले रिपब्लिकन पार्टी की स्थापना करके जिस दलित राजनीति का आगाज किया था, वह आज की तारीख में अस्तित्व के संकट का सामना कर रही है। 2007 में मायावती के नेतृत्व में बहुजन समाज पार्टी ने यूपी में केवल अपने दम पर पूर्ण बहुमत प्राप्त करके इस राजनीति को शिखर पर पहुंचाया था। आज उसी बसपा के सामने खुद को प्रासंगिक बनाए रखने की चुनौती है। बिहार के सर्वाधिक प्रभावी दलित नेता रामविलास पासवान के निधन के बाद उनकी लोक जनशक्ति पार्टी अंतरकलह के कारण पूरी तरह विभाजित हो चुकी है।

महाराष्ट्र में चाहे रिपब्लिकन पार्टी के छोटे-छोटे धड़े हों, या दलित पैंथर की बची हुई निशानियां हों-उनके जनाधार को या तो कांग्रेस ने निगल लिया है, या शिव सेना और भारतीय जनता पार्टी ने। दक्षिण भारत में दलित संघर्ष समिति जैसी पहलकदमियां अब इतिहास की बात बनकर रह गई हैं। पंजाब जैसी जगह, जहां दलितों की आबादी 35% के आसपास है (कांशीराम की राजनीति का जन्म वहीं हुआ था), स्वतंत्र दलित पहलकदमी से महरूम है।

सारे देश में फैले दलितों के वोटों को गोलबंद करके एक राष्ट्रीय दलित गोलबंदी करने का इरादा आखिरी बार 1993 में कांशीराम ने दिखाया था। वे यूपी को मायावती के भरोसे छोड़कर देश का दौरा करने निकल गए थे। कांशीराम कहीं भी यूपी वाला जादू नहीं दोहरा पाए। लोकतंत्र में प्रभावी दलित दावेदारों के रूप में उनके पास जो कुछ बचा, वह यूपी की राजनीति ही थी। लेकिन, अब उनकी मृत्यु के सत्रह साल बाद वह उत्तर प्रदेश भी उनकी पार्टी के लिए ‘उर्वर प्रदेश’ नहीं रह गया है। 2007 की असाधारण जीत के बाद मायावती का ग्राफ हर चुनाव में नीचे गिर रहा है।

जाहिर है कि बसपा का जिस तरह का जनाधार है, उसमें उसे ‘जाटव प्लस प्लस’ की राजनीति करनी होती है। केवल जाटव वोट उसे ज्यादा से ज्यादा बीस से पचास सीटों के बीच ही दिला सकते हैं। फिलहाल ऐसे कोई संकेत नहीं दिखाई पड़ते कि मायावती के पास जाटवों के अलावा अतिपिछड़ों, अतिदलितों के प्रतिबद्ध समर्थन के साथ-साथ ऊंची जाति के कुछ मतदाताओं की हमदर्दी जीतने की युक्तियां हैं।

देखा जाए तो इस समय ज्यादातर दलित वोट हवा में तैर रहे हैं। इन्हें कौन लपकेगा? सबसे बड़ी दावेदारी भाजपा की है। उसने यूपी में करोड़ों रुपये खर्च करके आम्बेडकर की प्रतिमा बनाने का फैसला किया है। कांग्रेस के पास ऐसी किसी दावेदारी की राजनीतिक इच्छाशक्ति ही नहीं है।

क्या अखिलेश यादव के पास जाटवों को छोड़कर बाकी छोटी दलित बिरादरियों की राजनीतिक नुमाइंदगी को एक चुनावी मंच मुहैया कराने की क्षमता है? क्या चंद्रशेखर के उनकी तरफ देखने का कोई सकारात्मक मतलब निकलेगा? या, ओम प्रकाश राजभर अतिदलितों और अतिपिछड़ों का एक मोर्चा बनाकर किसी पार्टी से कोई लाभकारी लेन देन निकाल पाएंगे? इन सवालों का जवाब अगले तीन चार महीनों में मिल जाएगा।

लगता है कि दलितों के सितारे को दोबारा चमकने के लिए वक्त का इंतजार करना पड़ेगा। यह वक्त काफी लम्बा भी हो सकता है। कारण यह है कि बहुजन थीसिस केवल बौद्धिक चर्चाओं तक सीमित रह गई है। उसके जरिये होने वाली सामाजिक न्याय की राजनीति में पहले जैसी चमक नहीं है। डॉ. आम्बेडकर मूर्तियों में सर्वव्यापी लगते हैं, पर उनका राजनीतिक संदेश लोकतंत्र का नियामक नहीं बन सका है।

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