चंदू के बलिदान को विचारों की घालमेल ने धूमिल किया.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

सीवान के लाल व जेएनयू के पूर्व अध्यक्ष चन्द्रशेखर की 27वें पुण्यतिथि पर भाव पूर्ण श्रद्धांजली व्यक्त करता हूँ।

नमन है उस विचारधारा के पुंज को, जिसने अंतिम समय तक अपने विचार को समाज में जीवंत रखा।

चंदू आपकी याद सदैव भावुक कर जाती है।

प्रत्येक दिन की तरह 31 मार्च 1997 का सुबह सीवान में एक नई उम्मीद, एक नई भोर लेकर आई। समाज कौतूहल जानना चाहता है, कुछ उत्कट प्रतीक्षा में नए समाचार की खोज में अपने आंखों व कानों को एकाग्रचित किए हुए रहता है, उसे खबर नहीं अप्रत्याशित समाचार चाहिए।
बिहार में लालू प्रसाद यादव की सरकार थी, उन पर चारा घोटाला का आरोप लग चुका था, जांच अगले उच्च स्तर तक भी पहुंच चुकी थी लेकिन केंद्र में कांग्रेस समर्थित देवगौड़ा की सरकार थी जिसका उन्हें समर्थन था, मामला सीबीआई में था और सीबीआई के डायरेक्टर जोगिंदर सिंह की पुस्तक ‘इनसाइड सीबीआई’ और डॉ.किशोर कुणाल की पुस्तक ‘दमन तक्षक का’ में इसका विस्तार से वर्णन है।
सीवान नगर में आज चहल-पहल है, परंतु किसी को भी इस बात का अंदेशा नहीं है कि आज के एक घटना की गुंज से सीवान वर्षो तक व्यथित रहेगा। कोर्ट-कचहरी, बाजार खुला हुआ है। एक खास विचारधारा वाले व्यक्ति का आज कोर्ट में साक्ष्य प्रस्तुत होना है। वह व्यक्ति चंद्रशेखर के साथ है, उसे इस बात का अंदेशा हो गया है कि तत्कालीन सीवान की शक्ति आज मुझे नहीं छोड़ेगी। कोर्ट तक साक्ष्य को नहीं पहुंचने देने के लिए सारे हथकंडे अपना लिए गए थे। अब अंतिम उपाय के तौर पर अग्यनेयासत्र का प्रयोग होता है। उस व्यक्ति के साथ चंद्रशेखर की भी जीवन लीला समाप्त हो चुकी थी। अगला सप्ताह सीवान राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय समाचार का केंद्र बन जाता है। कई आयामों से पड़ताल होती है, जांच में वही ढाक के तीन पात। दिल्ली में भी प्रदर्शन होता है, गोलियां तक चलती है। जेएनयू में देश के सांस्कृतिक दूत प्रो. मैनेजर पाण्डेय घटना पर तल्ख टिप्पणी करते है। उन्हें इस बात का आभास नहीं था कि 2001 में मेरे बेटे के साथ बिहार स्थित गोपालगंज जिले के लोहाटी गांव में भी यही होने वाला है।
आज गोपालगंज मोड़ स्थित अतिथि गृहशाला के निकट चौराहे पर चंद्रशेखर की आदमकद प्रतिमा लगाकर हम उन्हें याद करते हुए आसुरी शक्तियों को छद्म रूप से समाप्त करने का संकल्प लेते हैं, जिन्होंने चंदू को लील लिया। ऐसी ही घटना का वृतांत हमें जॉर्ज ऑरवेल के उपन्यास ‘एनिमल फॉर्म’ में मिलता है।
बहरहाल एक पूर्व छात्र की पूर्व अध्यक्ष के बारे में व्यक्त की गई अपनी वेदना, पीड़ा, संत्रास व किंकर्तव्यविमूढ़ता।

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