क्या गांधी जी के मूल्य केवल फिल्मों तक ही सीमित है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

महात्मा गांधी अब केवल करेंसी नोट पर नजर आते हैं और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा बाजार में भी इसका मूल्य घट गया है। एक डॉलर खरीदने के लिए 75 रुपए देने पड़ते हैं और ब्रिटिश पाउंड तो शेक्सपियर के नाटक ‘मर्चेन्ट ऑफ वेनिस’ की याद ताजा कराता है, जिसमें पाउंड के बदले हृदय पिंड का मास देने की बात की गई है। नायिका ने दलील पेश की कि करार के अनुसार रक्त की एक बूंद भी नहीं गिरनी चाहिए। गोया कि आज आंसू बहाने पर कोई प्रतिबंध नहीं है।

भला हो फिल्मकार राजकुमार हिरानी का कि उनकी ‘मुन्ना भाई…’ श्रृंखला के कारण कुछ समय के लिए गांधी जी के आदर्श हमें पुन: प्रेरित करने लगे। इसी तरह ‘रंग दे बसंती’ का प्रभाव भी थोड़े समय तक ही रहा। गोया कि पढ़े-लिखे लोग हर लहर को थोड़े ही समय चलने देते हैं। हमारे विचार तंत्र का स्थाई भाव हमेशा रूढ़िवादी ही रहा है। प्रगति का मुखौटा बार-बार गिर जाता है। एरिक एरिक्सन ने अपनी किताब ‘गांधी ट्रुथ’ में लिखा है कि गांधी जी के पहले भी स्वतंत्रता के लिए संग्राम किए गए हैं।

बड़े साहसी प्रयास रहे परंतु उनका प्रभाव क्षेत्र अखिल भारतीय नहीं था। इसलिए अंग्रेज उन्हें विफल करते रहे। केतन मेहता की आमिर अभिनीत ‘मंगल पांडे’ में भी यही अभिव्यक्त किया गया कि तय तारीख के पूर्व ही संग्राम शुरू हो गया। भगत सिंह की शहादत का गहरा महत्व था। भगत सिंह के जीवन से प्रेरित कई फिल्में बनी हैं। ‘रंग दे बसंती’ को महत्वपूर्ण फिल्म माना जाता है। राजा रामा राव ने लिखा है कि दक्षिण भारत के लोग जय हिंद ठीक से उच्चारित नहीं कर पाते थे। वे जैहिन कह पाते थे। बहरहाल, पूरा भारत एकजुट हो गया था। अनुपम खेर और उर्मिला मातोंडकर अभिनीत फिल्म ‘मैंने गांधी को नहीं मारा’ भी एक केमिकल लोचे को अभिव्यक्त करती है।

ज्ञातव्य है कि गांधी जी के लंदन प्रवास के दौरान चार्ली चैपलिन उनसे मिलने आए और उन्होंने उस समय गांधी जी द्वारा किए जा रहे मशीनों के विरोध का कारण पूछा तो गांधी जी ने स्पष्ट किया कि भारत में किसान अन्न के साथ ही कपास भी उपजाते हैं, जिसे उन्हें लंदन भेजना होता है। उसी कपास से मैनचेस्टर में कपड़ा बनाकर 100 गुना मुनाफा कमाने के लिए भारत के बाजार में बेचा जाता है। अत: साधन संपन्न के हाथ में मशीन, शोषण का माध्यम बनती है।

गौरतलब है कि चार्ली चैपलिन ने गांधी जी के विचार से प्रेरित फिल्म बनाई, जिसके एक सीन में मनुष्य को मशीन के पुर्जे की तरह प्रस्तुत किया गया है। गोया कि मशीन, मनुष्य का समय और परिश्रम बचाने के लिए बनाई गई है। आशा की गई थी कि मनुष्य इस बचे हुए समय का उपयोग स्वयं को बेहतर बनाने में करेगा परंतु ऐसा नहीं हुआ।

अपने जमाने के विख्यात फिल्मकार शांताराम की फिल्में ‘दुनिया ना माने’, ‘आदमी’, ‘पड़ोसी’, और ‘दो आंखें बारह हाथ’ गांधीजी के आदर्श से प्रेरित हैं। रिचर्ड एटनबरो की फिल्म ‘गांधी’ सारी दुनिया में प्रदर्शित की गई। इसे अनेक ऑस्कर पुरस्कारों से नवाजा गया है। गौरतलब है कि गांधीजी पर सर्वश्रेष्ठ फिल्म एक अंग्रेज ने बनाई है। गांधी जी के आदर्श से प्रेरित होने वाले लोगों ने सामाजिक सोद्देश्यता की फिल्में रचीं।

देवकी बोस की फिल्म ‘प्रेसिडेंट’ में संदेश दिया गया कि मिल मजदूर को मुनाफे का अंश दिया जाए। सहकारिता आंदोलन के बीज बाद में अंकुरित हुए। श्याम बेनेगल ने दुग्ध व्यवसाय में सहकारिता पर स्मिता पाटिल अभिनीत फिल्म ‘मंथन’ बनाई। फिल्म ‘धरती माता’ किसान के कष्ट पर बनी पहली फिल्म थी। बिमल रॉय की बलराज साहनी अभिनीत ‘दो बीघा जमीन’ को भी बहुत सराहा गया था।

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