क्या भारत में आरक्षण नीतियों पर पुनर्विचार करने के आवश्यकता है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

एक अच्छा लोकतंत्र नागरिकों को तौलता नहीं, बल्कि गिनता है (जम्हूरियत इक तर्ज़-ए-हुकूमत है कि जिस में/बंदों को गिना करते हैं तौला नहीं करते – अल्लामा इक़बाल)। यहाँ हर कोई समान देखा जाता है और उसका मूल्यांकन व्यक्तियों के रूप में किया जाता है, समूहों के सदस्य के रूप में नहीं। चुनौती इसमें है कि इस आदर्श और यथार्थ के बीच की खाई को प्रत्येक समाज किस प्रकार नीति के माध्यम से पाटने की कोशिश करता है। लेकिन क्या रोज़गार और शिक्षा के लिये आवेदकों के बीच भेदभाव करना समानता प्रदान करने के लिये सबसे प्रभावी नीति साधन है? क्या यह संभव है कि एक समूह के पक्ष में दूसरे समूह के साथ भेदभाव किये बिना समानता लाई जा सकती है?

अभी समय नहीं आया है कि देश में आरक्षण व्यवस्था समाप्त कर दी जाए, लेकिन इसका विस्तार करना—बिहार जाति सर्वेक्षण द्वारा जिसका निंदनीय प्रयास किया गया है, आने वाली पीढ़ियों के लिये अनुचित और विभाजनकारी सिद्ध हो सकता है।

आरक्षण से जुड़े मुद्दे 

  • शिक्षा और रोज़गार की गुणवत्ता: आरक्षण नीतियाँ मुख्य रूप से शिक्षा और सरकारी नौकरियों तक पहुँच को लक्षित करती हैं। हालाँकि, एक चिंता यह है कि ये नीतियाँ दीर्घकाल में शिक्षा और कार्यबल की गुणवत्ता से समझौता कर सकती हैं, क्योंकि उम्मीदवारों का चयन योग्यता के बजाय कोटा के आधार पर किया जा सकता है।
  • प्रतिभा पलायन: कुछ लोगों का तर्क है कि आरक्षण नीतियों से प्रतिभा पलायन या ‘ब्रेन ड्रेन’ की स्थिति बन सकती है, जहाँ अनारक्षित श्रेणियों के प्रतिभाशाली व्यक्ति आरक्षण प्रणाली के भेदभाव से बचने के लिये अध्ययन या काम की तलाश में विदेश का रुख कर सकते हैं। इससे देश के भीतर प्रतिभा की हानि की स्थिति बन सकती है।
  • आक्रोश और विभाजन: आरक्षण कभी-कभी समाज के भीतर सामाजिक और आर्थिक विभाजन पैदा कर सकता है। यह विभाजन उन लोगों में आक्रोश उत्पन्न कर सकता है जो क्रियान्वित नीतियों के लाभ से वंचित रह जाते हैं और इससे सामाजिक एकजुटता एवं विकास में बाधा उत्पन्न हो सकती है।
  • अक्षमताएँ और भ्रष्टाचार: आरक्षण नीतियाँ कभी-कभी अक्षमताओं, भ्रष्टाचार और जाति प्रमाणपत्रों में हेरफेर के कारण दूषित भी हो जाती हैं। ये मुद्दे प्रणाली की प्रभावशीलता को कमज़ोर कर सकते हैं और विकास में बाधा उत्पन्न कर सकते हैं।
  • लक्ष्यीकरण का अभाव: आरक्षण नीतियाँ प्रायः व्यापक श्रेणियों पर निर्भर करती हैं, जो उन श्रेणियों के सबसे वंचित व्यक्तियों को सटीक रूप से लक्षित नहीं कर पाती हैं। संभव है कि आरक्षित श्रेणियों के कुछ व्यक्ति अन्य व्यक्तियों की तरह वंचना के शिकार नहीं हों, फिर भी इसका लाभ उठा रहे हों।
  • कलंक और रूढ़िवादिता: आरक्षण से कभी-कभी आरक्षित श्रेणियों के व्यक्तियों के लिये कलंक और रूढ़िवादिता का सामना करने की स्थिति बन सकती है, जो उनके आत्म-सम्मान और समग्र विकास को प्रभावित कर सकता है।
  • आर्थिक विकास बनाम सामाजिक विकास: आरक्षण नीतियाँ सामाजिक विकास पर ध्यान केंद्रित करने की प्रवृत्ति रखती हैं, लेकिन संभव है कि वे प्रत्यक्ष रूप से आर्थिक असमानताओं को संबोधित नहीं करें। असमानता को दूर करने और समग्र विकास को बढ़ावा देने के लिये आर्थिक विकास भी महत्त्वपूर्ण है।
  • राजनीतिक शोषण: आरक्षण नीतियों का उपयोग कभी-कभी राजनीतिक लाभ के लिये किया जाता है, जहाँ दीर्घकालिक विकास लक्ष्यों के बजाय अल्पकालिक राजनीतिक उद्देश्यों पर ध्यान केंद्रित किया जा सकता है।

संवैधानिक प्रावधान जो राज्य को आरक्षण प्रदान करने में सक्षम बनाते हैं

  • संविधान का अनुच्छेद 15 राज्य को निम्नलिखित प्रावधान करने का अधिकार देता है:
    • अनुच्छेद 15(3) राज्य को महिलाओं और बच्चों के लिये कोई भी विशेष प्रावधान करने में सक्षम बनाता है।
    • अनुच्छेद 15(4) राज्य को नागरिकों के किसी भी सामाजिक एवं शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों या अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST)  की उन्नति के लिये कोई विशेष प्रावधान करने में सक्षम बनाता है।
    • अनुच्छेद 15(5) नागरिकों के सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के साथ-साथ SCs एवं STs की उन्नति के लिये विशेष प्रावधान करने की अनुमति देता है, विशेष रूप से निजी संस्थानों सहित शैक्षणिक संस्थानों में उनके प्रवेश के संबंध में।
    • अनुच्छेद 15(6)(a) राज्य को खंड (4) और (5) में उल्लिखित वर्गों के अलावा नागरिकों के किसी भी आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग (EWS) की उन्नति के लिये विशेष प्रावधान करने की अनुमति देता है।
    • अनुच्छेद 15(6)(a) राज्य को खंड (4) और (5) में उल्लिखित वर्गों से भिन्न नागरिकों के आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (EWS) की उन्नति के लिये विशेष प्रावधान करने का उपबंध करता है। ये प्रावधान विशेष रूप से शैक्षणिक संस्थानों (निजी सहित) में उनके प्रवेश से संबंधित हैं।
  • अनुच्छेद 16 लोक नियोजन के विषय में सकारात्मक भेदभाव या आरक्षण का आधार प्रदान करता है।
    • अनुच्छेद 16(4) में प्रावधान है कि राज्य नागरिकों के किसी भी ऐसे पिछड़े वर्ग के पक्ष में नियुक्तियों या पदों के आरक्षण के लिये कोई भी प्रावधान कर सकता है, जिनका राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है।
    • अनुच्छेद 16(4a) में प्रावधान है कि राज्य अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के पक्ष में पदोन्नति के मामलों में आरक्षण के लिये कोई भी प्रावधान कर सकता है यदि उन्हें राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं है।
    • अनुच्छेद 16(6) में प्रावधान है कि राज्य किसी भी आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग के पक्ष में नियुक्तियों या पदों के आरक्षण के लिये कोई उपबंध कर सकता है।

आरक्षण का क्या समाधान होना चाहिये?

  • अवसर अवसंरचना को नया रूप देना: हमारी अवसर अवसंरचना को नया रूप देने के लिये शिक्षा, रोज़गार क्षमता और रोज़गार के ‘3Es’ (education, employability, employment) के सुधारों में तेज़ी लाने की आवश्यकता है।
    • शिक्षा के क्षेत्र में, राज्य सरकारों को कक्षा के छोटे आकार, शिक्षक योग्यता या शिक्षक वेतन पर अधिक ऊर्जा बर्बाद करने के बजाय प्रदर्शन प्रबंधन, शासन और ‘सॉफ्ट’ कौशल की बाध्यकारी बाधाओं पर ध्यान केंद्रित करते हुए सरकारी स्कूलों को बेहतर बनाना चाहिये।
    • रोज़गार क्षमता के मामले में हमें अभ्यास से सीखने (learning by doing), सीखने के साथ आय अर्जन करने (learning while earning), क्वालिफिकेशन मोड्यूलरिटी के साथ सीखने (learning with qualification modularity), मल्टीमॉडल डिलीवरी के साथ सीखने (learning with multimodal delivery) और सिग्नलिंग वैल्यू के साथ सीखने (learning with signaling value) के पाँच डिज़ाइन सिद्धांतों के अनुरूप प्रणाली को फिर से डिज़ाइन कर नियोक्ताओं से कौशल के लिये बड़े पैमाने पर नए वित्तपोषण को आकर्षित करना चाहिये।
      • इसके लिये ‘रेगुलरिटी कोलेस्ट्रॉल’ को समाप्त करने की आवश्यकता है जो डिग्री को प्रशिक्षुता से संबद्ध करने को निषिद्ध करता है, प्रशिक्षुता को नौकरियों के साथ भ्रमित करता है, पारंपरिक विश्वविद्यालयों की तरह व्यावसायिक विश्वविद्यालयों का मूल्यांकन करता है और ऑनलाइन उच्च शिक्षा के विकास को बाधित करता है।
    • रोज़गार के मामले में, बड़े पैमाने पर गैर-कृषि, उच्च-मज़दूरी, औपचारिक रोजगार सृजन के लिये नियोक्ताओं हेतु रेगुलरिटी कोलेस्ट्रॉल में कटौती की आवश्यकता है जो नई श्रम संहिता पारित करने के माध्यम से मुक़दमेबाजी, अनुपालन, फाइलिंग और अपराधीकरण को बढ़ावा दे।
      • विनिर्माण क्षेत्र में बहुत सा कार्य हो रहा है, जो कार्यालयों वाले बड़े नियोक्ताओं पर कम आश्रित हैं और जो अधिकांशतः सूचकांक से लिंक्ड नहीं हैं और वे परिभाषित लाभ पेंशन प्रदान नहीं करते हैं।
      • लेकिन हमारे मौजूदा श्रम कानून छोटे नियोक्ताओं की अनदेखी करते हैं, भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते हैं और लोगों की जगह मशीनों को नियोजित करने को प्रोत्साहित करते हैं।
        • इस परिदृश्य में हमारे श्रम कानूनों में भी सुधार किया जाना चाहिये।
  • समान व्यवहार: समानता को बढ़ावा देने का एक बुनियादी पहलू यह है कि सुनिश्चित किया जाए कि सभी व्यक्तियों के साथ उचित और भेदभाव रहित व्यवहार किया जाए। इसका अभिप्राय यह है कि लोगों को उनकी पृष्ठभूमि (जैसे कि उनके माता-पिता की स्थिति) के आधार पर अलाभ या विशेषाधिकार प्राप्त नहीं हों।
  • निष्पक्ष प्रतिस्पर्द्धा: लोगों के लिये प्रतिस्पर्द्धा के एकसमान अवसर को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये, जहाँ व्यक्तियों को अपने कौशल, क्षमताओं और प्रयासों के आधार पर सफल होने के समान अवसर प्राप्त हों। यह व्यक्तियों को अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करने के लिये प्रेरित करने के माध्यम से उत्कृष्टता को बढ़ावा देता है।
  • प्रतिफलों का निष्पक्ष आकलन: किसी व्यक्ति के प्रदर्शन, कौशल और योगदान के उचित और निष्पक्ष मूल्यांकन के माध्यम से प्रतिफलों को निर्धारित किया जाना चाहिये। यह सुनिश्चित करेगा कि सफलता के निर्धारण में योग्यता और उपलब्धि प्राथमिक कारक हैं।
  • प्रयास और साहस के आधार पर आकलन: कड़ी मेहनत, दृढ़ संकल्प और अपने लक्ष्यों को आगे बढ़ाने के साहस के महत्त्व पर बल देने से व्यक्तिगत ज़िम्मेदारी और व्यक्तिगत प्रयास की संस्कृति को बढ़ावा देने में मदद मिलती है।
  • संसाधनों का विवेकपूर्वक उपयोग: आधुनिक राज्य को कल्याणकारी राज्य होना चाहिये और भविष्य में इसे आदर्श राज्य तब समझा जाएगा जब इसकी एक ऐसी सरकार हो जो समाज के संसाधनों का उपयोग उन लोगों को गुणवत्तापूर्ण भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा एवं आवास प्रदान करने के लिये करे जिन्हें इसकी आवश्यकता है।
    • लेकिन यह सुरक्षा जाल कर्महीनता का पर्याय नहीं बन जाए। बेरोज़गार कामगारों को कार्यरत कामगारों के समान आय नहीं मिल सकती है क्योंकि काम करने से प्राप्त लाभ महज आय पाने तक ही सीमित नहीं है। इसी प्रकार, अमीर लोगों को सस्ता खाद्य, गैस या डीज़ल नहीं मिलना चाहिये।
    • नीति को सब्सिडी के लिये आधार-सक्षम प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण क्रांति में तेज़ी लानी चाहिये।

गांधीजी का मानना था कि सर्वोदय (सभी का विकास) अंत्योदय (कमज़ोरों का कल्याण) के माध्यम से पूरा हो सकेगा। दार्शनिकों ने इस दृष्टिकोण से विचार किया है और निष्कर्ष निकाला कि यदि आप दुनिया में अपना स्थान जाने बिना इसे डिज़ाइन कर रहे हैं तो आप सभी के लिये निष्पक्षता सुनिश्चित कर सकेंगे।

आरक्षण सामाजिक न्याय के लिये एक बहुमूल्य साधन है लेकिन ‘पूर्ण स्वराज’ के कई साल गुज़रने के बाद अब इसे त्यागने का समय आ गया है जो प्रायः राजनीतिक हेरफेर के अधीन होती है और इसके बदले कुछ ऐसा अपनाने की आवश्यकता है जो अगले दशकों में अधिक सार्वभौमिक हो।

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