जेपी और नानाजी ने साथ लड़ी 1975 में भारत की दूसरी आजादी की लड़ाई.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

जब हम आजादी के अमृत महोत्सव का संदर्भ लेते हैं, तो आजाद भारत के लिए सामाजिक परिवर्तन, उचित अर्थनीति, राजनीति तथा शिक्षा की कल्पना करने वाले दो महान व्यक्तित्व लोकनायक जयप्रकाश नारायण यानी जेपी और राष्ट्र ऋषि नानाजी देशमुख एक साथ उभरकर सामने आते हैं। दोनों के बीच अद्भुत समानता है। पहली यही कि दोनों का जन्मदिन 11 अक्टूबर को पड़ता है।

दोनों ने 1975 में भारत की दूसरी आजादी की लड़ाई साथ-साथ लड़ी। एक का नेतृत्व था, तो दूसरे का संगठन कौशल। दोनों नायकों में एक और विशेष समानता यह है कि उन्होंने राजनीति में सक्रिय रहते हुए चुनावी राजनीति से अलग होकर समाज रचना के नए प्रयोग किए। दोनों ही औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्त भारत की निर्मिति के लिए समग्र क्रांति की अवधारणा को स्वीकार करते हैं। दोनों का भारत गांवों में है। दोनों ही भारत के श्रमिकों को, खेतिहर मजदूरों को भारत भाग्य विधाता के रूप में देखते हैं।

इन सबसे ऊपर वे गांधी और दीनदयाल की परंपरा को स्वीकृति देते हुए भारत के मूल अधिष्ठान को आध्यात्मिक मूल्यों में देखते हैं। ये आध्यात्मिक मूल्य ऐसे हैं जिनमें समग्र क्रांति का एक गीत बरबस याद आता है, ‘मंदिरों, मस्जिदों में नहीं, जहां श्रम करे हाथ, भगवन वहीं’। यह उन युवाओं का प्रिय गीत रहा जो स्वयं को समाज शिल्पी के रूप में सांस्कृतिक परिवर्तन के ध्वजवाहक के रूप में प्रस्तुत कर रहे थे।

लोकनायक और राष्ट्र ऋषि के रूप में एक विचार और भविष्य के सूत्र देता है तो दूसरा उसे धरातल पर उतारकर श्रेष्ठ भारत की इमारत खड़ी करने के विविध प्रयोग प्रारंभ करता है। स्वाभाविक तौर पर राष्ट्र ऋषि नानाजी देशमुख के साथ लोकनायक जयप्रकाश नारायण को याद करना स्वतंत्र भारत के इतिहास के उस विशिष्ट कालखंड को याद करना है जिसमें जयप्रकाश के बिगुल ने तरुणाई को जगाया और समग्र क्रांति की संभावनाओं को स्वर दिया। 1977 में समग्र क्रांति का यह अभियान जब राजनीति के खांचे में आकर सत्ता परिवर्तन के रूप में सिमटने लगा तो नानाजी ने केंद्र में मंत्री बनने के बजाय उत्तर प्रदेश के अत्यंत पिछड़े इलाके गोंडा के एक गांव में समाज शिल्पी बनना स्वीकार किया।

बेहतर भविष्य की आस में उन्होंने ‘जयप्रभा’ ग्राम की नींव रखी। समाज विज्ञान के सिद्धांतों के गठन के ध्येय से दिल्ली में दीनदयाल उपाध्याय शोध संस्थान स्थापित किया। वस्तुत: गांधी, जयप्रकाश और दीनदयाल इन तीनों को मूर्तिमान रूप में नानाजी के जीवन में देखा जा सकता है। जब मिश्रित अर्थव्यवस्था और समाजवादी झुकाव वाले राज्य के कारण संवेदना से संपूरित समाज रचना ओझल हो रही थी, तब उन्होंने विभाजित समाज को साधकर प्रतीति कराई कि गांव बढ़ेगा तभी भारत बढ़ेगा।

समग्र क्रांति में समाज परिवर्तन, शिक्षा परिवर्तन, व्यवस्था परिवर्तन और राजसत्ता परिवर्तन की अपनी अवधारणा को स्पष्ट करते हुए जेपी ने अपनी बात रखी। हालांकि परिवर्तन के बाद सरकार में आए लोगों को लगा कि सत्ता मिलने के साथ ही प्रयोजन भी सिद्ध हुआ। बिल्कुल वैसे जैसे नेहरू और उनके साथियों को लगा था कि आजादी के बाद बात पूरी हो गई है और सत्ता सब कुछ बदलेगी।

जेपी ने तब भी राजनीति से बाहर निरंतर समाज परिवर्तन के यत्न करने पर जोर दिया था। इसकी दुहाई दी थी कि समग्र परिवर्तन केवल सत्ता परिवर्तन तक सीमित नहीं होना चाहिए, लेकिन खराब स्वास्थ्य के कारण फिर से एक नया आंदोलन शुरू करने की स्थिति में वह नहीं थे। तब नानाजी संसदीय-चुनावी राजनीति से बाहर आए और उन्होंने ग्राम विकास का एक नया प्रयोग प्रारंभ किया। उसमें गांधी, विनोबा और दीनदयाल की समग्र दृष्टि दिखाई दी,

जिसमें अंत्योदय के माध्यम से सवरेदय की संकल्पना चरितार्थ होने के बीज हैं। अंत्योदय और सवरेदय न तो राजसत्ता से आएगा और न ही व्यापारिक प्रतिष्ठानों से। नौजवानों को समाज शिल्पी के रूप में आगे आना होगा। हजारों नौजवानों ने अपने वैयक्तिक जीवन के सुख और सपने छोड़कर समाज कार्य करना स्वीकार किया।

एक ओर गोंडा के जयप्रभा गांव और उसके आसपास विकास का प्रयोग प्रारंभ हुआ तो दूसरी ओर उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के अत्यंत पिछड़े बुंदेलखंड इलाके में ग्रामोदय की कल्पना साकार हुई। इसे न केवल सिद्धांतकार के रूप में प्रस्तुत किया गया, बल्कि सैकड़ों गांवों में खेती बदली, पढ़ाई बदली, परस्पर संबधों का स्वभाव बदला, भारतीयता, आध्यात्मिकता, संवेदनापूरित समता की मूल्यदृष्टि को समाज जीवन में चरितार्थ किया। आज जब पूरी दुनिया भारत की ओर देख रही है तब ऐसी चरितार्थता का स्मरण करना आवश्यक प्रतीत होता है। कोरोना जनित सामाजिक अंतराल के इस कठिन कालखंड में सशक्त समाज की निर्मिति की चुनौती को देखते हुए यह जरूरी भी है।

गांधी जी और दीनदयाल जी के सिद्धांतों पर आधारित जेपी और नानाजी का रास्ता हमारे लिए अहम और एकमात्र विकल्प बनकर उभरा है। हालांकि, प्रत्येक सिद्धांत काल की परिस्थितियों से प्रभावित होता है। जेपी और नानाजी ने गांधी, विनोबा और दीनदयाल जी के विचारों में आवश्यक एवं व्यावहारिक संशोधन कर सफल और सार्थक प्रयोग किए थे।

भारत ने अब आत्मनिर्भरता का आह्वान किया है तो जेपी और नानाजी के बताए और दिखाए रास्ते हम सबकी सामूहिक स्मृति का हिस्सा बनते हैं। आज जब आजादी के अमृत महोत्सव के अवसर पर जेपी और नानाजी जैसे महापुरुषों को याद किया जा रहा है तब केवल उनके व्यक्तित्व का ही स्मरण नहीं, उनके कृतित्व, विचारों और मूल्यों को भी याद किया जाना चाहिए। साथ ही यह भी प्रयास होना चाहिए कि उनके विचार और मूल्य भारतीय जीवन का अंग बन सकें। इससे ही अमृत महोत्सव की सार्थकता बढ़ेगी।

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