कॉप 26 का पहला और दूसरा दिन भारत के नाम रहा,कैसे?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

ग्लासगो शहर में चल रहे जलवायु शिखर सम्मेलन (कॉप 26) का पहला और दूसरा दिन भारत के नाम रहा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहले दिन भारत के लिए नेट-जीरो उत्सर्जन लक्ष्य के साथ-साथ ‘पंचामृत’ यानी पांच प्रतिबद्धताओं का भी एलान किया. वहीं, दूसरे दिन उन्होंने छोटे द्वीपीय देशों की मदद के लिए ‘इंफ्रास्ट्रक्चर फॉर रिजिल्यंट आइलैंड स्टेट’ (आइआरआइएस) और दुनियाभर के ग्रिड को जोड़नेवाली ‘वन सन, वन वर्ल्ड, वन ग्रिड’ पहल को दुनिया के सामने रखा.

प्रधानमंत्री मोदी की ‘पंचामृत’ घोषणाओं में 2030 तक 500 गीगावाट गैर-जीवाश्म ईंधन आधारित बिजली उत्पादन क्षमता हासिल करना, 2030 तक 50 प्रतिशत ऊर्जा जरूरतों को नवीकरणीय ऊर्जा से पूरा करना, 2030 तक कार्बन उत्सर्जन में एक अरब टन की कटौती करना, 2030 तक सकल घरेलू उत्पाद की उत्सर्जन सघनता को 45 प्रतिशत तक घटाना तथा 2030 तक भारतीय रेलवे को नेट-जीरो उत्सर्जक बनाना शामिल है.

जलवायु सम्मेलन का आयोजन और इसमें प्रधानमंत्री मोदी की घोषणाएं ऐसे वक्त पर सामने आयी हैं, जब देश और दुनिया में जलवायु परिवर्तन के प्रत्यक्ष प्रभावों को महसूस किया जा रहा है. सीइइडब्ल्यू में अपने अध्ययन ‘मैपिंग इंडियाज क्लाइमेट वल्नेरेबिलिटी’ में हमने पाया है कि भारत में जलवायु संबंधी चरम घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं.

आज देश के 27 राज्य और केंद्रशासित प्रदेश जलवायु संबंधी चरम घटनाओं के जोखिम की चपेट में हैं. हमने जिलों पर आधारित एक क्लाइमेट वल्नेरेबिलिटी इंडेक्स (जलवायु जोखिम सूचकांक) भी बनाया है, जो यह इंगित करता है कि देश के 640 जिलों में से 463 जिले अत्यधिक बाढ़, सूखे और चक्रवात के जोखिम से घिरे हुए हैं. उल्लेखनीय है कि इनमें से 45 प्रतिशत से ज्यादा जिले तो अस्थिर परिस्थितियों और बुनियादी ढांचे में बदलावों का सामना भी कर चुके हैं. इसके अलावा, 183 हॉटस्पॉट (सबसे ज्यादा घटनाओं वाले) जिले जलवायु से जुड़ी एक से अधिक चरम घटनाओं के भीषण जोखिम में हैं.

भारत के पूर्वोत्तर के राज्यों के लिए बाढ़ों का, जबकि मध्य और दक्षिण भारत के राज्यों के लिए भीषण सूखे का जोखिम सबसे ज्यादा है. इसके अलावा पूर्वी और दक्षिणी राज्यों में कुल जिलों में क्रमश: 59 और 41 प्रतिशत जिले भीषण चक्रवातों के जोखिम की चपेट में हैं. अगर जनसंख्या के लिहाज से देखें, तो 80 प्रतिशत से अधिक भारतीय जलवायु संबंधी चरम घटनाओं के जोखिम वाले जिलों में रहते हैं. कुल मिलाकर, बाढ़, सूखा और चक्रवात जैसी घटनाएं न केवल भारत को आर्थिक तौर पर नुकसान पहुंचाने, बल्कि कमजोर समुदायों के विस्थापन का बड़ा कारण भी बन रही हैं.

ऐसे समय में ग्लासगो सम्मेलन में प्रधानमंत्री मोदी की घोषणाओं का महत्व बढ़ जाता है. वास्तव में, 2070 तक नेट-जीरो उत्सर्जन के लक्ष्य को पाने के लिए भारत को सभी क्षेत्रों में व्यापक बदलाव करने की जरूरत होगी. इस बारे में सीइइडब्ल्यू ने अपनी रिपोर्ट ‘इंप्लीकेशंस ऑफ अ नेट-जीरो टारगेट फॉर इंडियाज सेक्टोरल एनर्जी ट्रांजिशन’ में विस्तार से चर्चा की है. इस रिपोर्ट में हमने पाया है कि 2070 तक नेट-जीरो लक्ष्य पाने के लिए भारत को अपनी कुल स्थापित सौर ऊर्जा क्षमता में 5,600 गीगावाट से ज्यादा की बढ़ोतरी करने की जरूरत होगी. इसके अलावा, 2070 तक पवन ऊर्जा उत्पादन क्षमता को 1792 गीगावाट और परमाणु ऊर्जा उत्पादन क्षमता को 225 गीगावाट तक बढ़ाना होगा.

इतना ही नहीं, परिवहन क्षेत्र में 2070 तक कारों की कुल बिक्री में इलेक्ट्रिक वाहनों की हिस्सेदारी 84 प्रतिशत तक पहुंचानी होगी. इसके साथ, माल ढुलाई में इलेक्ट्रिक ट्रकों का हिस्सा 79 प्रतिशत और शेष ट्रकों को हाइड्रोजन से चलाने के लिए कदम उठाना होगा.

भारत को उत्सर्जन लक्ष्य पाने के लिए उद्योगों में कोयले का इस्तेमाल घटाना होगा. भारत को 2040 से कोयले की अपनी खपत में कटौती की शुरुआत करनी होगी और 2060 तक इसे 99 प्रतिशत तक घटाना होगा. इसके साथ उद्योगों की ऊर्जा जरूरतें पूरी करने के लिए हाइड्रोजन का उपयोग 2050 तक 15 प्रतिशत और 2070 तक 19 प्रतिशत तक पहुंचाना होगा. इसी तरह भारत को कच्चे तेल पर अपनी निर्भरता घटाते हुए इसकी खपत में 2050 से 2070 के बीच 90 प्रतिशत की कटौती करनी होगी.

भारत के नेट-जीरो लक्ष्य के रास्ते में मौटे तौर पर चार प्रमुख चुनौतियां हैं. पहली चुनौती लक्ष्य के मुताबिक जरूरी बदलावों को लागू करने के लिए वित्तीय संसाधनों को जुटाने की है. इसके लिए विकसित देशों से सस्ती दर पर वित्तीय सहायता की सख्त जरूरत पड़ेगी. दूसरी चुनौती ऊर्जा संबंधी बदलावों, खास तौर पर कोयले का उपयोग घटाने से प्रभावित होनेवाले लाखों लोगों की सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा देने की तैयारी है. तीसरी चुनौती ऊर्जा के नये विकल्पों को लोगों की पहुंच में बनाये रखना है यानी वे सहूलियत से उनका उपभोग कर सकें. चौथी चुनौती पर्यावरण के बदलावों को सहने लायक बुनियादी ढांचे का विकास करना है.

ऐसे में भारत की नेट-जीरो बनने की घोषणा निश्चित तौर पर चीन या यूरोपीय संघ की तुलना में कहीं अधिक महत्वाकांक्षी है. लेकिन यह भारतीय और वैश्विक ऊर्जा बाजार को एक स्पष्ट रूपरेखा भी प्रदान करेगी. उत्सर्जन को घटाने और धरती की तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने की दिशा में प्रयासों की रफ्तार भी बढ़ायेगी. ऐसे में इसका महत्व बहुत बढ़ जाता है.

नेट-जीरो वर्ष की घोषणा कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन विदेशी और घरेलू निवेशकों के लिए दरवाजे भी खोल दिये हैं, जो भारत में ग्रीन टेक्नोलॉजी के शोध और विकास, निर्माण और इसे स्थापित करने में निवेश करना चाहते हैं. हालांकि भारत के प्रयासों को विकसित देशों से जलवायु वित्त की मदद चाहिए, क्योंकि रियायती दर पर विदेशी पूंजी के बगैर इन बदलावों को जमीन पर उतारना मुश्किल होगा. भारत ने घोषणाओं के जरिये जलवायु परिवर्तन के खिलाफ वैश्विक प्रयासों में अपनी नेतृत्वकारी भूमिका को स्पष्ट कर दिया है.

इसके साथ ही ग्लोबल वॉर्मिंग को रोकने की दिशा में प्रयास करने की गेंद को विकसित देशों के पाले में भी डाल दिया है. अब विकसित देशों की बारी है. उनकी जिम्मेदारी है कि वे न केवल जलवायु परिवर्तन से संबंधित उपायों को लागू करने के लिए विकासशील देशों को 100 बिलियन डॉलर जलवायु वित्त उपलब्ध कराने के अपने वादे को पूरा करें, बल्कि इसे बढ़ाने पर भी गंभीरता से विचार करें.

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