भारत में दिव्यांगता की वर्तमान स्थिति क्या है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

दिव्यांगता (Disability) एक पहचान और इकाई के रूप में विभिन्न भेद्यताओं—सामाजिक, आर्थिक एवं लैंगिक—के प्रतिच्छेद बिंदु पर अस्तित्व रखती है, जहाँ समता के लिये कार्रवाई की संकल्पना करते समय प्रत्येक पहलू पर सावधानीपूर्वक विचार करने की आवश्यकता होगी।

वैश्विक स्तर पर 1.3 बिलियन लोग किसी न किसी रूप में दिव्यांगता के साथ जी रहे हैं। उनमें से 80% विकासशील देशों में निवास करते हैं, जबकि उनमें से 70% ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं।

वर्तमान प्रणालियाँ दिव्यांगता से रहित व्यक्तियों के लिये डिज़ाइन की गई हैं और वे दिव्यांग व्यक्तियों के लिये अपवर्जनकारी (exclusionary) सिद्ध होती हैं। इसके परिणामस्वरूप उन्हें गरीबी, शिक्षा एवं अवसरों तक पहुँच की कमी, अनौपचारिकता और सामाजिक एवं आर्थिक भेदभाव के अन्य रूपों का सामना करना पड़ता है।

भारत में दिव्यांगता की परिभाषा:

  • दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम 2016 (Rights of Persons with Disabilities Act, 2016) के अनुसार, दिव्यांगजन वह व्यक्ति है जो ऐसी दीर्घकालिक अपंगता या अक्षमता (impairment) रखता है जो उसकी शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक या संवेदी क्षमताओं को प्रभावित करती है।
    • यह अक्षमता उन्हें समाज में पूर्ण और प्रभावी ढंग से भागीदारी कर सकने से अवरुद्ध करती है।
  • दिव्यांगता की चार मुख्य श्रेणियाँ हैं:
    • व्यवहारिक या भावनात्मक (Behavioural or emotional)
    • संवेदी अक्षमता विकार (Sensory impaired disorders)
    • भौतिक/शारीरिक (Physical)
    • विकास संबंधी (Developmental)

भारत में दिव्यांगता की वर्तमान स्थिति:  

  • विश्व बैंक के अनुसार भारत की 5-8% आबादी दिव्यांगता की शिकार है। NSSO का अनुमान है कि 2.2% आबादी दिव्यांग है। NFHS-5 सर्वेक्षण (2019-21) में पाया गया कि 4.52% आबादी दिव्यांग है।
  • सीमित जागरूकता: पहली बाधा दिव्यांगजनों के लिये उपलब्ध सरकारी योजनाओं और लाभों के बारे में जागरूकता की कमी है।
    • यह समस्या ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक स्पष्ट है जहाँ सूचना प्रसार चुनौतीपूर्ण है।
  • अभिगम्यता और अवसंरचना की कमी: कई सार्वजनिक स्थान—जैसे स्कूल, अस्पताल, परिवहन प्रणाली और सरकारी कार्यालय दिव्यांगजनों की आवश्यकताओं के अनुरूप डिज़ाइन नहीं किये गए हैं।
    • यह उनकी गतिशीलता, शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल और सामाजिक एवं नागरिक गतिविधियों में भागीदारी को सीमित करता है।
    • यूनिसेफ (UNICEF) के अनुसार, दिव्यांग बच्चों को प्रायः ऐसे स्थानों से अपवर्जन का शिकार होना पड़ता है, जिससे वे उन महत्त्वपूर्ण पहलों से चूक जाते हैं जिनका उद्देश्य उनके स्वास्थ्य और कल्याण में सुधार करना है।
  • शिक्षा और रोज़गार तक सीमित पहुँच: ग्रामीण क्षेत्रों में दिव्यांग व्यक्तियों को प्रायः शिक्षा और रोजगार के अवसरों तक सीमित पहुँच के संकट का सामना करना पड़ता है।
    • समावेशी शैक्षणिक संस्थानों और व्यावसायिक प्रशिक्षण केंद्रों की कमी आवश्यक कौशल हासिल करने और कार्यबल में भाग ले सकने की उनकी क्षमता में बाधक बन सकती है।
  • विकासात्मक योजनाओं से अपवर्जन: कुछ विकासात्मक योजनाएँ अनजाने में ही दिव्यांगजनों  को अपवर्जित कर सकती हैं, जिससे वे महत्त्वपूर्ण पहलों के दायरे से बाहर हो सकते हैं।
    • इसका एक उदाहरण टीकाकरण अभियान हैं जो दिव्यांगजनों की पहुँच और संचार आवश्यकताओं (जैसे रैंप, सांकेतिक भाषा का प्रयोग करने वाले दुभाषिए या ब्रेल सामग्री) को ध्यान में नहीं रखते हैं।
  • धारणा और कलंक: दिव्यांगजनों को कभी-कभी समाज में सार्थक योगदान देने में सक्षम स्वायत्त व्यक्ति के बजाय दान या दया के पात्र के रूप में देखा जाता है।
    • यह धारणा सामाजिक कलंक, भेदभाव और निर्णय लेने की प्रक्रियाओं से अपवर्जन का कारण बन सकती है, जिससे उनकी चुनौतियाँ और बढ़ सकती हैं।
  • कृषि पर निर्भरता और जलवायु परिवर्तन के जोखिम: भारत में ग्रामीण क्षेत्रों में प्रायः कृषि पर अत्यधिक निर्भरता की स्थिति पाई जाती है और इन क्षेत्रों में दिव्यांगजन विशेष रूप से जलवायु परिवर्तन संबंधी प्रभावों के प्रति संवेदनशील होते हैं। 
    • स्वच्छ जल एवं आहार तक पहुँच में कमी, तूफान, लू और बाढ़ ने उनकी आजीविका, स्वास्थ्य एवं समग्र कल्याण के लिये जोखिम को बढ़ा दिया है।
  • कानूनी और नीतिगत समर्थन का अभाव: भारत ने वर्ष 2007 में दिव्यांगजनों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र अभिसमय (UN Convention on the Rights of Persons with Disabilities- CRPD) की पुष्टि की और वर्ष 2016 में दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम (RPWD) को अधिनियमित किया, जो दिव्यांगजनों की सुरक्षा एवं सशक्तीकरण के लिये एक कानूनी ढाँचा प्रदान करता है।
    • हालाँकि इन कानूनों एवं नीतियों के कार्यान्वयन और प्रवर्तन में विभिन्न कमियाँ एवं चुनौतियाँ मौजूद हैं और दिव्यांगजनों की एक बड़ी संख्या अभी भी अपने अधिकारों एवं प्राप्त उपचारों से अपरिचित है।

दिव्यांगजनों के सशक्तीकरण के लिये कौन-सी पहलें की गई हैं?

  • ‘स्पार्क’ परियोजना: ILO और अंतर्राष्ट्रीय कृषि विकास कोष (IFAD) महाराष्ट्र में महिला विकास निगम के सहयोग से स्पार्किंग डिसेबिलिटी इन्क्लूसिव रूरल ट्रांसफोर्मेशन (Sparking Disability Inclusive Rural Transformation- SPARK) परियोजना को कार्यान्वित कर रहे हैं।
    • इस परियोजना के माध्यम से दिव्यांगजनों को अग्रणी भूमिका सौंपी गई है, जहाँ उन्हें ग्रामों से चिह्नित किया जा रहा है और दिव्यांगता समावेशन सुविधाकर्ता (Disability Inclusion Facilitators- DIFs) के रूप में प्रशिक्षित किया जा रहा है।
      • DIFs दिव्यांगता समावेशन और समावेशन में मौजूद बाधाओं के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिये समुदाय, दिव्यांगजनों, दिव्यांगजनों के देखभालकर्ताओं, स्वयं सहायता समूहों से संबद्ध महिलाओं और अन्य हितधारकों से संलग्नता बढ़ाते हैं।
      • DIFs दिव्यांग महिलाओं की पहचान करते हैं और उन्हें सामाजिक एवं आर्थिक विकास के लिये मौजूदा स्वयं सहायता समूहों के मुख्यधारा में लेकर आते हैं जहाँ ये महिलाएँ उद्यम शुरू करने के लिये धन तक पहुँच बनाने में सक्षम होती हैं।
    • स्पार्क परियोजना सामाजिक स्तर से लेकर प्रशासनिक स्तर तक दिव्यांगजनों के प्रति दृष्टिकोण में बदलाव को प्रेरित करने में सक्षम सिद्ध हुई है।
  • विशिष्ट निःशक्तता पहचान पोर्टल (Unique Disability Identification Portal) 
  • सुगम्य भारत अभियान (Accessible India Campaign)
  • दीनदयाल दिव्यांग पुनर्वास योजना (DeenDayal Disabled Rehabilitation Scheme)
  • दिव्यांगजनों के लिये सहायक यंत्रों/उपकरणों की खरीद/फिटिंग में सहायता की योजना (Assistance to Disabled Persons for Purchase/fitting of Aids and Appliances)
  • दिव्यांग छात्रों के लिये राष्ट्रीय फैलोशिप (National Fellowship for Students with Disabilities)
  • दिव्यांगजनों के अद्वितीय पहचान पत्र (Unique ID for persons with disabilities- UDID)

दिव्यांगजनों की स्थिति में सुधार के लिये कौन-से उपाय किये जाने चाहिये?

  • रोज़गार के अवसर बढ़ाना: दिव्यांगजनों के लिये रोज़गार के अधिक अवसर पैदा करने और उन्हें पर्याप्त प्रशिक्षण, कौशल विकास एवं सहायता प्रदान करने की आवश्यकता है।
    • सरकार और निजी क्षेत्र को RPWD अधिनियम 2016 के प्रावधानों को लागू करना चाहिये, जो सरकारी नौकरियों में दिव्यांगजनों के लिये 4% आरक्षण और दिव्यांगजनों को रोज़गार देने वाले नियोक्ताओं के लिये प्रोत्साहन का निर्देश देता है।
    • विभिन्न CSR पहलें भी दिव्यांगजनों के लिये समावेशी और सुलभ कार्यस्थलों को बढ़ावा देने में अहम भूमिका निभा सकती हैं।
  • अभिगम्यता और अवसंरचना में सुधार: स्कूलों, अस्पतालों, परिवहन प्रणालियों और सरकारी कार्यालयों जैसे सार्वजनिक स्थानों को दिव्यांगजनों के लिये अधिक अभिगम्य और उपयोगकर्ता-अनुकूल बनाने की आवश्यकता है।
    • सार्वभौमिक डिज़ाइन सिद्धांतों को अपनाकर और रैंप, लिफ्ट, संकेत चिह्न/साइनेज (signages), टैक्टाइल पैथ, सहायक उपकरण एवं दिव्यांगजनों की विविध आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाली अन्य सुविधाएँ प्रदान कर ऐसा किया जा सकता है।
    • सरकार को सुगम्य भारत अभियान (Accessible India Campaign) के कार्यान्वयन एवं निगरानी को भी सुनिश्चित करना चाहिये, जिसका उद्देश्य दिव्यांगजनों के लिये सार्वजनिक भवनों एवं परिवहन प्रणालियों को अभिगम्य बनाना है।
  • जागरूकता एवं संवेदनशीलता बढ़ाना: दिव्यांगजनों के अधिकारों एवं क्षमताओं के बारे में आम लोगों में जागरूकता बढ़ाने और उन्हें संवेदनशील बनाने तथा दिव्यांगों से जुड़ी भ्रांतियों एवं गलत धारणाओं को दूर करने की आवश्यकता है।
    • दिव्यांगजनों की प्रतिभा एवं उपलब्धियों को प्रदर्शित कर सकने वाले विभिन्न अभियान, कार्यशाला, सेमिनार और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन के माध्यम से और उन्हें निर्णयकारी एवं नेतृत्वकारी भूमिकाओं में संलग्न करने के माध्यम से ऐसा किया जा सकता है।
    • मीडिया और शिक्षा प्रणाली भी दिव्यांगजनों की सकारात्मक एवं सम्मानजनक छवि के निर्माण और समावेशन एवं विविधता की संस्कृति को बढ़ावा देने में भूमिका निभा सकती है।
  • कानूनी और नीतिगत समर्थन को सुदृढ़ करना: दिव्यांगजनों की सुरक्षा एवं सशक्तीकरण के लिये कानूनी और नीतिगत ढाँचे को सुदृढ़ करने तथा इसके प्रभावी कार्यान्वयन एवं प्रवर्तन को सुनिश्चित करने की आवश्यकता है।
    • सरकार को दिव्यांगजनों हेतु क्रियान्वित कल्याणकारी योजनाओं और कार्यक्रमों के लिये पर्याप्त संसाधन एवं धन आवंटित करना चाहिये तथा उनके परिणामों एवं प्रभाव की निगरानी करनी चाहिये।
    • सरकार को दिव्यांगजनों को प्रभावित करने वाले कानूनों एवं नीतियों के निर्माण एवं समीक्षा में दिव्यांगजनों और उनके संगठनों की भागीदारी एवं परामर्श को भी सुनिश्चित करना चाहिये।
    • सरकार को दिव्यांगजनों के मुद्दों और शिकायतों से निपटने के लिये न्यायपालिका, पुलिस एवं प्रशासन की जागरूकता एवं क्षमता बढ़ाने की दिशा में भी प्रयास करना चाहिये।
  • ज़मीनी स्तर पर क्षमता निर्माण: सरकारी नीतियों और उनके लक्षित लाभार्थियों के बीच के अंतराल को दूर करने के लिये ज़मीनी स्तर पर क्षमता निर्माण की आवश्यकता है।
    • समुदाय के नेता दिव्यांगजनों के अधिकारों एवं लाभों का पक्षसमर्थन करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और इन पहलों के प्रभावी कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिये उनका प्रशिक्षण आवश्यक है।
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