मानहानि कानून और सांसदों की अयोग्यता का क्या मामला है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

एक सांसद (संसद सदस्य) को सूरत न्यायपालिका द्वारा अन्य राजनीतिक नेता के बारे में की गई टिप्पणी पर वर्ष 2019 के मानहानि मामले में दो वर्ष के कारावास की सज़ा सुनाई गई है।

  • मानहानि के उक्त प्रकरण में भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 499 और 500 के तहत मामला दर्ज किया गया था।

भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 499 एवं 500:

  • आईपीसी की धारा 499 में विस्तार से बताया गया है कि शब्दों के माध्यम से मानहानि कैसे हो सकती है- फिर वह चाहे बोलने या पढ़ने, संकेतों अथवा दृश्य प्रस्तुतियों के माध्यम से हो।
    • यह या तो व्यक्ति की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुँचाने के लिये उस व्यक्ति के बारे में प्रचारित किया या बोला जाता है या ऐसा इरादतन किया जाता है कि उक्त आरोप उसकी प्रतिष्ठा को नुकसान पहुँचाएगा।
  • आपराधिक मानहानि का दोषी पाए जाने पर धारा 500 के तहत ज़ुर्माने के साथ या बिना ज़ुर्माने के दो वर्ष तक के कारावास का प्रावधान है।

मानहानि:

  • परिचय:
    • मानहानि किसी व्यक्ति के बारे में झूठे बयानों को प्रचारित करने का कार्य है जो कि उस व्यक्ति की प्रतिष्ठा को आघात पहुँचाता है, जबकि आमजन में इसे साधारण नज़रिये से देखा जाता है।
    • जान-बूझकर किसी की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुँचाने के इरादे से प्रचारित या बोला गया कोई भी झूठ और गैर-कानूनी बयान मानहानि की दृष्टि से देखा जाता है।
      • मानहानि के इतिहास का पता रोमन कानून और जर्मन कानून में लगाया जा सकता है। रोमन कानून में अपमानजनक टिप्पणी पर मौत की सज़ा का प्रावधान था।
  • भारत में मानहानि कानून:
    • संविधान का अनुच्छेद 19 नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान करता है। हालाँकि अनुच्छेद 19 (2) ने इस स्वतंत्रता संबंधी कुछ सीमाएँ भी निर्धारित की हैं जैसे- न्यायालय की अवमानना, मानहानि और अपराध के लिये उकसाना।
    • भारत में मानहानि सार्वजनिक रूप से गलत और दंडनीय अपराध दोनों हो सकता है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि उससे किस उद्देश्य को हासिल करने का प्रयास किया जा रहा है।
      • सार्वजनिक रूप से की गई गलती वह गलती है जिसका निवारण मौद्रिक मुआवज़े के साथ किया जा सकता है, जबकि दंडनीय अपराध के मामले में आपराधिक कानून किसी गलत काम करने वाले को दंडित कर अन्य को ऐसा कार्य नहीं करने का संदेश देता है।
      • दंडनीय अपराध में मानहानि को संदेह से परे होना चाहिये, लेकिन एक सिविल मानहानि के मुकदमे में संभावनाओं के आधार पर हर्ज़ाने का प्रावधान किया जा सकता है।
  • अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाम मानहानि कानून:
    • इस बात पर प्रायः तर्क होता रहता है कि मानहानि कानून संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत गारंटीकृत मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।
      • सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला किया कि मानहानि के आपराधिक प्रावधान संवैधानिक रूप से मान्य हैं और यह स्वतंत्र भाषण के अधिकार का उल्लंघन नहीं है।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी फैसला सुनाया कि मानहानि को सार्वजनिक रूप से गलत मानना वैध है और यह कि आपराधिक मानहानि अनुचित रूप से मुक्त भाषण को प्रतिबंधित नहीं करती है क्योंकि अच्छी प्रतिष्ठा बनाए रखना एक मौलिक और मानव अधिकार दोनों है।
    • न्यायालय ने अन्य देशों के निर्णयों पर भरोसा करते हुए अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार के हिस्से के रूप में प्रतिष्ठा के अधिकार की पुष्टि की।
      • ‘मौलिक अधिकारों के संतुलन’ के सिद्धांत का उपयोग करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि वाक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को “इतना बढ़ावा नहीं दिया जा सकता है कि किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा, जो कि अनुच्छेद 21 का एक घटक है, को ठेस पहुँचे”।

मानहानि संबंधी पूर्व निर्णय:

  • महेंद्र राम वनाम हरनंदन प्रसाद (1958): वादी को उर्दू में लिखा पत्र भेजा गया था। इसलिये उन्हें इसे पढ़ने हेतु किसी अन्य व्यक्ति की आवश्यकता थी। इस संदर्भ में यह माना गया कि चूँकि प्रतिवादी जानता था कि वादी उर्दू नहीं जानता है और उसे सहायता की आवश्यकता होगी, इसलिये प्रतिवादी का कार्य मानहानि के समान है।
  • राम जेठमलानी वनाम सुब्रमण्यम स्वामी (2006): दिल्ली उच्च न्यायालय ने डॉ. स्वामी को यह कहकर राम जेठमलानी की मानहानि करने हेतु दोषी ठहराया कि उन्होंने तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री को राजीव गांधी की हत्या के मामले से बचाने हेतु एक प्रतिबंधित संगठन से धन प्राप्त किया था।
  • श्रेया सिंघल वनाम भारत संघ (2015): यह इंटरनेट मानहानि के संबंध में एक ऐतिहासिक निर्णय है। इसने सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की असंवैधानिक धारा 66A को शामिल किया, जो संचार सेवाओं के माध्यम से आपत्तिजनक संदेश भेजने हेतु दंडित करती है।

विधायक/सांसद के दोषी होने की स्थिति में:

  • दोषसिद्धि एक सांसद को अयोग्य घोषित कर सकती है यदि जिस अपराध हेतु उसे दोषी ठहराया गया है वह जनप्रतिनिधित्त्व (Representation of the People- RPA) अधिनियम 1951 की धारा 8 (1) में सूचीबद्ध है।
    • धारा 153A (धर्म, नस्ल, जन्म स्थान, निवास, भाषा आदि के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच शत्रुता को बढ़ावा देना और सद्भाव के प्रतिकूल कार्य करना) या धारा 171E (रिश्वतखोरी) या धारा 171F (किसी चुनाव में अनुचित प्रभाव या प्रतिरूपण का अपराध) तथा कुछ अन्य इस खंड में शामिल हैं।
  • RPA की धारा 8(3) में कहा गया है कि यदि किसी सांसद को दोषी ठहराया जाता है और कम-से-कम 2 वर्ष के कैद की सजा सुनाई जाती है तो उसे अयोग्य ठहराया जा सकता है।
    • हालाँकि इस धारा में यह भी कहा गया है कि अयोग्यता दोषसिद्धि की तारीख से “तीन महीने बीत जाने के बाद” ही प्रभावी होती है।
    • इस अवधि के भीतर सज़ायाफ्ता सांसद सज़ा के खिलाफ उच्च न्यायालय में अपील दायर कर सकता है।

निष्कर्ष:

 

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