आखिर 72 साल में भी चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति का कानून क्यों नहीं बना?

आखिर 72 साल में भी चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति का कानून क्यों नहीं बना?

०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
PETS Holi 2024
previous arrow
next arrow
०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
PETS Holi 2024
previous arrow
next arrow

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

भारत में चुनाव सुधारों पर लंबे समय से बहस चलती रही है लेकिन यह सुधार इसलिए नहीं हो पाये क्योंकि जिस संस्था पर चुनाव कराने की जिम्मेदारी है उसे कभी ज्यादा अधिकार दिये ही नहीं गये। यही नहीं, हर सरकार द्वारा अधिकारियों को चुनाव आयुक्त जैसे महत्वपूर्ण पद पर उस समय नियुक्त किया जाता है जब उसकी सेवानिवृत्ति का समय नजदीक हो। इसके चलते किसी भी चुनाव आयुक्त को अपनी योजनाओं को मूर्त रूप देने के लिए पर्याप्त समय ही नहीं मिल पाता।

देखा जाये तो भारत में चुनाव सुधार से जुड़े मुद्दे चुनावों से पहले उठते जरूर हैं लेकिन चुनाव बाद सबकुछ शांत हो जाता है। यह भी देखने को मिलता है जब कोई दल विपक्ष में होता है तो उसे चुनाव सुधारों की बहुत परवाह रहती है लेकिन सत्ता में आते ही उसके लिये यह फिजूल का मुद्दा हो जाता है या उसकी प्राथमिकता सूची से गायब हो जाता है। लेकिन अब देश के सर्वोच्च न्यायालय ने इस मुद्दे को उठाया है इसलिए उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार अब चुनाव सुधारों की दिशा में आगे बढ़ेगी।

सुधारों की बात की जाये तो सबसे बड़ा सुधार तो पहले चुनाव आयोग में ही करना होगा क्योंकि साल 2004 से किसी मुख्य निर्वाचन आयुक्त ने छह साल का कार्यकाल पूरा नहीं किया है। संप्रग सरकार के 10 साल के शासन में छह मुख्य निर्वाचन आयुक्त रहे, वहीं राजग सरकार के आठ साल में आठ मुख्य निर्वाचन आयुक्त रहे हैं। इसलिए सरकारों की कार्यशैली और सोच पर अदालत ने सवाल उठाया है।
अदालत ने सरकारों की ओर से निर्वाचन आयुक्तों और मुख्य निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति के लिए कोई कानून नहीं होने का फायदा उठाये जाने की प्रवृत्ति को तकलीफदेह करार दिया है। साथ ही अदालत ने संविधान के अनुच्छेद 324 का उल्लेख करते हुए कहा है कि निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति के संबंध में संसद द्वारा एक कानून बनाने की परिकल्पना की गयी थी, लेकिन 72 साल गुजर गये और अब तक कानून नहीं बन पाया है जिसका फायदा सभी दलों की केंद्र सरकारें उठाती रही हैं।

 

इसके अलावा, पांच सदस्यीय संविधान पीठ का यह कहना भी अपने आप में बहुत गंभीर है कि संविधान की चुप्पी को भुनाया जा रहा है। अदालत ने टीएन शेषन जैसे कड़े रुख वाले व्यक्ति की निर्वाचन आयुक्त पद पर नियुक्ति की वकालत करते हुए यह भी कहा है कि संविधान ने मुख्य निर्वाचन आयुक्त और दो निर्वाचन आयुक्तों के ‘नाजुक कंधों’ पर बहुत जिम्मेदारियां सौंपी हैं इसलिए मुख्य चुनाव आयुक्त के तौर पर टीएन शेषन की तरह के सुदृढ़ चरित्र वाले व्यक्ति होने चाहिए।

जहां तक यह सवाल है कि अदालत ने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति मामले पर टिप्पणी क्यों की? तो हम आपको बता दें कि शीर्ष अदालत की संविधान पीठ कुछ याचिकाओं पर सुनवाई कर रही है जिसमें मुख्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम जैसी प्रणाली की मांग की गयी है। कहा जा रहा है कि यदि इस कॉलेजियम प्रणाली में देश के मुख्य न्यायाधीश भी शामिल हों तो सरकार पर कुछ अंकुश लग सकता है।

जहां तक इस मुद्दे पर सरकार के पक्ष की बात है तो आपको बता दें कि केंद्र की ओर से प्रस्तुत हुए अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमानी ने दलील दी है कि ‘‘संविधान सभा, जिसके समक्ष विभिन्न मॉडल थे, उसने इस मॉडल को अपनाया था और अब अदालत यह नहीं कह सकती कि मौजूदा मॉडल पर विचार करने की जरूरत है।”

बहरहाल, यह भी एक तथ्य है कि 1990 से विभिन्न वर्गों से निर्वाचन आयुक्तों समेत संवैधानिक निकायों के लिए कॉलेजियम जैसी प्रणाली की मांग उठती रही है और एक बार भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने भी अदालत को इसके लिए पत्र लिखा था। देखना होगा कि अब इस मुद्दे पर मोदी सरकार कितना आगे बढ़ती है।

हालांकि सही यही होगा कि अदालत कोई आदेश पारित कर सरकार को निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति संबंधी कोई कानून बनाने के लिए कहे। वरना सरकारें आती जाती रहेंगी और छोटे-छोटे कार्यकालों के साथ निर्वाचन आयुक्त भी आते जाते रहेंगे और चुनाव सुधार दिवास्वप्न बने रहेंगे।

Leave a Reply

error: Content is protected !!