क्या भारत के पास नारी शक्ति की समृद्ध परंपरा थी?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

भारतीय इतिहास, समाज एवं चेतना में पैबस्त द्रौपदी में रहस्यात्मक जटिलता है. वह मानवीय अनुभव की द्वैध प्रतीक है- वह स्त्रैण, करुणामयी और उदार है, पर अपने साथ अनुचित होने पर वह प्रतिरोध की क्षमता भी रखती है. महाभारत में जो अपमान उसके साथ हुआ, वह हृदयविदारक है. उस परिघटना की गूंज पूरे महाभारत में और बाद में भारतीय समाज और इतिहास में बनी रही.

वैसी स्थिति में उसके प्रतिरोध से कुछ निष्कर्ष निकलते हैं. पहला, अपने साथ हुए अन्याय की जो निंदा उन्होंने शब्दों में की है, वह अभूतपूर्व है. राजदरबार में, जहां उसके साथ अन्याय हुआ था, द्रौपदी ने बड़ों एवं दरबारियों के सामने निर्भय होकर उनके उत्तरदायित्व को याद दिलाया, जो चुपचाप बैठे हुए थे. अपने शब्द कौशल से उसने दरबार के लोगों के राजा धृतराष्ट्र और राजकुमार दुर्योधन के प्रति समर्पण को रेखांकित किया तथा उसके बरक्स उनके नैतिक व नीतिगत कर्तव्य को सामने रखा.

भारत के पास नारी शक्ति की समृद्ध परंपरा थी, जिसकी अभिव्यक्ति मेधा एवं साहस तथा व्यवस्था में बुराई व दोष को चुनौती देने के माध्यम से हुई. महाभारत में द्रौपदी (पांचाली) भारतीय इतिहास में एक मौलिक नारीवादी उपस्थिति है, जो अपने सतत प्रतिरोध के लिए प्रसिद्ध है. भारतीय संस्कृति में नारीवाद के और भी उदाहरण हैं.

रामायण की सीता में भी स्त्रीवादी आदर्श हैं, जो अधिक महीन हैं. एकल माता के प्रारंभिक उदाहरणों में एक सीता ने पारंपरिक लैंगिक भूमिकाओं को चुनौती दी, हालांकि उनके चरित्र को अक्सर अधिक अनुवर्ती दृष्टि से देखा जाता है. प्राचीन भारत में स्त्रियों द्वारा सीमाओं को तोड़ना अपवाद नहीं, बल्कि सामान्य परिघटना थी. इतिहास में स्त्रियों ने गणितज्ञ, दार्शनिक और वैदिक साहित्य की विदुषी के रूप में अपनी छाप छोड़ी है.

यह बात इस समझ को चुनौती देती है कि नारीवाद एवं लैंगिक समानता पश्चिम से आयातित हैं. यह कहना निहायत अनुचित है कि भारत ने इन अवधारणाओं को पश्चिम से ग्रहण किया है. सच तो यह है कि भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत में सशक्त महिलाओं की सुदीर्घ परंपरा है, जिन्होंने समाज में महत्वपूर्ण योगदान दिया है.

ऐसे आख्यानों को बार-बार कहने, उनकी पुनर्कल्पना और पुनर्रचना करने की आवश्यकता है. वे कथाएं और स्त्री चरित्र पितृसत्ता की पीड़िता बन गयीं और उन्हें परंपरा के सुविधाजनक आवरण तक सीमित कर दिया गया और अति प्रतिगामी बना दिया गया. प्रभावशाली व्यक्तिगत कथाओं के बावजूद हमारे पौराणिक आख्यानों के महिला चरित्रों को बहुत हद तक अनदेखा किया गया है. दुर्भाग्य से पौराणिक आख्यानों की पूर्वाग्रहयुक्त व्याख्या ने एक प्रकार से हमारे समाज की स्त्रियों के बारे में हमारी समझ को गढ़ा है.

लेकिन हम उन्हीं कथाओं का उपयोग कर विस्मृत या बिगाड़े गये चरित्रों को पुनः गढ़ सकते हैं और पूर्ववर्ती समझ की आलोचना के लिए उनका रचनात्मक उपयोग कर सकते हैं. दशकों से बहुत से भारतीयों ने पश्चिम से पहचान पाने की कोशिश में अपनी संस्कृति एवं अपने इतिहास को खारिज किया है. इससे ऐतिहासिक विस्मृति उत्पन्न हुई और जान-बूझकर उपेक्षा की स्थिति बनी, जिससे अपने सभ्यतागत अतीत की भारत की समझ पर असर पड़ा.

लोगों का शासन होने का विचार या न्याय एवं लैंगिक समानता की अवधारणा केवल पश्चिम के खाते में नहीं है. यह समझ तो और भी दोषपूर्ण है कि पश्चिमी चिंतकों द्वारा इन्हें बताने के पहले दुनिया को इन अवधारणाओं का पता ही नहीं था. भारत एवं अन्य कई सभ्यताओं ने इन अवधारणाओं पर लंबे समय तक विचार किया है तथा इनके विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है.

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