हिंदुओं में है जलसमाधि और दफनाने की परंपरा-महंत नरेंद्र गिरि.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

कोरोना की दूसरी लहर में गंगा नदी में उतराते और उसके किनारे दफनाए गए शवों को लेकर दुष्प्रचार करने वालों को हिंदू समाज की ही कई जातियों, पंथों और समुदायों की परंपरा पर भी नजर डालनी चाहिए। सदियों से कुछ समुदायों में शव को जलाने की जगह जल समाधि देने तो कुछ में भूसमाधि (दफन करने) देने की परंपरा रही है। गंगा नदी के किनारे शवों का एक सच यह भी है…

कानपुर में हिंदुओं के कब्रिस्‍तान

कानपुर में हिंदुओं के सैकड़ों वर्ष पुराने आठ कब्रिस्तान हैं। नजीराबाद थाने के सामने, ईदगाह में पुरानी रेलवे लाइन के पास, ज्योरा-ख्योरा नवाबगंज, बाकरगंज, जाजमऊ, हंसपुरम नौबस्ता, बगाही और मर्दनपुर के पास। ज्योरा-ख्योरा और ईदगाह रेलवे कालोनी स्थित हिंदू कब्रिस्तान तो करीब 200 साल पुराने हैं।

ऐसे हुई परंपरा की शुरुआत

वर्ष 1930 में अस्तित्व में आए नजीराबाद स्थित श्री 108 स्वामी अछूतानंद स्मारक (कब्रिस्तान) समिति के सचिव रमेश कुरील बताते हैं, ’91 साल पहले शहर में स्वामी अच्युतानंद (जो बाद में अपभ्रंश होकर अछूतानंद हो गया) के तमाम अनुयायी थे। एक बच्चे के अंतिम संस्कार के लिए गंगा तट पर पंडों के ज्यादा रुपये मांगने पर आहत होकर बिना अंतिम संस्कार कराए ही लौट आए। तत्कालीन ब्रिटिश हुकूमत के अफसरों से बातचीत कर नजीराबाद थाने के सामने की जगह हिंदुओं के शव दफनाने के लिए आवंटित कराई। पहले यहां अनुसूचित जाति के जाटव, कोरी, पासी, खटिक, धानविक, वर्मा, गौतम और रावत शव दफनाते थे। इसके बाद धीरे-धीरे पिछड़ों समेत दूसरी जातियों के विशेष पंथ व विचारधारा को मानने वाले लोग शव दफनाने लगे।’

पांच-छह सौ साल पुरानी है परंपरा

रमेश बताते हैं, ‘अनुसूचित जाति में शव दफनाने की परंपरा पांच-छह सौ साल पुरानी है। गंगा तट पर रेती में इक्का-दुक्का शव दफनाए जाते रहे, लेकिन पानी अधिक होने से कभी चर्चा नहीं हुई। तमाम लोग तो खेतों पर दफनाते हैं।’ अछूतानंद कब्रिस्तान में शव दफनाने वाले तीसरी पीढ़ी के लाला बताते हैं कि उनके बाबा सुबराती और पिता वशीर अहमद यही काम करते रहे हैं।

यहां भी दफनाने की परंपरा

कानपुर के पास ही उन्नाव में गंगातट के रौतापुर, बांदा में यमुना तट के गुलौली में 30 साल से यह परंपरा है। गाजीपुर जिले में गंगा से करीब सात किमी दूर सदर ब्लाक के कटैला ग्रामसभा स्थित चकजाफर गांव में अनुसूचित जाति के कुछ लोगों का शव कब्रिस्तान में दफनाया जाता है। हाल ही में गांव के दीनानाथ को दफनाया गया था।

बिश्नोई समुदाय भी दफनाता है शव

राजस्थान और उससे सटे हरियाणा व पंजाब के इलाकों में बसे बिश्नोई समुदाय के लोग शवों की अंत्येष्टि उन्हें मिट्टी में दबाकर करते हैं। तर्क है कि ऐसा करने से लकड़ी के लिए पेड़ या उनकी शाखाएं नहीं काटनी पड़ेंगी और पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचेगा।

भू-समाधि को विशिष्ट मानता है जनजातीय समुदाय

छत्तीसगढ़ में 65 फीसद आदिवासी बहुल क्षेत्र दक्षिण बस्तर के मुरिया, भतरा, माडि़या, धुरवा और दोरली में मृत्यु के बाद शव को भूसमाधि देने की परंपरा है। समाधि स्थल बसाहट क्षेत्र के निकट नदी-नालों से थोड़ी दूरी पर होता है। यहां लकड़ी या पत्थर का मृतक स्तंभ भी गाड़ा जाता है ताकि स्वजन की स्मृति बनी रहे। छत्तीसगढ़ सर्व आदिवासी समाज के उपाध्यक्ष एवं बस्तर संभाग के अध्यक्ष प्रकाश ठाकुर का कहना है कि यह विशिष्ट परंपरा है। इससे कई उद्देश्य पूरे होते हैं। शव को दफन करने से प्रदूषण नहीं होता और यह कम खर्चीला भी है। हालांकि बीमारी या दुर्घटना में मौत के बाद शव जलाने की भी परंपरा है।

कई पंथों में शव दफनाने की परंपरा

संत रविदास के अनुयायी, शिव नारायण पंथ, कबीर पंथ, तकरीबन सभी जातियों में बच्चे, अविवाहित, बिना जनेऊ (यज्ञोपवीत संस्कार) वाले व संत-महात्माओं के शव दफनाए जाते हैं।

जलसमाधि का भी रिवाज

उप्र के गाजीपुर जिले के मलिकपुर, दौलतपुर, ककरहीं, हथौड़ा, ईशोपुर, रामपुर, रायपुर आदि गांवों में मृतकों को जलसमाधि दी जाती है। कुछ जगहों पर शव को मुखाग्नि देने के बाद जल डालकर आग बुझा देते हैं। इसके बाद शव को पत्थर या गगरी से बांधकर जलसमाधि दे दी जाती है।

यह भी वजह

  • गरीबी के कारण दाह संस्कार में लकड़ी समेत दूसरी सामग्री खरीदने की क्षमता नहीं।
  • दफन करने में सिर्फ 300 से 500 रुपये का खर्च, जलाने में दो से ढाई हजार।

सवाल उठाना गलत

अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरि कहते हैं कि हिंदुओं में पार्थ‍िव शरीर को जलाने के साथ दफनाने व जल में प्रवाहित करने की परंपरा सृष्टि निर्माण काल से चली आ रही है। गंगा के घाट के पास पार्थ‍िव शरीर हमेशा दफनाए जाते हैं, उस पर प्रश्न उठाना गलत है।

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