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हम कानून से कब तक दूर भागेंगे,क्यों?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

देश की सर्वोच्च अदालत राजद्रोह कानून की फिर से व्याख्या करने जा रही है। यह खासा महत्वपूर्ण है कि  औपनिवेशिक युग के जिस कानून को खुद ब्रिटेन ने अपने यहां निरस्त कर दिया, उसको अब तक भारत में किसी भी सरकार ने रद्द नहीं किया, उल्टे इनमें से प्रत्येक ने इसका इस्तेमाल ही किया। जबकि, राजद्रोह कानून देश के उन तमाम कानूनों का शीर्षस्थ सिरा है, जिस पर नए सामाजिक नजरिए से विश्लेषण की जरूरत है। हममें से ज्यादातर लोग यही मानते हैं कि कानून का पालन करने वाले हम अच्छे नागरिक हैं।

कानून सर्वोच्च सार्वजनिक और निजी भलाई को ध्यान में रखकर बनाए जाते हैं। हम उन सभी कानूनों के पालन का प्रयास करते हैं, जिनके बारे में हम जानते हैं। ऐसा करने से हम एक ऐसे समाज का हिस्सा बन जाते हैं, जो कानूनों द्वारा न्यायपूर्वक शासित होता है। हम जेल के जन-जीवन की नहीं सोचते, क्योंकि हम मानते हैं कि हम ऐसा कुछ करने की कल्पना भी नहीं कर सकते, जो हमें सलाखों के पीछे पहुंचा दे। और अगर गलती से हम फंस गए, तो निश्चय ही किसी दूसरे रास्ते से बच निकलेंगे! क्योंकि, जेल हमारे लिए नहीं, दूसरों के लिए हैं।

क्या इन सभी धारणाओं पर फिर से विचार करने का समय आ गया है? सतही तौर पर देखें, तो हमारे कई कानूनों में अपराध के हिसाब से सजा या जेल का प्रावधान नहीं है। कई कानून तो लोक-व्यवस्था की जिम्मेदारी राष्ट्र और उसके तंत्र के बजाय नागरिकों और उनके व्यवहार पर डाल देते हैं। दुखद है, ऐसे कई कानून बिना विधायी बहस के पारित हुए हैं। जैसे, क्या आपको पता है कि पालतू कुत्ते को यदि आप ठीक से नहीं घुमाते, तो आपको गिरफ्तार किया जा सकता है? इसमें अधिकतम तीन महीने की सजा मिल सकती है।

क्या आपको जानकारी है कि प्रतिबंधित धागे से पतंग उड़ाने पर दो साल की सजा हो सकती है? बिना बीमा वाली गाड़ी चलाने पर भी आप तीन महीने के लिए जेल जा सकते हैं? फिर भी, अधिकांश भारतीय नागरिक कानून-निर्माण या आपराधिक न्याय के मसलों पर संजीदगी नहीं दिखाते। दशकों, यहां तक कि सदियों से कायम कठोर और बेरहम कानूनों के अलावा कुछ नए नियम-कानून भी हैं, जो शासन को व्यापक अधिकार देते हैं। हां, सुखद यह है कि अभिव्यक्ति की आजादी और निजता के बहाने कुछ कानूनों पर गंभीर सार्वजनिक बहस हुई है।

ऐसी ही एक जीत आईटी ऐक्ट की धारा 66ए को असांविधानिक करार देने से हमें मिली थी। हालांकि, अभिव्यक्ति पर चोट करते ऐसे कई अन्य कानून अब भी मौजूद हैं, लेकिन सोशल मीडिया के व्यापक इस्तेमाल के कारण लोगों को ये कानून संभवत: बहुत ज्यादा असरंदाज होते नहीं महसूस होते। एक अन्य ताजा उदाहरण देखिए। सरकार ने महामारी के समुचित प्रबंधन के लिए आपदा प्रबंधन अधिनियम 2005 लागू किया। लेकिन यदि इसे सख्ती से लागू किया जाता, तो इसके कुछ प्रावधान शायद लाखों लोगों को हवालात की सैर करा देते। जैसे, कोविड-19 से जुड़ी फर्जी खबरों को फैलाना। इसमें वाट्सएप मैसेज भी शामिल है, जो बाद में यदि गलत साबित हो जाए, तो आपको एक साल तक की जेल हो सकती है।

इसी तरह, बिना किसी ठोस वजह से मास्क न पहनने पर भी एक साल तक की सजा तय है। जाहिर है, इनमें से कुछ कानूनों को लागू करना संभव नहीं है या फिर ये उन अधिकारियों की नजरों से दूर होंगे, जिनके पास गिरफ्तार करने का वैधानिक अधिकार है।
मगर यहां मसला इन कानूनों की मौजूदगी का है। और, परिस्थितियां कभी भी इस कदर बदल सकती हैं कि कोई व्यक्ति अनजाने में की गई गलती के लिए भी कहीं बड़ी मुश्किलें झेल सकता है। यहां मैंने जिन कानूनों का जिक्र किया है, उन सभी में गिरफ्तारी का प्रावधान है। तो क्या इस तरह के असंगत दंडनीय कानून बने रहने चाहिए? क्या पारित होने से पहले इनकी बेहतर ढंग से व्याख्या नहीं होनी चाहिए?

क्या ये उस उद्देश्य और मंशा (अमूमन लोक-व्यवस्था और सुरक्षा) को पूरा करते हैं, जिनके लिए इनको बनाया जाता है? हमारे पास इतने सुबूत नहीं हैं, जो साबित कर सकें कि कड़ी सजा से अपराध कम होते हैं। शोध तो यही बताते हैं कि कठोर कारावास का अंजाम आमतौर पर अपराधी द्वारा फिर से कहीं अधिक संगीन जुर्म किए जाने के रूप में सामने आता है। दूसरी ओर, संबल देने वाली न्याय-प्रणालियों के सुखद परिणाम दिख रहे हैं, जिनमें खुली जेल की व्यवस्था भी एक है।

क्या हम इस तरह के सुबूतों का इस्तेमाल अपनी दंडात्मक न्याय-प्रणाली को कहीं अधिक न्यायपूर्ण, मानवीय और प्रभावशाली बनाने के लिए कर सकते हैं? अब तक हम, यानी अभिजात वर्ग कानून-निर्माण और जेल सुधार पर गंभीर सार्वजनिक बहसों से बचते रहे हैं। चरणबद्ध लॉकडाउन ने हममें से कई लोगों को यह एहसास दिलाया होगा कि जेल की चारदीवारी में बंद होने वाले आखिर किस पीड़ा से गुजरते होंगे। लिहाजा, क्या हमारा समाज अब उन कानूनों पर गंभीर बहस कर सकता है, जिनसे किसी व्यक्ति को बहुत आसानी से अपराधी ठहरा दिया जाता है?

और इसके बाद, हम कहीं अधिक व्यापक मसले पर चर्चा कर सकते हैं, जिनमें हद से अधिक भरी जेलों (जिनमें 70 फीसदी कैदी संभवत: निर्दोष विचाराधीन हैं) में मानवाधिकारों के उल्लंघन सहित आपराधिक न्याय का मसला महत्वपूर्ण है। सर्वोच्च न्यायालय ने अब राष्ट्रद्रोह कानून को विमर्श के केंद्र में ला दिया है, जबकि महामारी ने आपदा प्रबंधन अधिनियम को। इसलिए यह वक्त सांसदों और विधायकों द्वारा गहन चर्चा करने का है कि कैसे एक बेहतर कानून एक बेहतर समाज का निर्माण सुनिश्चित कर सकता है।

आईटी ऐक्ट की धारा 66ए को रद्द करने में इसी तरह के विमर्श ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। रही बात भारत के कुलीन वर्ग की, तो वह हर आम सार्वजनिक सेवा से खुद को अलग रखता है, फिर चाहे वह शिक्षा हो, स्वास्थ्य देखभाल, परिवहन या बिजली। प्रदूषण और महामारी ने यह कड़वी सच्चाई बताई है कि दूषित हवा और खतरनाक कीटाणुओं से हम खुद को अलग नहीं कर सकते। बुरे कानून भी अपवाद नहीं हैं। हम इनसे कतई नहीं भाग सकते।

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