क्या कोल्‍ड वार-2, पिछड़ रहा है अमेरिका?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

युद्ध की क्या परिभाषा हो सकती है? इंसान को इंसान से बेपनाह नफरत सिखाने की पाठशाला। मानवता को दुत्कारने का खुला निरंकुश मंच। कितना अच्छा होता कि काश दुनिया के तमाम बड़े झगड़े प्रेम से सुलझाए जा सकते। तब दुनिया को बेमतलब खून खराबे की जरूरत नहीं होती।

फिर बात वहीं आ जाती है कि ऐसा होता तो क्या होता। मगर ऐसा हो रहा है कि रूस और यूक्रेन का झगड़ा उस मुकाम पर पहुंच चुका है जहां से शांति की बातें बकवास लगती है। ताइवान को लेकर चीन और अमेरिका के टशन में जापान ने भी दस्तक दे दी है। इतिहास के सबसे लंबे युद्ध की अगर बात की जाए तो शीत युद्ध का नाम आता है। हम इसे कूटनीति युद्ध कह सकते है। इसमें अप्रत्यक्ष रूप से लड़ाई लड़ी जाती है।

अमेरिका और सोवियत संघ के बीच 80 और 90 के दशक से पहले भी कई दशकों तक कोल्ड वॉर चला। अस्सी के दशक और आज के हालात पूरी तरह अलग हैं। तब विश्व पूरी तरह दो धड़ों में बंटा था और अमेरिका-रूस के इर्द-गिर्द दुनिया घूम रही थी। तब चीन की इतनी ताकत नहीं थी तब और अब में कई देशों के समीकरण भी पूरी तरह से बदल चुके हैं।

साल 1945 का वो दौर जब भीषण त्रास्दी लिए द्वितीय विश्व युद्ध समाप्ति की ओर बढ़ रहा था। क्रिमिया शहर में तीन देशों के नेता फ्रैंकलिन डी रूजवेल्ट, विन्सटन चर्चिल, जोसेफ स्टालिन एकट्ठा होते हैं। मकसद- यूरोप का पुनर्गठन। याल्टा सम्मेलन  जिसे 4 से 11 फरवरी 1 9 45 तक आयोजित किया गया और तीनों नेताओं ने इसमें शिरकत की।

सम्मेलन का उद्देश्य एक युद्ध-युद्ध शांति को आकार देना था जो न केवल एक सामूहिक सुरक्षा आदेश का प्रतिनिधित्व करता था बल्कि नाजी यूरोप के मुक्त लोगों को आत्मनिर्भरता देने की योजना थी। बैठक मुख्य रूप से युद्ध-टूटे यूरोप के राष्ट्रों की पुन: स्थापना पर चर्चा करने के लिए थी। लेकिन इसने विश्व को अमेरिका और सोवियत जैसे दो धड़ों में विभाजित कर दिया। जर्मनी चार हिस्सों में बंट गया। इन पर अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और रूस का कब्जा था। चार सालों के बाद विभाजन की ये खिंची रेखाएं और गहरी होती गई।

कई खेमें बंट गए। संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर के अनुच्छेद 15 में क्षेत्रीय संगठनों के प्रावधानों के अधीन उत्तर अटलांटिक संधि पर 12 देशों ने हस्ताक्षर किए थे। ये देश थे- फ्रांस, बेल्जियम, लक्जमर्ग, ब्रिटेन, नीदरलैंड, कनाडा, डेनमार्क, आइसलैण्ड, इटली, नार्वे, पुर्तगाल और संयुक्त राज्य अमेरिका।

अमेरिका ने सोवियत के खिलाफ इतना बड़ा गठबंधन बना लिया तो ऐसे में वो क्या कर रहा था। उसने 1955 में वारसा पैक्ट की स्थापना की। ये कॉम्युनिस्ट देशों का साझा सुरक्षा संगठन था। यह समझौता अल्बेनिया (1968 तक), बुल्गारिया, चेकोस्लोवाकिया, पूर्वी जर्मनी, हंगरी, पोलैंड, रोमानिया और सोवियत संघ के बीच हुआ।

साल 1961 के बाद 40 से भी ज्यादा देश अमेरिका के खेमे में चला गया वहीं 15 देश सोवियत के साथ हो लिया। साल दर साल खेमेबंदी बढ़ती गई। एक दूसरे के प्रभाव क्षेत्रों को प्रतिबंधित करना। अमेरिका और सोवियत ने सीधा लड़ाई तो नहीं लड़ी लेकिन दोनों के बीच प्रॉक्सी वॉर चलता ही रहा। 1950 का कोरियन वॉर, 1955 का वीयतनाम वॉर, 1960 का कॉन्गो संकट, 1967 का कॉम्बोडिया सिविल वॉर, 1977 का सोवियत अफगान वॉर।

इन युद्धों का एक ही मकसद होता था शासन में परिवर्तन लाना और कठपुतली नेताओं को गद्दी पर बिठाना। ये सारी चीजों सोवियत संघ और अमेरिका की तरफ से एक दूसरे के बीच चल रहे शह और मात के खेल के लिए चली गई। सोवियत संघ के विघटन के साथ ही 1991 में शीत युद्ध का अंत हो गया। लेकिन तीन दशक बाद इतिहास फिर से दोहराव की दहलीज पर खड़ा नजर आ रहा है।

वर्तमान दौर में विश्व के हालातों पर एक नजर डालते हैं। यूक्रेन युद्ध का दंश झेल रहा है, यूरोप बंटा हुआ नजर आ रहा है। लगभग यही आलम पूरे विश्व का नजर आ रहा है। जो कोल्ड वॉर के दौर के लौटने के संकेत दे रहा है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल की इसे जीत कौन रहा है?

यूक्रेन का युद्ध नई विश्व व्यवस्था को आकार दे रहा है?

यूक्रेन के साथ यूरोप के अमेरिका, कनाडा और उसके सहयोगी समेत कई सारे देश मौजूद हैं। जबकि रूस के साथ बेलारूस, चीन, नार्थ कोरिया, ईरान और अन्य देश हैं।  प्रत्येक खेमा दूसरे के आगे निकलने की कोशिश कर रहा है। दोनों देशों के नेता विभिन्न देशों की यात्रा कर रहे हैं और नए देश को अपने धड़े में शामिल करने की कोशिश में लगे हैं। मई के महीने में अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन क्वाड समिट में हिस्सा लेने के लिए टोक्यो पहुंचे। इसी महीने रूस के विदेश मंत्री लावरोव जीसीसी समिट में हिस्सा लेने के लिए रियाद के दौरे पर गए। जुलाई के महीने में बाइडेन ने सऊदी अरब और इजरायल का दौरा किया तो एक हफ्ते बाद ही पुतिन नई आर्थिक साझेदारी का इरादा लिए ईरान पहुंच गए। एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ वाली यात्राओं की फेहरिस्त काफी लंबी है।

जुलाई-अगस्त में रूस के विदेश मंत्री सरगेई लावरोव वियतनाम और म्यांमार में थे। वहीं यूएस सिक्रेटरी ऑफ स्टेट एंटनी ब्लिंकन कंबोडिया और फिलिपींस का दौरा कर रहे थे। जिसके बाद दोनों देशों के नेताओं की जोरआजमाइश अफ्रीकी देशों के बीच दिखी। लावरोव चार अफ्रीकी देशों इजिप्ट, इथोपिया, यूगांडा, रिपल्बिक ऑफ कॉन्गो को साधने की कोशिश में लगे थे। इधर ठीक एक दिन बाद ही ब्लिंकन साउथ अफ्रीका, रवांडा, डिमोक्रेटिक रिपल्बिक ऑफ कॉन्गो पहुंच गए। यूरोपीय देशों के नेताओं के ये दौरे नए शक्ति परीक्षण की बानगी नहीं तो और क्या है।

इसलिए इसे कोल्ड वॉर 2.0 कहा जा रहा है। ये भी साफ है कि अमेरिका इसे जीतने तो कतई नहीं जा रहा है। अमेरिकी की चमक फीकी पड़ती जा रही है। कई देश अमेरिका के साथ होने में हिचकिचा रहे हैं तो कई सीधे-सीधे इनकार करते नजर आ रहे हैं। ये देश बाइडेन के दबाव अभियान का विरोध कर रहे हैं और इसे मानने से इनकार भी करते दिख रहे हैं। शुरुआत सबसे पहले अरब देश से करते हैं।

पिछले कोल्ड वार में भारत ने गुट निरपेक्ष नीति अपनाई। लेकिन इस बार भारत मल्टी अलाइमेंट की नीति पर चल रहा है। जिसका असर भी नजर आने लगा है। मेक्सिको के राष्ट्रपति लोपेज ओब्राडोर ने विश्व शांति के लिए एक बड़ी पहल करने का प्रस्ताव दिया है। लोपेज चाहते हैं कि एक पंच वर्षीय शांति समझौते को लागू करने के लिए एक पैनल बनाया जाए और इस पैनल की अगुवाई भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी करें। राष्ट्रपति का सुझाव है कि इस पैनल में पोप फ्रांसिस एवं संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटरेस को भी सदस्य के रूप में शामिल किया जाए। संदेश एकदम सीधा और साफ है। ये 20वीं सदी नहीं है, और वक्त काफी बदल चुका है। अमेरिका किसी भी देश को अब साथ देने के लिए ब्लैकमेल नहीं कर सकता है।

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