क्या हिंदुओं को ‘बांटने’ की साजिश है जातिगत गणना है?

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विपक्ष में जब पार्टियां होती हैं तो जातिगत जनगणना को मुद्दा बनाती हैं।

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

देश का दुर्भाग्य है कि 21वीं सदी में भी हम जातिवाद में उलझे हुए हैं। एक तरफ समाज के सभी वर्गों में समानता लाने के लिए तमाम समाजसेवी संगठन मुहिम चला रहे हैं तो वहीं कई राजनैतिक दल वोट बैंक की सियासत के सहारे सत्ता सुख भोगने के लिए जातिगत जनगणना कराये जाने के लिए उतावले नजर आ रहे हैं।

उनको इस बात की चिंता नहीं है कि जातीय गणना कराया जाना किसी ‘विस्फोट’ से कम नहीं है। यह वह ‘आग’ है जिसमें उन लोगों के तो हाथ जलना तय ही है जो इसे लगा रहे हैं, वहीं वह भी इस ‘आग’ से नहीं बचेंगे जो तटस्थ रहेंगे। इससे समाज में भेदभाव को बढ़ावा मिलना तय है,

भले ही जातीय गणना का समर्थन करने वाले इसके तमाम फायदे गिनाते रहें, लेकिन इसके पीछे सत्ता हथियाने का खेल ही है। इस ‘खेल’ की बुनियाद तो काफी पहले पड़ गई थी, लेकिन जबसे भारतीय जनता पार्टी और खासकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ‘सबका साथ, सबका विकास’ का नारा देते हुए जातियों में बंटे हिन्दुओं को एकजुट करने की सफल मुहिम चलाई तो जातिवाद की राजनीति करने वाले दलों के नीचे से सत्ता खिसक गई। इसी के बाद हिन्दुओं को आपस में बांटने और लड़ाने का खेल फिर से शुरू हो गया। इसीलिए साजिश के तहत जातीय गणना कराई जा रही है।

बिहार, कर्नाटक मॉडल की तर्ज पर सूबे में जातीय गणना को अंजाम देगा। इस महाभियान पर सरकारी खजाने से 500 करोड़ रुपये खर्च किये जायेंगे जो 9 महीने के भीतर सूबे की 14 करोड़ की आबादी की जाति, उपजाति, धर्म और संप्रदाय के साथ ही उसकी आर्थिक सामाजिक स्थिति का भी आकलन करेगा।

इसके 14 साल बाद 2006 में जब केन्द्र में मनमोहन सिंह की सरकार थी, उनके मानव संसाधन विकास मंत्री अंर्जुन सिंह ने मंडल पार्ट-2 शुरू कर किया और इस मंडल आयोग की एक दूसरी सिफारिश को लागू कर दिया गया जिसमें सरकारी नौकरियों की तरह सरकारी शिक्षण संस्थानों, जैसे यूनिवर्सिटी, आईआईटी, आईआईएम, मेडिकल कॉलेज में भी पिछड़े वर्गों को आरक्षण दिए जाने पर मुहर लग गई।

इस बार भी विवाद हुआ लेकिन सरकार अड़ी रही और ये लागू हो गया। इसके चार साल के बाद 2010 में कांग्रेस गठबंधन वाली सरकार के ही शासनकाल में देश में जाति आधारित जनगणना की मांग उठने लगी। लालू प्रसाद यादव, शरद पवार, मुलायम सिंह यादव, गोपी नाथ मुंडे जैसे नेताओं ने खूब ज़ोर लगाकर इसकी मांग उठाई, हालांकि कांग्रेस इसके पक्ष में नहीं थी, लेकिन लालू यादव जैसे अपने सहयोगियों के दबाव में आकर कांग्रेस को जातीय गणना पर विचार करना पड़ा। प्रणव मुखर्जी की अगुआई में एक कमेटी बनी, इसमें जनगणना के पक्ष में सुझाव दिए गए। इस जनगणना का नाम दिया गया सोशियो यानी इकॉनॉमिक एंड कास्ट सेन्सिस।

सोशियो को पूरा करने में कांग्रेस ने 4800 करोड़ रुपये खर्च कर दिए। ज़िलावार पिछड़ी जातियों को गिना गया और इसका डाटा सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय को दिया गया। जिसके कई साल बाद तक इस डेटा पर बात नहीं हुई। 2014 में जब सरकार बदली और नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बने तब थोड़ी बहुत सुगबुगाहट ज़रूर हुई और जातीय जनगणना के डेटा के क्लासिफिकेशन के लिए एक एक्सपर्ट ग्रुप बनाया गया। इस ग्रुप ने रिपोर्ट दी या नहीं, इसकी जानकारी अब तक नहीं आई है। कुल मिलाकर मोदी सरकार ने भी जाति के आंकड़ों को जारी करना मुनासिब नहीं समझा।

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