भारत में LGBTQIA+ अधिकार एवं स्वीकृति कि क्या दशा है ?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

भारत में समलैंगिक संबंधों (Same-sex Relationships) को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 377 के तहत एक आपराधिक कृत्य माना जाता था, जहाँ ‘प्रकृति की व्यवस्था के विरुद्ध दैहिक संभोग’ को अपराध घोषित किया गया था।

  • वर्ष 2018 में देश के सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक निर्णय में LGBTQIA+ व्यक्तियों के अधिकारों को मान्यता देते हुए इस भेदभावपूर्ण कानून को निरस्त कर दिया।
  • हालाँकि इस प्रगति के बावजूद LGBTQIA+ समुदाय के साथ भेदभाव और इन्हें हाशिए पर बनाए रखना अब भी जारी है। विशेष रूप से ट्रांसजेंडर समुदाय के लोग स्वास्थ्य, शिक्षा एवं रोज़गार के अवसरों तक पहुँच रखने में उल्लेखनीय चुनौतियों का सामना कर रहे हैं और प्रायः अपने बुनियादी अधिकारों एवं गरिमा से वंचित हैं।
  • इस परिदृश्य में, LGBTQIA+ समुदायों के अधिकारों की पुनर्कल्पना करने के साथ ही उनके समक्ष विद्यमान चुनौतियों को एक अलग दृष्टिकोण से देखना और समावेशिता की ओर आगे बढ़ना महत्त्वपूर्ण है।

भारत में LGBTQIA+ की मान्यता संबंधी पृष्ठभूमि

  • वर्ष 1861 में ब्रिटिशों ने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के तहत प्राकृतिक व्यवस्था के विरुद्ध यौन गतिविधियों (सभी समलैंगिक गतिविधियों सहित) को आपराधिक कृत्य करार दिया।
  • वर्ष 1977 में शकुंतला देवी ने भारत में समलैंगिकता पर पहला अध्ययन ‘The World of Homosexuals’ शीर्षक से प्रकाशित कराया।
  • वर्ष 1994 में उन्हें कानूनी रूप से तीसरे लिंग या ‘थर्ड सेक्स’ के रूप में चिह्नित करते हुए मताधिकार प्रदान किया गया।
  • वर्ष 2014 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक निर्णय में बलपूर्वक कहा कि ट्रांसजेंडर लोगों को लिंग की तीसरी श्रेणी के रूप में मान्य किया जाना चाहिये।
  • वर्ष 2017 में एक अन्य निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने देश के LGBTQIA+ समुदाय को अपनी यौन उन्मुखता (Sexual Orientation) को सुरक्षित रूप से व्यक्त करने की स्वतंत्रता प्रदन की।
    • किसी व्यक्ति की यौन उन्मुखता को निजता के अधिकार (Right to Privacy) के तहत संरक्षित किया गया है।
  • 6 सितंबर 2018 को सर्वोच्च न्यायालय ने धारा 377 के उस अंश को निरस्त कर दिया जो सहमतिपूर्ण समलैंगिक गतिविधियों को अपराध घोषित करता था।
  • वर्ष 2019 में संसद ने ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम पारित किया जिसका उद्देश्य ट्रांसजेंडर व्यक्ति के अधिकारों, उनके कल्याण और अन्य संबंधित मामलों को संरक्षण प्रदान करना है।

भारत में LGBTQIA+ समुदाय के समक्ष विद्यमान प्रमुख चुनौतियाँ

  • सामाजिक भेदभाव: LGBTQIA+ व्यक्तियों को प्रायः अपने जीवन के विभिन्न पहलुओं, जैसे कार्यस्थल पर, आवासन और स्वास्थ्य देखभाल के मामले में भेदभाव का सामना करना पड़ता है।
    • इससे उनके लिये खुले तौर पर और सुरक्षित रूप से रहना कठिन बन सकता है। भेदभाव के कारण उनके लिये रोज़गार अवसरों की कमी की स्थिति बन सकती है और वे निर्धनता एवं बुनियादी आवश्यकताओं की कमी की ओर धकेले जा सकते हैं।
  • प्रतिनिधित्व का अभाव: LGBTQIA+ व्यक्तियों को प्रायः मीडिया, राजनीति और शासन में कम प्रतिनिधित्व प्राप्त होता है और वे समाज की मुख्यधारा में शामिल होने से वंचित रह जाते हैं।
    • इससे उनके लिये अपनी समस्याओं को अभिव्यक्त कर सकना और उनकी आवश्यकताओं को संबोधित करना कठिन बन सकता है। प्रतिनिधित्व की इस कमी से समुदाय के बारे में समझ और स्वीकृति की कमी की स्थिति बन सकती है।
  • मानसिक स्वास्थ्य समस्याएँ: LGBTQIA+ व्यक्ति प्रायः शारीरिक एवं मौखिक दुर्व्यवहार, डराने-धमकाने और उत्पीड़न जिसे घृणापूर्ण अपराधों (Hate Crimes) के शिकार होते हैं। इससे समुदाय में भय और असुरक्षा की भावना पैदा हो सकती है तथा उनका शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित हो सकता है।
  • ग्रामीण क्षेत्र के LGBTQIA+ समुदाय की मांगों का अनसुना रहना: शहरी LGBTQIA+ समुदाय की बात तो विभिन्न ऑनलाइन और वास्तविक दुनिया के मंचों के माध्यम से तो सुन ली जाती है।
    • लेकिन संसर्ग, सहजता और इंटरनेट कनेक्टिविटी की कमी के कारण ग्रामीण क्षेत्रों के LGBTQIA+ लोगों को अपनी भावनाओं को दबाने के लिये विवश होना पड़ता है। पारंपरिक विवाह आदि संस्थाओं में प्रवेश से इनकार करने पर उन्हें और अधिक शारीरिक उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है।
  • बेघर होना: अधिकांश बेघर LGBTQIA+ युवा वे होते हैं जिन्हें समलैंगिक होने के कारण उनके घरों से निकाल दिया जाता है या वे एक अपमानजनक परिदृश्य से बचने के लिये घर से भाग गए।
    • इस प्रकार जीवन के आरंभिक विकास वर्षों के दौरान वे शिक्षा और सामाजिक समर्थन से चूक जाते हैं। किसी आर्थिक सहायता के अभाव में वे प्रायः नशीली दवाओं के उपयोग और जोखिमपूर्ण यौन व्यवहार में संलग्न हो जाते हैं।
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