भारतीय समाजवाद के जनक आचार्य नरेन्द्र देव जी की 133वीं जन्म जयंती है।

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

भारतीय समाजवाद के जनक आचार्य नरेन्द्र देव जी की इस साल 133वीं जन्म जयंती है। उनका असली नाम अविनाशी लाल था, जिसे बदलकर पंडित माधव प्रसाद मिश्र ने नरेन्द्र देव रख दिया। नरेन्द्र देव को पहले काशी विद्यापीठ के उपाध्यक्ष और सन्  1926 में भगवान दास जी के इस्तीफे के बाद काशी विद्यापीठ के अध्यक्ष( कुलपति) बनाया गया। काशी विद्यापीठ के ही श्रीप्रकाश जी ने पहली बार उन्हें आचार्य कहकर संबोधित किया,जो बाद में उनके नाम के साथ स्थाई रूप से जुड़ गया।

कम लोग जानते हैं कि 20 अगस्त, 1944 को इंदिरा गांधी पहली बार मां बनीं, तो आचार्य ने पंडित नेहरू के अनुरोध पर उनके शिशु का नाम राजीव गांधी रखा. लेकिन 1989 में राजीव गांधी ने केंद्र के स्तर पर आचार्य की जन्मशती मनाने के प्रस्ताव पर प्रधानमंत्री के रूप में कोई उत्साह नहीं प्रदर्शित किया. प्रस्तावकों को शिक्षा मंत्री शीला कौल के पास भेज दिया, जिन्होंने कह दिया कि बेहतर हो कि वे उत्तर प्रदेश सरकार से संपर्क करें.

आचार्य जी क्वींस कॉलेज काल में अध्ययन के दौरान डॉ वेनिस और प्रो. नारमन जैसे विद्वानों के सम्पर्क में थे और उनसे संस्कृत, प्राकृत-पाली  और फ्रेंच-जर्मन भाषाओं का गंभीर अध्ययन किया। इस अध्ययन का ही परिणाम था कि अहमदनगर जेल में (सन् 1942-45) में बंदी के दौरान लुई द ला वाले पुसें के फ्रेंच में लिखित बौद्ध विद्वान वसुबंधु की रचना ‘अभिधर्मकोष’ का हिन्दी में अनुवाद किया।

पुसे ने ‘ अभिधर्म कोष’ का चीनी भाषा से फ्रेंच में अनुवाद किया था। इस जेल बन्दी के दौरान ही जवाहरलाल नेहरू की प्रसिद्ध पुस्तक ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ का लेखन भी सम्पन्न हुआ। इस पुस्तक लेखक ने नरेन्द्र देव के महत्वपूर्ण सुझावों के लिए धन्यवाद ज्ञापन भी किया है।इसके पहले ‘बौद्ध धर्म दर्शन’ पर एक महत्वपूर्ण पुस्तक आचार्य नरेन्द्र देव लिख चुके थे।वे शिक्षा-लेखन और राजनीति से आजीवन जुड़े रहें।
काशी विद्यापीठ, लखनऊ विश्वविद्यालय और बाद में काशी हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति पद को उन्होंने सुशोभित किया। वे प्रायः कहा करते थे कि- ‘यही मेरी पूंजी है और इसी के आधार पर मेरा राजनीतिक कारोबार चलता है’।

प्रो. नारमन के सम्पर्क में आने के बाद बौद्ध धर्म और दर्शन के गम्भीर अध्ययन के प्रति उनकी रुचि बढ़ी। फ्रांस की क्रांति (सन्1789) और रूस की क्रांति (सन्1917) का उनके राजनीतिक चिन्तन पर विशेष प्रभाव पड़ा।

कार्ल मार्क्स के वैज्ञानिक साम्यवाद.  बौद्ध धर्म-दर्शन की नैतिकता और अध्यात्मिकता ने उनके समाजवादी चिन्तन और व्यक्तित्व को गहरे तक प्रभावित किया और यह उनके जीवन की हर गतिविधिधी में प्रत्यक्ष दिखायी भी देता था।समाजवादी राजनीत को नई दिशा और गति देने के लिए वे शारीरिक रुग्णता के बावजूद आजीवन सक्रिय रहे।

वे राजनीति में नैतिकता और करुणा के आग्रही रहे। राजनीति में नैतिकता की मिशाल पेश करते हुए आचार्य जी ने सोशलिस्ट पार्टी के गठन के समय सन् 1948 के सम्मेलन में न सिर्फ कांग्रेस पार्टी से सम्बन्ध विच्छेद किया, बल्कि विधानसभा की सदस्यता से भी इस्तीफा दे दिया। तब आचार्य जी के साथ बारह समाजवादी सदस्यों ने भी इस्तीफा दिया।उनके इस्तीफे से खाली उपचुनाव में आचार्य नरेन्द्र देव फैजाबाद से बाबा राघवदास से चुनाव हार गए।

इस हार ने तब के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को भी विचलित किया था। पर जानकरों का कहना है कि कांग्रेस ने इस जीत के लिए जिन धतकर्मों का सहारा लिया, उस हद तक आचार्य नरेन्द्र देव कभी सोच भी नहीं सकते थे। इस पृष्ठभूमि में आज की समाजवादी राजनीतिक नैतिकता को भी देखा जाना चाहिए,जब पूरी की पूरी सरकार रातोंरात बदल जा रही है और इस्तीफे देने की फर्ज अदायगी भी समाजवादी पृष्ठभूमि से आए राजनेता नहीं समझते।

नेहरू की आचार्य जी के प्रति सोच

देश में लोकसभा के पहले आम चुनाव (सन् 1952) में जवाहर लाल नेहरू ने मोरारजी देसाई को लिखे एक पत्र में अपनी मंशा जाहिर करते हुए लिखा कि-
जवाहरलाल नेहरू के इस विचार से कांग्रेस के नेता सहमत नहीं हुए। आचार्य जी के विरुद्ध मदन गोपाल को खड़ा किया गया। आचार्य जी इस चुनाव में भी हार गए। जिस कांग्रेस का जवाहरलाल नेहरु नेतृत्व कर रहे थे और आचार्य जी के प्रति जवाहरलाल नेहरू इतनी अगाध श्रद्धा थी,उस कांग्रेस के प्रति आचार्य नरेन्द्र देव के मन में कम से कम नीतिगत सवालों को लेकर कभी दुविधा नहीं रही।

सोशलिस्ट पार्टी के नासिक अधिवेशन में ही अपनी मंशा स्पष्ट करते हुए कहा कि-

मैं जानता हूं कि विपक्षी दल के उम्मीदवार को निर्विरोध चुनाव को स्वीकार करने में कठिनाई होगी, फिर भी मेरी सलाह है कि यदि नरेन्द्र देव चुनाव में खड़े होते है,तो उनके खिलाफ उम्मीदवार न खड़ा किया जाए।एक विद्वान और निश्छल व्यक्ति के रूप में उत्तर प्रदेश में उनकी इतनी प्रतिष्ठा है कि उनका विरोध करने से कांग्रेस की प्रतिष्ठा को ही धक्का लगेगा।
राजनीति में मित्र दुश्मन बन जाते हैं इसकी एक मिशाल सन् 1947 में सामने आया। कांग्रेस के नए अध्यक्ष का चुनाव होना था। महात्मा गांधी इस पद के लिए आचार्य नरेन्द्र देव को  इस पद का सर्वथा उपयुक्त उम्मीदवार मानते थे। कांग्रेस की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की  बैठक में महात्मा गांधी उपस्थित होकर जे बी कृपलानी से एक नोट के जरिए आचार्य नरेन्द्र देव का नाम प्रस्तावित करते है। पहले तो जवाहरलाल नेहरू गांधी जी के प्रस्ताव से सहमत हुए, पर बाद में पलट गए। वे राजेन्द्र प्रसाद को समर्थन करने लगे।

महात्मा गांधी ने गोविंद बल्लभ पंत के जरिए राजेन्द्र प्रसाद के पास यह  संदेश भेजवाया कि वे कांग्रेस का अध्यक्ष पद स्वीकार न करें। पर सवाल है कि क्या इसे महज संयोग कहा जा सकता है कि महात्मा गांधी का सन्देश राजेन्द्र प्रसाद तक पहुंच ही नहीं पाया। आज आप कल्पना करें कि तब कांग्रेस का नेतृत्व अचार्य नरेन्द्र देव जैसे कुशल हाथों में होता, तो आजादी के बाद भारत में सरकार और कांग्रेस संगठन की दशा-दिशा कैसी होती? तब शायद आचार्य जी के जरिए महात्मा गांधी की आत्मा भी कांग्रेस में जीवित रहती,और कांग्रेस को विर्सजित कर लोक सेवक संघ बनाने का सुझाव भी महात्मा गांधी को नहीं देना पड़ता।

 

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