पेड़ रोपण की परंपरा ही बचा पाएगी पृथ्वी को!

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 सांसों को सहेजने के लिए वृक्षारोपण है जरूरी,

अब तक के प्रयास रहे नाकाफी, जनसंकल्प से ही निकलेगा समाधान

विश्व पृथ्वी दिवस 22 अप्रैल पर विशेष आलेख

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

– गणेश दत्त पाठक
स्वतंत्र टिप्पणीकार

“सांसे ही तो ज़िन्दगी की आधार है। ऑक्सीजन ना हो तो फिर सांसों का क्या? हम अंधाधुंध वृक्षों को काटते जा रहे हैं। हमें इस गलती का खामियाजा भुगतना होगा।” आज से दस वर्ष पूर्व कहे गए वृक्ष मित्र स्वर्गीय सुंदर लाल बहुगुणा के ये शब्द आज अपनी प्रासंगिकता को साबित करते दिख रहे हैं। जब कोरोनावायरस जनित महामारी के दौर में सांसों की रक्षा के लिए भारी जंग लड़नी पड़ी। सारे संसाधनों को युद्धस्तर पर झोंक दिए जाने के बाद भी सांसों के लिए मानवता कराहती रही।

हमारे विकास के सारे दावे झूठे साबित हुए। कोरोना काल का यह सबक की प्रकृति की रक्षा से ही हमारी सुरक्षा संभव सदियों सदियों तक हमारा मार्गदर्शन करती रहेगी। हालांकि 22 अप्रैल को प्रतिवर्ष विश्व स्तर पर पृथ्वी दिवस की धूम रहेगी। देखना यह होगा कि क्या इस बार भी पृथ्वी दिवस सिर्फ एक रस्मादयागी भर रह जाएगी या कोरोना त्रासदी के सबक को याद करते हुए कुछ सार्थक और संवेदनशील पहल भी हो पाएंगे?

हमारी सनातन परंपरा में प्रकृति को विशेष सम्मान देने की प्रवृति विद्यमान रही है। सदियों से हमारे पुरखों ने प्रकृति को पूजा और उसके साथ सामंजस्य बनाकर स्वच्छ वातावरण में जिदंगी को चलाया। पिछले कुछ वर्षो में देखा जा रहा है कि व्यक्तिगत से लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पर्यावरण की अनदेखी का सिलसिला अनवरत चलता रहा। पर्यावरण सम्मेलन महज औपचारिकता के कलेवर में सिमटे रह गए तो कुछ शक्तिशाली राष्ट्रों के नुमाइंदों ने तो पर्यावरण मसलों पर सहमतियों की धज्जियां उड़ाते किसी तरह की रहम नहीं दिखाई।

कुछ मामलों में अमेरिका, ब्राज़ील जैसे राष्ट्रों ने पर्यावरण संबंधी मसलों पर गंभीर असंवेदनशीलता का प्रदर्शन किया। क्योटो प्रोटोकॉल सहित अन्य पर्यावरण संधियों को लेकर लापरवाही बरती गई। जलवायु परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिंग के दुष्परिणामों को देखते हुए भी सरकारें किसी आम सहमति पर पहुंचती नहीं दिखाई दी। जबकि संकट के बादल बाढ़ सूखा आदि प्राकृतिक आपदाओं की बारंबारता के रूप में दिखाई देते रहे। अभी भी पर्यावरण संबंधी मसले महज मंथन के मुद्दे तक ही सीमित रहे हैं। कार्बन उत्सर्जन की संकल्पना की अंगीठी पर सभी अपने अपने स्वार्थ की रोटियां सेंक रहे हैं। अभी पर्यावरण संबंधी कार्ययोजनाओं की आधारशिला बनने में कितना समय लगेगा यह तो भविष्य ही जनता हैं?

जनसामान्य के स्तर पर भी उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रसार ने पर्यावरण को तबाह करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। जीवन शैली के अप्राकृतिक स्वरूप का खामियाजा व्याधियों के रूप में भुगतने रहने केबावजूद भी मनोवृत्ति के स्तर पर कोई परिवर्तन कम से कम अभी तो दिखाई नहीं पड़ रहा है। कोरोनावायरस जनित महामारी के दौर में दहशत ने अधिकांश लोगों को कुछ प्राकृतिक तरीकों का अहसास कराया है लेकिन भारत में कोरोनावायरस के कोहराम के समय तो संजीदगी कुछ दिनों के लिए कायम रहती है लेकिन संक्रमण के दौर के गुजरने के बाद फिर हसरतें मचलती दिखाई देने लगती है। कोरोना काल का महान सबक यही है कि मानव प्राकृतिक तौर तरीकों को अंगीकार करे तथा प्रकृति के प्रति संवेदना का इजहार करते हुए पर्यावरण के प्रति अपने सरोकारों को ना भूले।

सौर ऊर्जा के विकास संबंधी प्रयास जहां कुछ उम्मीद बंधाते नजर आते हैं वहीं वृक्षारोपण और प्रदूषण नियंत्रण संबंधी कागजी दावे चिंता भी बढ़ाते हैं। जल जंगल हरियाली का मुद्दा अभी भी जनमत में अभी पैठ नहीं बना पाया है। जनमत में संवेदना नहीं जागृत होगी तो राजनीतिक इश्चाशक्ती का सवाल ही खड़ा होना मुश्किल होगा। सामाजिक वानिकी, कृषि वानिकी संबंधी मसले अभी कछुआ की चल चलते ही दिखाई दे रहे हैं। प्रदूषण संबंधी कानून, गतिविधियां अभी प्रशासनिक प्राथमिकताओं में दोयम दर्ज के स्तर पर सिमटी सिसकती दिखाई दे रही है। पराली मसले पर प्रांतीय सरकारों में तालमेल का अभाव दिल्ली जैसे शहरों को भट्टी बनने पर आमादा हैं तो फेफड़ों की खराब हालत वायरस के हमलों पर चीत्कार करती दिख जा रही है।

प्लास्टिक संस्कृति ने नदियों नालों को तबाह कर डाला है तो वेटलैंड्स अतिक्रमण के शिकंजे में फंसते जा रहे है। जैव विविधता के क्षरण के प्रयास अनवरत जारी है तो जंगलों के सिमटने की गति पर कोई लगाम भी नहीं लग पा रही है। वृक्षों का कटाव अनवरत जारी है तो समेकित जल और ऊर्जा प्रबंधन की बाते अभी बाते ही है। शाश्वत विकास की संकल्पना के प्रयास अभी सतही स्तर पर ही हैं। कुल मिलाकर प्रकृति की अवहेलना का मंजर अभी जारी है हैं।

फिर जब प्रकृति दस्तक दे रही है तो हम अनंत कराह का अनुभव कर रहे हैं। लॉक डाउन में प्रकृति के सजने संवारने से पता चलता है कि प्रयास अगर हो तो स्थिति में सुधार असंभव नहीं है । जरूरी नहीं कि दहशत की चाबुक से ही हमारे कदम आगे बढ़े। संचेतना और संवेदना से भी हम प्रकृति के सम्मान में अविरल प्रयासों की गंगा को बहाया जा सकता है। बस दरकार समन्वित और समर्पित प्रयासों की हैं ताकि हम प्रकृति के साथ सुमधुर सरगम के सुर को साध सकें।

पर हम देख चुके हैं कि राष्ट्रीय, अंतराष्ट्रीय स्तर पर के प्रयास अभी तक पर्यावरण संरक्षण के लिए नाकाफी रहे। इसलिए समय की मांग है कि अब प्रकृति की रक्षा हेतु जनप्रयास को अमली जामा पहनाया जाए। यदि हम अपनी परंपराओं में कुछ विशेष प्रवृतियों को शामिल कर लें तो पर्यावरण के संरक्षण और संवर्धन के मसले पर बड़ी मिसाल कायम हो सकती है। जैसे पारिवारिक आयोजनों पर कुछ संख्या में वृक्षों को लगाने की प्रथा विकसित की जाए। दोस्तों, रिश्तेदारों को उपहार के रूप में पौधों को लगाने की प्रथा विकसित की जा सके। घर में हर बच्चे के जन्म पर वृक्षारोपण की परंपरा विकसित की जा सके तो काफी बेहतर परिणाम मिलेंगे।

निश्चित तौर पर इन परंपराओं को विकसित करने में सामाजिक, धार्मिक संगठनों की विशेष भूमिका होगी और सरकार को पौधों की सस्ती उपलब्धता के प्रयास करने होंगे। निजी तौर पर अगर जगह उपलब्ध ना हो तो सार्वजनिक स्थल पर वृक्षारोपण की व्यवस्थाएं बनाई जा सकती है। परंपरा के आधार पर विकसित वृक्ष पर्यावरण की रक्षा में वो करतब दिखा जाएंगे, जिसकी अभी तक कमी खलती रही है।

 

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