तो दो वक्‍त की रोटी को तरसेंगे लोग, दुनिया के हर पांच में से एक देश का इकोसिस्‍टम ध्‍वस्‍त.

तो दो वक्‍त की रोटी को तरसेंगे लोग, दुनिया के हर पांच में से एक देश का इकोसिस्‍टम ध्‍वस्‍त.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

बेमौसम बरसात, अबूझ पहेली जैसी मौसम की चाल और महामारी की मार, इन सबके तार एक बिंदु पर आकर जुड़ जाते हैं, वह है जलवायु परिवर्तन। हर छोटी-बड़ी जरूरत के लिए पर्यावरण व प्रकृति पर निर्भरता के बावजूद दुनियाभर के देश पर्यावरण संरक्षण के कदमों की ही सबसे ज्यादा अनदेखी करते हैं। कोरोना महामारी ने जिस तरह से विकास की सभी अवधारणाओं को किनारे लगाते हुए तेज गति से भाग रही दुनिया को थाम दिया, वह असल में एक चेतावनी ही है कि लोग संभल जाएं।

ग्‍लोबल वार्मिंग से पूरी मानवता के लिए खतरा

हालांकि, यूनाइटेड नेशंस एनवायरमेंट प्रोग्राम (यूएनईपी), व‌र्ल्ड इकोनॉमिक फोरम और द इकोनॉमिक्स ऑफ लैंड डिग्रेडेशन की ‘स्टेट ऑफ फाइनेंस फॉर नेचर’ रिपोर्ट अलग कहानी बयां कर रही है। यूएनईपी के एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर इंगर एंडरसन ने कहा कि महामारी ने मौका दिया कि हम लोग ‘बिल्ड बैक एज-युजुअल’ (सब पहले जैसा बनाएं) के बजाय ‘बिल्ड बैक बेटर’ (पहले से बेहतर बनाएं) की ओर कदम बढ़ाएं, लेकिन विभिन्न देशों ने कोई सबक नहीं लिया है। सबक न सीखने की यह आदत पूरी मानवता के लिए खतरा है। रिपोर्ट में वनीकरण, प्रदूषण नियंत्रण व पर्यावरण संरक्षण के विभिन्न कदमों पर खर्च बढ़ाने की जरूरत पर जोर दिया गया है। इंश्योरेंस फर्म स्विस आरई ने पिछले साल अपनी रिपोर्ट में कहा था कि जिस तरह से प्राकृतिक स्त्रोतों का दोहन हो रहा है, उससे हर पांच में एक देश का इकोसिस्टम पूरी तरह बरबाद होने के कगार पर है। आस्ट्रेलिया, इजरायल और दक्षिण अफ्रीका में सबसे ज्यादा खतरा है।

सुधार को तैयार नहीं दुनिया

यूएनईपी और ऑक्सफोर्ड यूनिवíसटी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया की 50 बड़ी अर्थव्यवस्थाओं ने महामारी के दौरान 14.6 लाख करोड़ डॉलर का राहत पैकेज दिया। इस भारी-भरकम पैकेज में से मात्र 368 अरब डॉलर (2.5 फीसद) ही ऐसी गतिविधियों पर खर्च किया गया, जो पर्यावरण संरक्षण की दिशा में सहायक हैं। पर्यावरण संरक्षण की दिशा में हो रहे खर्च में एक विचारणीय पहलू यह भी है कि इनमें निजी क्षेत्र का योगदान बहुत कम है। निश्चित तौर पर इसे बढ़ाने की जरूरत है।

प्रकृति पर निर्भर है हमारी आजीविका

रिपोर्ट में इस बात का भी उल्लेख किया गया है कि दुनिया की अर्थव्यवस्था बहुत हद तक पर्यावरण पर निर्भर है, लेकिन लोग समझने को तैयार नहीं हैं। यह नासमझी पूरी दुनिया पर भारी पड़ रही है। वैश्विक जीडीपी का आधे से ज्यादा हिस्सा कम या ज्यादा प्रकृति पर निर्भर है। इसमें कृषि, फूड एवं बेवरेज और कंस्ट्रक्शन ऐसे क्षेत्र हैं, जो बहुत हद तक प्रकृति पर ही निर्भर हैं और इनसे वैश्विक अर्थव्यवस्था में आठ लाख करोड़ डॉलर जुड़ता है।

आदत बुरी है, बदल डालो

व‌र्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की टेरेसा हार्टमैन ने कहा, ‘हम खाने, पहनने, फाइबर और लकड़ी आदि के लिए जिस तरह से प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करते हैं, उसे बदलने की जरूरत है। जलवायु परिवर्तन की बात करते समय सबका ध्यान तापमान की ओर ही है, लेकिन जमीन के इस्तेमाल में आ रहे बदलाव पर किसी का ध्यान नहीं है। हम लगातार इस तरह से उत्पादन और दोहन नहीं करते रह सकते हैं।’

खतरे से अछूता नहीं भारत

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