अन्तरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर जेएनयू में हुआ दो दिवसीय संगोष्ठी का आयोजन

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय नई दिल्ली,भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद एवं मैथिली भोजपुरी अकादमी दिल्ली के संयुक्त तत्वावधान में ‘मातृभाषाओं में अभिव्यक्त साहित्य एवं संस्कृति के विविध आयाम’ विषय पर दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन भारतीय भाषा केंद्र,भाषा साहित्य एवं संस्कृति अध्ययन संस्थान,जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर डॉक्टर राजेश कुमार पासवान के संयोजकत्व में किया गया।

इस दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी में कुल मिलाकर 12 सत्र थे। जिसमें देश-विदेश से आए प्रतिभागियों ने भारी संख्या में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हुए मंच से अपने-अपने शोध पत्र प्रस्तुत किए। इन बारहों सत्रों का क्रियान्वयन सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ। इनमें से जहां 8 सत्र ऑफलाइन मोड में थे वहीं 4 सत्रों को ऑनलाइन मोड में संचालित किया गया ताकि प्रतिभागियों को किसी भी असुविधा का सामना न करना पड़े।

समापन सत्र का संयोजन करते हुए डॉ.राजेश पासवान कहते हैं कि इस कार्यक्रम में सबसे बुजुर्ग साहित्यकार से लेकर युवा साथियों तक का सान्निध्य प्राप्त हुआ। इस संगोष्ठी में मुख्य रूप से उन मातृभाषाओं को तवज्जो दिया गया जिन्हें संविधान की आठवीं अनुसूची में जगह नहीं मिल पाई।
इस समापन सत्र में डॉ.तैयब हुसैन पीड़ित के दो काव्य संग्रहों पहला ‘तोप के मुँह में तिनका’ तथा ‘उम्मीदें मरी नहीं हैं’ का लोकार्पण हुआ।

इस पुस्तक पर अपनी बात रखते हुए डॉ. राजेश पासवान कहते हैं कि वर्तमान संकट को देखते हुए संवेदनशीलता को बचा लेने की चाह इस पुस्तक में है।
इस सत्र के मुख्य अतिथि प्रो.वीरपाल यादव ने कहा कि इस कार्यक्रम हेतु मैं श्रद्धानत हूं। जब हम जेएनयू में पढ़ते थे तब यहां हिंदी पढ़ा और बोला जाना हेय माना जाता था।यहां हिंदी का सेंटर ही भोजपुरी से बना। एक समय में अवधी और ब्रज बोलियां नहीं, भाषाएं थी।इसको देखते हुए हमें ध्यान देना चाहिए कि कैसे बोली भाषा से भी अधिक ताकतवर साबित होती हैं। इस पूरे वाक्य ‘क्या आप कन्फ्यूज्ड हैं?’को ‘आप कन्फ्यूजिया गए’ में समेट लेती है।

19 वीं शताब्दी में राहुल सांकृत्यायन ने कहा था कि हमें बच्चों को शिक्षा बोली में दिया जाना चाहिए। बच्चों को इतिहास पढ़ाया नहीं जाना चाहिए, इतिहास का चित्र दिखाया जाना चाहिए। आज विजुअल इफेक्ट को महत्वपूर्ण माना जाता है, पंडित जी ने उस जमाने में यह बात कही थी।
इनका कहना है,“किसी भी भाषा की आयु उसकी बोलियों के शब्दों की मात्रा से आंका जा सकता है।”शब्द भी संस्कारित होते हैं।‘पूरा साहित्य दर्द का विज्ञान है।’
डॉ.तैयब हुसैन पीड़ित ने अपनी दो कविताओं का पाठ किया,
“मंगरू मुंडा का आजादी बोल।”
इस बार फिर आजादी का दिन आया है भईया,
दिल्ली से विलोक तक तिनपतियां ढांचा
गाड़ा जायेगा।
मगर घूम-फिरकर बात यह है
चुनाव नजदीक है देखना भईया।
चमचे ताली बजाएंगे
पार्टी में एक से एक से एक छटे हुए खादी होंगे
बांस तुम्हारी बंसवाड़ी का होगा
मिट्टी मेरे खेत की और
चुनाव नजदीक है देखना भईया।

इन्होंने अपनी एक कथात्मक कविता,
‘भोपाती मियां’ भी सुनाया।

“दूर देहात से
चंद बकरियाँ लाता है भोपाती मियां
सपने में खुश होता है
या खुशहाली के सपने देखता है
भोपाती मियां……………
बकरियां ठंडी है
और उसके चमड़े उतार रहा है
भोपाति मियां।”

समापन सत्र की अध्यक्षता कर रहे प्रो.देवेंद्र चौबे ने कहा कि दुनिया भर के मानव सभ्यता के विकास का इतिहास है,उसका जो भी दस्तावेजीकरण हुआ है, वो उसकी अपनी भाषा में होता है। हर शब्द के पीछे उसका अपना इतिहास होता है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी शब्दों के माध्यम से धीरे-धीरे इतिहास में प्रवेश करते हैं। भाषाओं में रचे गए साहित्य सूत्र छोटा देते हैं लेकिन जब हम उसे खोलना शुरू करते हैं तब हम उसके विस्तृत फलक का आकलन कर पाते हैं।
इन्होंने कहा,“मातृभाषाओं का अस्तित्व एक भाषा के वर्चस्व को नकारती हैं।” बाजार की भाषा की उम्र लंबी होती है।मातृभाषा को फलने-फूलने के अर्थ भी चाहिए। इतने बड़े देश
की इतनी मातृभाषाएं,हम इनको पढ़ लेंगे,इनके साहित्य का अध्ययन कर लेंगे, इसमें ज्ञान भी हासिल कर लेंगे,किंतु मातृभाषाओं के पल्लवन हेतु केवल इतना ही पर्याप्त नहीं होगा। आज के डिजिटल युग में,बाजारीकरण के युग में हमें इसके और भी पक्षों पर काम करना होगा।

धन्यवाद ज्ञापित करते हुए मैथिली भोजपुरी भाषा केंद्र के संजीव सक्सेना जी ने कहा कि भाई विनोद जी और राजेश जी अकादमी के किसी भी कार्यक्रम के निर्वहन हेतु हमेशा तत्पर रहते हैं। हम उनके आभारी हैं कि उन्होंने इतने बड़े कार्यक्रम में शिरकत के लिए हमें सुअवसर दिया।इन्होंने कहा कि हम सरकारी स्तर पर मातृभाषा को बचाने के लिया प्रयासरत रहेंगे।

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