1971 में युद्ध के नायक सैम मानेकशॉ.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

सेना के दबंग अधिकारी के तौर पर विख्यात सैम मानेकशा का पूरा नाम होरमुसजी फ्रामजी जमशेदजी मानेकशा है। तीन अप्रैल, 1914 को अमृतसर में पारसी परिवार में जन्मे मानेकशा का सैन्य करियर ब्रिटिश इंडियन आर्मी से शुरू हुआ था। करीब चार दशक तक चले इस करियर के दौरान उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध, 1962 के भारत-चीन युद्ध, 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध और 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में हिस्सा लिया। भारत-चीन युद्ध और उसके बाद की सारी लड़ाइयां मानेकशा के नेतृत्व में लड़ी गईं। उनकी निडरता और बहादुरी की कायल पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी भी थीं।

वर्ष 1971 में हुए युद्ध में उनके नेतृत्व में भारत ने पाकिस्तान को करारी शिकस्त दी थी। इस युद्ध के फलस्वरूप ही बांग्लादेश का निर्माण हुआ था। मानेकशा के साहसिक कारनामों पर मेघना गुलजार ‘सैम बहादुर’ फिल्म बना रही हैं। जिसमें विकी कौशल मुख्य भूमिका में नजर आएंगे। सैम जहां अपने इरादों के पक्के थे, वहीं अपने जवानों के हितों के साथ भी कोई समझौता नहीं करते थे। वह अपने ह्यूमर के लिए भी काफी जाने जाते हैं। रौबीली मूंछों वाले मानेकशा के काम करने की शैली भी काफी अनौपचारिक थी। वह सलाह के लिए कई बार अपने स्टाफ के अधिकारियों के कमरे में सीधे चले जाते थे।

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जब नहीं मिला सैम को प्रवेश: एक बार वर्दी में न होने की वजह से संतरी ने उन्हें ही प्रवेश करने नहीं दिया था। दरअसल, एक बार उन्होंने खुद ही अपनी कार चलाकर आफिस जाने का निर्णय लिया। वह सेना की वर्दी के बजाय सादे कपड़े और पेशावरी सैंडल पहनकर पहुंच गए। कार्यालय के प्रवेश द्वार पर उन्हें गोरखा संतरी ने रोक लिया। सैम अपना पहचान पत्र घर पर ही भूल गए थे। गोरखा ने उन्हें अंदर आने से मना कर दिया। उसने बहुत सादगी से कहा कि मैं आपको पहचानता नहीं हूं। आपके पास पहचान पत्र नहीं है, सेना का कोई बिल्ला नहीं है। मैं कैसे यकीन कर लूं कि आप सैन्य कमांडर हैं। जिसके बाद सैम ने गेट पर लगे फोन पर कमांडिंग आफिसर से बात की। तब वह कमांडिग आफिसर तुरंत वहां पहुंचा और उन्हें अंदर लाया। हालांकि गोरखा की कर्तव्य निष्ठा पर सैम उसे शाबासी देना नहीं भूले।

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मंत्री से तनातनी: सैम अपने जवानों के कल्याण के रास्ते में आने वाले किसी भी व्यक्ति के रास्ते में बहादुरी के साथ खड़े हो जाते थे। सैम को यह अस्वीकार्य था कि आवास की कमी के कारण फील्ड असाइनमेंट से वापस लौटने वाले अधिकारियों को सरकारी आवास आवंटित होने से पहले महीनों इंतजार करना पड़े। इससे फिर से तैनाती से पहले परिवारों का उनके साथ समय बिताना कम हो जाता था। 26 इंफेंटरी डिवीजन की कमान संभालने पर उनकी पहली प्राथमिकता आवास के निर्माण में तेजी लाने की थी। ब्रिगेडियर (रिटायर) बेहराम एम. पंथकी और जेनोबिया पंथकी द्वारा लिखी किताब ‘फील्ड मार्शल सैम मानेकशा: द मैन एंड हिज टाइम्स’ के मुताबिक, जब परियोजना चल रही थी तो रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन ने आदेश पारित किया कि सैनिकों का इस्तेमाल निर्माण श्रमिक के रूप में किया जाना चाहिए।

सैम ने इसे मानने से इन्कार कर दिया। उन्होंने कहा कि उनकी डिवीजन के जवान दुश्मनों से लोहा लेने के लिए प्रशिक्षित किए गए हैं। उन्हें मजदूर के तौर पर तैनात नहीं किया गया है। सैम अपनी बात को लेकर अडिग रहे और मेनन को झुकना पड़ा। मानेकशा की रक्षा मंत्री से तनातनी की कहानियां सेना में जंगल की आग की तरह फैल जाती थीं। ऐसी कई खासियतों ने उन्हें सेना में आगे बढ़ाया, वहीं कुछ राजनेताओं और नौकरशाहों की आंख की किरकिरी भी।

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शुरू किया पदक का मानक: मानेकशा को उनके कार्यकाल में कई सम्मानों से नवाजा गया था। वर्ष 1968 में सैम को मिजो हिल्स विद्रोह से चतुराई से निपटने के लिए पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। पहली बार नागरिक सम्मान किसी सैन्य अधिकारी को दिया गया था। ड्रेसिंग रूम में इसे पहनने के दौरान उन्होंने यह फैसला किया कि नागरिक सम्मान होने की वजह से इसे सैन्य मेडल के नीचे ही लगाया जाए। उस निर्णय ने एक मिसाल कायम की, जो भारतीय सेना में प्रोटोकाल बन गया। हालांकि बाद में सरकार ने नीतियों में बदलाव किया और उसके बाद से पद्म सम्मान सेवारत व्यक्ति को नहीं दिया गया।

इसी तरह वर्ष 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध में बलिदान हुए भारतीय जवानों की याद में इंडिया गेट पर अमर जवान ज्योति जलाई गई थी। इसके उद्घाटन से कुछ समय पहले गृह मंत्रालय ने सैन्य प्रमुख के समक्ष फाइल भिजवाई, जिसमें सलाह दी गई कि सैन्यबल के झंडे के साथ बीएसएफ का झंडा भी लहराना चाहिए। सैम ने इस सलाह को भी मानने से इन्कार कर दिया। उन्होंने तर्क दिया कि युद्ध में शत्रुओं से लड़ना और जीतना थल सेना, नौसेना और वायु सेना का काम है।

दुनियाभर में युद्ध स्मारकों को बलिदान हुए सैनिकों को समर्पित किया जाता है। बीएसएफ पुलिस फोर्स है। दुनिया में कहीं भी युद्ध स्मारक को किसी पुलिस को समर्पित नहीं किया गया है। तब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भी सैम मानेकशा के इस फैसले का साथ दिया था।

 

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