क्या बिहार में जातिगत जनगणना पर लगेगी रोक ?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

बिहार में जातिगत जनगणना का मामला अब सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया है। सुप्रीम कोर्ट राज्य में जाति आधारित जनगणना कराने की बिहार सरकार की अधिसूचना को चुनौती देने वाली याचिका पर तत्काल सुनवाई करने के लिए सहमत हो गया है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि इस मामले की सुनवाई 13 जनवरी को होगी।

बिहार सरकार के एजेंडे में शामिल है जाति आधारित गणना

बता दें कि जाति आधारित गणना बिहार सरकार के एजेंडे में शामिल हैं। बता दें कि जाति आधारित गणना बिहार सरकार के एजेंडे में शामिल हैं। राज्य में जाति जनगणना करने के लिए बिहार सरकार की 6 जनवरी, 2022 की अधिसूचना को रद्द करने की मांग करते हुए सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गई है। याचिका सामाजिक कार्यकर्ता अखिलेश कुमार ने अधिवक्ता बरुन कुमार सिन्हा और अभिषेक के माध्यम से दायर की थी।

याचिका में क्या कहा गया?

याचिका में कहा गया है कि बिहार सरकार के उप सचिव द्वारा जारी 06.06.2022 की अधिसूचना पर कार्रवाई का कारण सामने आया है, जिसमें सरकार के जातिगत जनगणना करने के निर्णय को मीडिया और जनता को सूचित किया गया है। याचिकाकर्ता ने कहा कि बिहार राज्य का फैसला अवैध, मनमाना, तर्कहीन, असंवैधानिक और कानून के अधिकार के बिना है।

बिहार में हैं 200 से अधिक जातियां

याचिकाकर्ता ने कहा कि बिहार में 200 से अधिक जातियां हैं और उन सभी जातियों को सामान्य श्रेणी, ओबीसी, ईबीसी, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के रूप में बांटा गया है। याचिका के अनुसार, बिहार राज्य में 113 जातियां हैं, जो ओबीसी और ईबीसी के रूप में जानी जाती हैं, आठ जातियां उच्च जाति की श्रेणी में शामिल हैं। वहीं, लगभग 22 उप-जाति अनुसूचित श्रेणी में शामिल हैं और 29 अनुसूचित जातियां हैं।

याचिकाकर्ता ने फैसले पर रोक लगाने की गुजारिश की

याचिका में कहा गया है कि बिहार राज्य के अवैध फैसले के लिए अलग-अलग व्यवहार को रेखांकित करने वाली अधिसूचना अवैध, मनमाना तर्कहीन और असंवैधानिक हैं। इसलिए, याचिकाकर्ता ने शीर्ष अदालत से अपील को रद्द करने के लिए एक निर्देश जारी करने का आग्रह किया है। याचिकाकर्ता ने कहा कि 6 जनवरी, 2022 की अधिसूचना और संबंधित प्राधिकरण को जाति गणना करने से बचने का निर्देश दिया जाए, क्योंकि यह भारत के संविधान के बुनियादी ढांचे के खिलाफ है।

साल 1951 से 2011 तक की जनगणना में हर बार अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का डेटा दिया गया, लेकिन ओबीसी और दूसरी जातियों का नहीं.

इसी बीच साल 1990 में केंद्र की तत्कालीन विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार ने दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग, जिसे आमतौर पर मंडल आयोग के रूप में जाना जाता है, की एक सिफ़ारिश को लागू किया था.

ये सिफारिश अन्य पिछड़ा वर्ग के उम्मीदवारों को सरकारी नौकरियों में सभी स्तर पर 27 प्रतिशत आरक्षण देने की थी. इस फ़ैसले ने भारत, खासकर उत्तर भारत की राजनीति को बदल कर रख दिया.

जानकारों का मानना है कि भारत में ओबीसी आबादी कितनी प्रतिशत है, इसका कोई ठोस प्रमाण फ़िलहाल नहीं है.

मंडल कमीशन के आँकड़ों के आधार पर कहा जाता है कि भारत में ओबीसी आबादी 52 प्रतिशत है. हालाँकि, मंडल कमीशन ने साल 1931 की जनगणना को ही आधार माना था.

इसके अलावा अलग-अलग राजनीतिक पार्टियाँ अपने चुनावी सर्वे और अनुमान के आधार पर इस आँकड़े को कभी थोड़ा कम कभी थोड़ा ज़्यादा करके आँकती आई है.

लेकिन केंद्र सरकार जाति के आधार पर कई नीतियाँ तैयार करती है. ताज़ा उदाहरण नीट परीक्षा का ही है, जिसके ऑल इंडिया कोटे में ओबीसी के लिए आरक्षण लागू करने की बात मोदी सरकार ने कही है.

जनगणना अपने आप में बहुत ही जटिल कार्य है. जनगणना में कोई भी चीज़ जब दर्ज हो जाती है, तो उससे एक राजनीति भी जन्म लेती है, विकास के नए आयाम भी उससे निर्धारित होते हैं. इस वजह से कोई भी सरकार उस पर बहुत सोच समझ कर ही काम करती है. एक तरह से देखें तो जनगणना से ही जातिगत राजनीति की शुरुआत होती है. उसके बाद ही लोग जाति से ख़ुद को जोड़ कर देखने लगे, जाति के आधार पर पार्टियाँ और एसोसिएशन बनने लगे.”

  • जाति आधारित जनगणना के दुष्प्रभाव: 
  • जाति में एक भावनात्मक तत्त्व निहित होता है और इस प्रकार जाति आधारित जनगणना के राजनीतिक व सामाजिक दुष्प्रभाव भी उत्पन्न हो सकते हैं।   
    • ऐसी आशंकाएँ प्रकट होती रही हैं कि जाति संबंधित गणना से उनकी पहचान की सुदृढ़ता या कठोरता को मदद मिल सकती है। 
    • इन दुष्प्रभावों के कारण ही सामाजिक, आर्थिक और जातिगत जनगणना, 2011 के लगभग एक दशक बाद भी इसके आँकड़े के बड़े अंश अप्रकाशित रहे हैं या ये केवल अंशों में ही जारी किये गए हैं। 
  • जाति संदर्भ-विशिष्ट होती है: 
  • जाति कभी भी भारत में वर्ग या वंचना का छद्म रूप नहीं रही; यह एक विशिष्ट प्रकार के अंतर्निहित भेदभाव का गठन करती है जो प्रायः वर्ग के भी पार चला जाता है। उदाहरण के लिये:   
    • दलित उपनाम वाले लोगों को नौकरी हेतु साक्षात्कार के लिये बुलाए जाने की संभावना कम होती है, भले ही उनकी योग्यता उच्च जाति के उम्मीदवार से बेहतर हो। 
    • ज़मींदारों द्वारा उन्हें पट्टेदारों के रूप में स्वीकार किये जाने की संभावना भी कम होती है।  
    • एक पढ़े-लिखे, संपन्न दलित व्यक्ति से विवाह अभी भी उच्च जाति की महिलाओं के परिवारों में हिंसक प्रतिशोध को जन्म देता है। 
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