स्वतंत्रता के रणबांकुरों ने पीछे पलटकर नहीं देखा!

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

उस दिन आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। वह नौजवान एक किताब को लफ्ज दर लफ्ज पढ़ रहे थे और कभी आसमान की ओर, तो कभी जमीन की ओर मुंह किए आंसू बहाए चले जा रहे थे। लिखने वाले इतालवी विचारक ग्यूसेप मैजिनी ने क्या खूब लिखा था, हर लफ्ज धारदार, ‘आपका देश आपका मंदिर होना चाहिए। शिखर पर ईश्वर और आधार में एक समान लोग।’ पर अपना देश तो गुलामी से लहूलुहान है, हम अपने देश को बचाने के लिए क्या कर रहे हैं?

हमें तो एक कदम रखते हुए भी देश का आभार मानना चाहिए, पर क्या हम ऐसा मानते हैं? वह युवा सोच-सोचकर बिलख रहे थे कि कोई इतनी साफगोई से राष्ट्र व राष्ट्र प्रेम के बारे में कैसे बता रहा है। मैजिनी मनुष्य के कर्तव्य बता रहे थे कि आपके लिए देश क्या है? देश आपसे क्या चाहता है? क्या केवल आप ही देश से उम्मीदें लगाए बैठे रहते हैं और देश आपके प्यार के लिए हर पल तरसता रहता है?

देश के बिना आपके पास न तो नाम है, न निशान, न आवाज, न हक, पर ऐसे देश को आपने कितना प्यार दिया? मैजिनी यहां तक लिख देते हैं कि ईश्वर ने आपको मानवता की सेवा के लिए एक देश दिया है। अपने देश में किसी भी तरह की गुलामी और असमानता से मुकाबले के लिए आपका जन्म हुआ है। उस नौजवान की रुलाई रोके नहीं रुक रही है। मैजिनी बताए चले जा रहे थे कि वोट, शिक्षा, कर्म, ये राष्ट्र के तीन मुख्य स्तंभ हैं; जब तक आपके हाथ उन्हें मजबूती से खड़ा न कर लें, आराम न कीजिए।

पर तब अपना देश भारत तो गुलाम था, वोट का सवाल पैदा नहीं होता और शिक्षा का बहुत बुरा हाल है। नौजवान ने मैजिनी के लिखे को बार-बार पढ़ा और हर बार देश व मानवता के लिए आंखें झर-झर बहीं। उन्होंने दूर देश में हुए और समय के साथ बीत गए विचारक मैजिनी को ही अपना गुरु मान लिया। फैसला कर लिया कि अपना तन-मन-धन देश की सेवा के लिए समर्पित कर देना है। धिक्कार है, अभी तक जो जीवन बीता, वह अपने देश के काम न आया।

तब वह तीन रुपये की छात्रवृत्ति और शिक्षक पिता द्वारा भेजे गए 8 रुपये से काम चलाते थे। अक्सर भूखे रहते थे, पर देश और समाज सेवा के बारे में निरंतर सोचते-करते रहते थे। सबसे पहले दुनिया को थामना होगा, उससे पहले देश को संभालना होगा और उसके लिए अपने समाज की चिंता करनी पड़ेगी और उससे भी पहले अपने परिवार की रक्षा करनी पड़ेगी।

संयोग से उन्हीं दिनों वह आर्य समाज से जुड़े और उससे अपने राष्ट्रवाद का मेल बिठाया। अंधविश्वास से दूर, वैज्ञानिकता और ज्ञान से भरपूर उनके राष्ट्रवाद ने उन्हें एक प्रभावी वक्ता बना दिया और लोग उन्हें लाजपत राय के नाम से जानने लगे। उनके सामने घर में ही चुनौतियां कम नहीं थीं। दादा जैन थे। पिता एक ऐसे हिन्दू, जो किसी भी मुस्लिम से कम नहीं थे और मां सिख विधि-विधान में जी रही थीं।

पिता तो तभी मुस्लिम हो जाते, जब लाजपत राय दो साल के थे। तब ऐन मस्जिद की सीढ़ियों पर मां ने पिता को घेर लिया था कि ‘ऊपर वाले की मर्जी समझो, उसने जिस धर्म में पैदा किया, उसी में रहो, बच्चों की सोचो, मैं तो धर्म न बदलूंगी।’ पिता तब भी दृढ़ थे, पर शिशु लाजपत राय इतनी जोर से रोए कि तमाशा खड़ा हो गया, पिता नजरें झुकाए अपना परिवार लिए सीढ़ियां उतर आए।

बहरहाल, आर्य समाज ने लाजपत राय को मजबूत किया और उन्होंने पिता को भी समझाया कि कौन कहता है मूर्ति पूजा कीजिए, सगुण न सही, निर्गुण स्वरूप में ईश्वर को मानिए और वेद व सनातन को समझिए। उसके आडंबरों के अंदर मूल तत्व को जानिए। पिता को समझ आई कि बेटे की राह सही है। महत्व धर्म का उतना नहीं, जितना देश और उसकी आजादी का है। देश सुखी और मजबूत होगा, तो उससे धर्म की ही शोभा बढ़ेगी।

अनेक समाजसेवा संस्थान, डीएवी शिक्षा संस्थान, पंजाब नेशनल बैंक, लक्ष्मी बीमा कंपनी, इत्यादि अनेक संस्थानों की रचना लाला लाजपत राय (1865-1928) ने की थी। 28 जनवरी को जन्मे लाला कोरे राजनेता नहीं थे, वह जमीनी काम करने वाले आदर्श समाजसेवी थे।

स्वभाव से निडर, खूब मेहनती और दिखावे से कोसों दूर। लाजपत राय ऐसे स्वतंत्रता सेनानियों में शामिल रहे, जिन्होंने स्वराज्य को सबसे पहले समझा, कांग्रेस को बाद में समझ आई और स्वतंत्रता आंदोलन के तेवर तीखे हुए। उन्होंने साइमन कमीशन के विरोध में प्रदर्शन करके लाठियों की बौछार सही थी और इसी वजह से उनकी शहादत हुई। यह शहादत भारत की आजादी की लड़ाई का एक सबसे निर्णायक पल साबित हुई। उसके बाद गरम दल के नेता हों या नरम दल के, आजादी के रणबांकुरों ने पीछे पलटकर नहीं देखा।

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