क्या इंदिरा गांधी को ललित नारायण मिश्र से खतरा था?
क्या किसी बड़े और ताकतवर इंसान ने करवाई हत्या?
40 साल बाद आया कोर्ट का फैसला, मगर इंतजार खत्म नहीं हुआ
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
2 जनवरी, 1975. समस्तीपुर में एक कार्यक्रम तय था. उसमें शरीक होने के लिए ललित नारायण मिश्र दिल्ली से पटना के लिए रवाना हुए. सरकारी विमान में बैठकर. विमान पटना के आसमान पर पहुंचकर चक्कर काटने लगा. सर्दी का मौसम था. धुंध बड़ी आम चीज है. उस दिन भी घना कोहरा था. पायलट को लगा कि इस धुंध में विमान की लैंडिंग मुश्किल है. उसने कहा, दिल्ली लौट चलते हैं. मगर ललित बाबू नहीं माने. कहा, लोग इंतजार करेंगे. न जाऊं, ये हो नहीं सकता. पायलट के बार-बार कहने के बाद भी उन्होंने जोर देकर लैंडिंग कराई. वक्त का पाबंद होना उस दिन उनके लिए जानलेवा बन गया. उन्होंने पायलट की बात मानी होती, तो शायद वो जिंदा होते. और जब मरे, तो आज की राजनीति के हिसाब से जवान ही थे. कुल 52 साल की उम्र.
तारीख: 2 जनवरी, 1975 दिन: गुरुवार जगह: समस्तीपुर रेलवे स्टेशन
इंदिरा गांधी सरकार के रेल मंत्री ललित नारायण मिश्र समस्तीपुर रेलवे स्टेशन पहुंचे. कार्यक्रम पहले से तय था. कई महीनों से तैयारी चल रही थी. उन्हें समस्तीपुर से मुजफ्फरपुर के बीच बड़ी लाइन का उद्घाटन करना था. इसके लिए शाम का वक्त चुना गया था. पूरे लाव-लश्कर के साथ ललित बाबू वहां पहुंचे. मंच पर चढ़े. उनके छोटे भाई जगन्नाथ मिश्र भी उनके साथ थे. कांग्रेस के कुछ और नेता भी साथ थे. ललित बाबू ने भाषण पूरा किया और मंच से नीचे उतरने लगे.
ठीक इसी समय वहां मौजूद दर्शकों की भीड़ में से किसी शख्स ने मंच की ओर हथगोला उछाला. हथगोला फटा. अफरा-तफरी मच गई. 11 लोग बुरी तरह से घायल हुए. उन्हें जानलेवा चोट आई थी. इसके अलावा 18 लोगों को गंभीर चोट आई. घायलों में सबसे बड़ा नाम था ललित नारायण मिश्र का. बहुत हाई-प्रोफाइल केस था ये. GRP समस्तीपुर ने आनन-फानन में केस दर्ज कर लिया. उस समय न इतने फोन थे, न चौबीस घंटे वाले न्यूज चैनल. लोग रेडियो पर खबर सुनकर देश-दुनिया का हाल जाना करते थे. सो उस दिन रात को जब ऑल इंडिया रेडियो का बुलेटिन आया, तो पूरे बिहार में सनसनी मच गई.
ललित बाबू को पटना ले जा रही ट्रेन इतनी लेट क्यों हुई? इस फैसले का न उस समय कोई तुक नजर आया था, न अब कोई तुक नजर आता है. ललित बाबू और जगन्ननाथ मिश्र के साथ कुछ लोगों को एक ट्रेन में पटना के लिए रवाना किया गया. जाना था दानापुर रेलवे स्टेशन. रेल से करीब 132 किलोमीटर की दूरी. 1975 में इस दूरी को पाटने के लिए 6-7 घंटे काफी होने चाहिए. आज 4-5 घंटे लगते हैं. मगर ललित बाबू को लेकर रवाना हुई ट्रेन 14 घंटे से ज्यादा वक्त लगाकर दानापुर पहुंची. 14 घंटे नोट करके रख लीजिए. ये इस हत्याकांड से जुड़े सबसे अहम सवालों में से एक था. ट्रेन को यार्ड में खड़ा रखा गया. शंटिग की गई. समर्थकों ने कहा कि जानकर देर की गई.
इंदिरा गांधी को ललित नारायण मिश्र से खतरा था? ये अफवाह सबसे ज्यादा लोकप्रिय है. लोग कहते हैं कि ललित बाबू की लोकप्रियता और उनके बढ़ते कद से इंदिरा घबरा गई थीं. उन्हें लगा कि ये शख्स शायद उनके सिंहासन के लिए चुनौती बन सकता है. वैसे भी वो वक्त इंदिरा के लिए थोड़ा मुश्किल था. चीजें धीरे-धीरे उनके हाथ से निकलने लगी थीं. ‘आयरन लेडी’ की चुनौती बढ़ रही थी. लोगों की बतकही में जिक्र होता है कि ललित बाबू को और किसी ने नहीं, इंदिरा ने मरवाया था. ताकि उनका रास्ता साफ हो जाए.
ललित बाबू जिंदा रहते, तो जेपी और इंदिरा गांधी में फासले न होते ललित नारायण मिश्र इंदिरा गांधी और संजय गांधी के करीबी थे. उनकी जयप्रकाश नारायण से भी काफी नजदीकी थी. पिछले कुछ अरसे से इंदिरा और जेपी के बीच दूरियां बढ़ती जा रही थीं. इंदिरा के कामकाज के तरीके से जेपी नाखुश थे. मतभेद इतने बढ़ गए थे कि पाटना मुश्किल लग रहा था. इससे पहले भी कुछ मौकों पर ऐसा हो चुका था. कहते हैं कि ऐसे तमाम मौकों पर ललित बाबू उन दोनों के बीच की संवादहीनता को पाटने में बड़ी भूमिका निभाते थे.
बोलने वाले बोलते हैं कि जब ललित बाबू की हत्या कराई गई, तब भी वो इंदिरा और जेपी के बीच चीजें ठीक कराने की कोशिशों में जुटे थे. कुछ दिन बाद उनकी जेपी से मुलाकात होने वाली थी. ये भी कहा जाता है कि अगर ये मुलाकात हो जाती, तो जेपी और इंदिरा की तल्खियां कम हो जातीं और जेपी आंदोलन न शुरू करते. मगर ललित बाबू की हत्या के कारण ये सब नहीं हो सका. ‘ऐसा न होता तो क्या होता, वैसा न होता तो क्या होता,’ ये सोचने पर किसी का बस नहीं.
खासकर ऐसी चीजों में जो मुकम्मल नहीं हैं. जिनका अंत स्वाभाविक नहीं हुआ. जो अपने आप नहीं रुकीं, बल्कि रोक दी गईं. ललित बाबू जिंदा होते, तो यकीनन उनसे जुड़ी अलग कहानी होती. तब उनका जिक्र अलग ढंग से हुआ करता. फिलहाल जो है, वो एक कॉमा है. जो उनकी कहानी के आगे लगा है. फुलस्टॉप इसलिए नहीं लगा क्योंकि इस कहानी का आखिरी भाग ‘उपसंहार’ अभी लिखा नहीं गया.
क्या किसी बड़े और ताकतवर इंसान ने करवाई हत्या? 11 हजार पन्नों के दस्तावेज वाला ये भारी-भरकम केस बड़ा अजूबा मामला है. केस की सुनवाई के दौरान करीब 24 जज आए-गए. इतने लंबे समय तक चलने की वजह से बीच में ही कई वकील भी गुजर गए. हाई-प्रोफाइल होने के बावजूद फैसला आने में 40 साल लग गए. बिहार सरकार और केंद्र सरकार के बीच इसे लेकर बड़ी माथापच्ची भी रही. 1977 में जब कर्पूरी ठाकुर बिहार के मुख्यमंत्री बने, तो उन्होंने एक जांच भी बिठाई.
इसका जिम्मा दिया एम ताराकुंडे को. ताराकुंडे ने अपनी रिपोर्ट में साफ कहा कि CBI ने जिन लोगों को आरोपी बनाया है, वो बेगुनाह हैं. मामले में सरकारी गवाह बने कुछ लोगों ने भी कहा कि CBI ने उन्हें उसके मन-मुताबिक बयान देने के लिए मजबूर किया. शुरुआत में जब बिहार CID केस की जांच कर रही थी, तब लग रहा था कि हत्या के पीछे किसी बड़े और ताकतवर इंसान का हाथ है. CBI के पास केस जाते ही जांच की पूरी दिशा बदल गई.
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