अफगानिस्तान, अफीम और अमेरिका के बीच क्या है,रिश्ता?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

अफगानिस्तान में तालिबान के सत्ता में आने के बाद से पूरी दुनिया इस्लामी आतंक का एक नया दौर शुरू होने की आशंका में जी रही है। यहां तक कि तालिबान का समर्थन कर रहे चीन और पाकिस्तान को भी मध्ययुगीन मानसिकता और बर्बर तौर-तरीकों वाले तालिबान से खतरा महसूस हो रहा है। आतंक के साथ ही अफगानिस्तान की धरती दुनिया में सबसे ज्यादा अफीम पैदा करने के लिए भी जानी जाती है। 1994 में वहां 3500 टन अफीम का उत्पादन होता था, जो 2007 में बढ़कर 8200 टन हो गया और एक अनुमान के मुताबिक वैश्विक अफीम उत्पादन का 93 फीसद अफगानिस्तान में होता है। यही अफीम तालिबान आतंकियों के लिए धन का सबसे प्रमुख स्रोत है।

अफीम आज भले ही इस्लामी आतंक को पालपोस रहा है, लेकिन एक जमाने में यह ब्रिटेन के कभी न अस्त होने वाले सूरज को ऊर्जा प्रदान करने वाला सबसे बड़ा स्रोत हुआ करता था। आज हम जिस दुनिया में रह रहे हैं, उसके निर्माण में अफीम की भूमिका पर पत्रकार थामस मैनुएल ने ‘ओपियम इंक’ नामक शानदार पुस्तक की रचना की है।

19वीं सदी में भारत से चीन के अफीम कारोबार और गिरमिटिया मजदूरों की जिंदगी पर लेखक अमिताभ घोष की ‘आइबिस त्रयी’ के तहत तीन उपन्यासों की शृंखला काफी पहले प्रकाशित हो चुकी है, लेकिन उनकी कृतियां ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर की गई काल्पनिक रचनाएं हैं, जबकि मैनुएल ने अफीम कारोबार और उसके असर का दस्तावेजीकरण किया है। इस मायने में उनकी यह पुस्तक ज्यादा महत्वपूर्ण है।

दरअसल, अफीम और उसके द्वारा किए गए विनाश की कहानी ब्रिटेन के वैश्विक शक्ति के रूप में उदय की दास्तान है। 19वीं सदी में ईस्ट इंडिया कंपनी के जरिए भारत पर धीरे-धीरे काबिज हो रहे ब्रिटेन को दो समस्याओं का सामना करना पड़ रहा था। ब्रिटेन को तब तक चीन की चाय का चस्का लग चुका था और इस वजह से उसे वहां से भारी मात्रा में इसका आयात करना पड़ रहा था। दिक्कत यह थी कि चीन को चाय के निर्यात के बदले में ब्रिटेन में बनी वस्तुओं के बजाय चांदी चाहिए थी। इस तरह चाय के चक्कर में ब्रिटेन की चांदी चीन पहुंच रही थी और उसका खजाना खाली हुआ जा रहा था। दूसरी तरफ, भारत में बढ़ते भौगोलिक दायरे के कारण ईस्ट इंडिया कंपनी का खर्च भी तेजी से बढ़ रहा था।

ब्रिटेन ने अफीम के एक तीर से दो शिकार किए। ईस्ट इंडिया कंपनी और 1857 के बाद ब्रिटिश सरकार ने बिहार और बंगाल में किसानों को अफीम पैदा करने के लिए बाध्य किया और उसके प्रसंस्करण के लिए गाजीपुर और पटना में फैक्ट्रियां स्थापित कीं। यहां तैयार होने वाला अफीम कलकत्ता (अब कोलकाता) पहुंचाया जाने लगा और वहां से उसे जहाजों में भरकर चीन निर्यात किया जाने लगा। इस तरह ब्रिटेन को कमाई का एक स्रोत भी मिल गया और चाय के आयात के बदले चांदी निर्यात करने की जरूरत भी नहीं पड़ी।

ब्रिटेन का यह गंदा धंधा एक सदी तक चलता रहा। उसे यह बखूबी एहसास था कि अफीम सेहत के लिए बहुत खतरनाक है, लेकिन अपने साम्राज्य को बचाए रखने के लिए अफीम की बुराइयों से उसने आंखें मूंद लीं। बहरहाल, अफीम के इस कारोबार ने सिर्फ ब्रिटिश साम्राज्यवाद की जड़ें ही मजबूत नहीं कीं, बल्कि देश के अंदर आर्थिक असमानता के बीज भी बोए। इस पुस्तक को पढऩे के बाद पाठकों को यह भी आसानी से समझ में आ जाएगा कि बिहार में क्यों गरीबी का नाला बह रहा है और मुंबई में क्यों समृद्धि का समुद्र लहरा रहा है।

इस पुस्तक में नशीले पदार्थ को लेकर अमेरिका के दोगलेपन को भी उजागर किया गया है। तथ्यों, तर्कों और घटनाओं के जरिए लेखक ने बताया है कि कैसे अफीम एवं दूसरी नशीली दवाओं के खिलाफ अभियान के नाम पर अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआइए ने इनके काले कारोबार को बढ़ावा देने का काम किया। अमेरिका एक तरफ संयुक्त राष्ट्र के झंडे तले सभी देशों को नशीले पदार्थों के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय संधि करने के लिए मनाता रहा और दूसरी तरफ सीआइए को इन पदार्थों की तस्करी के जरिए विभिन्न देशों में विद्रोहियों को माली मदद पहुंचाता रहा। अमेरिका यह सब कभी लोकतंत्र पर खतरे के नाम पर करता था और अब इस्लामी आतंक से लडऩे के नाम पर कर रहा है।

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