क्या समय की मांग है जाति जनगणना ?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

हाल के दिनों में कई राजनीतिक दलों और सामाजिक चिंतकों ने भारत में जाति जनगणना कराने की मांग की है। अब प्रश्न उठता है कि ओ.बी.सी. समाज द्वारा यह मांग क्यों की जा रही है? इसके ज़ोर पकड़ने का सबसे प्रभावी कारक आरक्षण है। बीते समय के दो परिवर्तनों ने इसकी गति और तेज़ कर दी है, पहला EWS  आरक्षण और दूसरा राज्यों को ओ.बी.सी. वर्ग की पहचान करने का अधिकार दिया जाना। इन दोनों संशोधनों से दो संभावनाएँ पैदा हुई।

पहली यह कि आरक्षण की 50 प्रतिशत सीमा अमान्य हो सकती है और दूसरी यह कि राज्य अपने स्तर पर ओ.बी.सी. वर्ग की पहचान सुनिश्चित कर उसी अनुपात में उन्हें आरक्षण का लाभ दे सकें। इन्हीं दोनों संभावनाओं ने ओ.बी.सी. जाति जनगणना की मांग में तेज़ी ला दी है। इस मांग को और गति मद्रास उच्च न्यायालय के एक फैसले ने दे दी जिसमें जाति जनगणना को आवश्यक बताया गया है। अब यह विचारणीय है कि ओ.बी.सी. वर्ग द्वारा की जा रही जाति जनगणना की मांग उचित है या नहीं?

मेरा मानना है कि तीन कारणों से यह सर्वथा उचित मांग है। पहला कारण यह कि यदि कोई सामाजिक वर्ग वंचना का शिकार है तो उसे मुख्यधारा में ले आने के लिये सबसे प्राथमिक कार्य है उसकी वास्तविक स्थिति का अध्ययन किया जाए; यह अध्ययन उनकी वास्तविक संख्या, सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक स्थिति से संबंधित होना चाहिये। यदि वास्तविक स्थिति का पता ही नहीं होगा तो उनके उत्थान हेतु नीति-निर्माण कैसे संभव हो पाएगा। यह किसी से छिपा नहीं है कि ओ.बी.सी. वर्ग सामाजिक अन्याय का लंबे समय से शिकार रहा है।

साथ ही, हमें यह भी ज्ञात है कि यदि किसी वर्ग की सामाजिक वंचना को समाप्त करने संबंधी उपायों को अपनाने में बहुत देरी की जाए तो उस वर्ग में असंतोष मुखर होने लगता है जो कि कभी-कभी हिंसा का मार्ग अपनाने तक चला जाता है। प्रगति की राह पर आगे बढ़ रहे देश में ऐसा न होने पाए, उसके लिये समय-पूर्व सतर्कता आवश्यक है।

ओ.बी.सी. वर्ग की जाति जनगणना की मांग के पक्ष में दूसरा कारण सामाजिक न्याय व समावेशी विकास से संबंधित है। कोई भी देश सही अर्थों में तभी विकसित व सफल राष्ट्र की श्रेणी में आता है जब वह समाज के सभी वर्गों का कल्याण सुनिश्चित करता है। ओ.बी.सी. वर्ग यदि वंचना का शिकार है और यह कहता है कि उसे उसकी आबादी के अनुपात में संसाधन उपलब्ध नहीं कराए जा रहे हैं तो यह माना जाना चाहिये कि देश के संसाधनों के वितरण में व्यापक असमानता व्याप्त है। संसाधनों के न्यायपूर्ण वितरण से इस तरह की असमानता को समाप्त कर सामाजिक न्याय व समावेशी विकास संबंधी पहल किया जाना देश के उत्तरोत्तर विकास हेतु अति आवश्यक है, जिसकी शुरुआत वंचितों की गणना करने से होनी चाहिये।

ओ.बी.सी. जनगणना की आवश्यकता का तीसरा कारण इस वर्ग की विभिन्न जातियों के मध्य व्याप्त विसंगतियों का समाधान करने से संबंधित है। दरअसल इंद्रा साहनी मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्देश दिया था कि ओ.बी.सी. वर्ग की सामाजिक, शैक्षिक व आर्थिक स्थिति का समय-समय पर अध्ययन कराया जाना चाहिये ताकि इस वर्ग की ऐसी जातियों को जो सामाजिक, शैक्षिक व आर्थिक आधार पर वंचना से मुक्त हो गई हों, उन्हें ओ.बी.सी. वर्ग से निकालकर सामान्य वर्ग में शामिल किया जा सके। इससे इस वर्ग में शामिल वंचित जातियों के उत्थान के अवसर भी बढ़ेंगे  और ओ.बी.सी वर्ग की विभिन्न जातियों के मध्य व्याप्त विसंगतियों को भी दूर किया जा सकेगा।

इसके अतिरिक्त यह भी कि केवल इस संभावित भय के कारण इसे रोकना उचित नहीं है कि जाति जनगणना देश में जाति आधारित राजनीति को बढ़ावा देगी। भारत की राजनीति में जाति का प्रभाव हमेशा से रहा है और अभी आगे भी बने रहने की संभावना है। हमें यह समझना चाहिये कि यह समस्या लोकतंत्र की व्यवस्था में व्याप्त कमियों को दर्शाती है जिसका समाधान तलाशा जाना वैचारिकी के स्तर पर अभी बाकी है। ऐसे में लोकतंत्र की विसंगतियों का बहाना बनाकर किसी वर्ग की वंचना की स्थिति को बरकरार रखना कहीं से भी उचित नहीं है।

साथ ही जाति जनगणना के बाद आरक्षण की 50 प्रतिशत की अधिकतम सीमा का कोटा बढ़ाए जाने की मांग को समझना भी आवश्यक है। हमें सबसे पहले तो यह समझना होगा कि 50 प्रतिशत की यह सीमा कोई  अंतिम व आदर्श लकीर नहीं है। इस तथ्य पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है कि राज्यों की आबादी में जातीय भिन्नताएँ व्याप्त हैं। अनुसूचित जाति व जनजाति के संदर्भ में जनगणना होने के कारण यह आसानी से तय कर दिया जाता है कि उक्त राज्य में उनके लिये कितना प्रतिशत आरक्षण होगा, किंतु ओ.बी.सी. की गणना न होने से वे इस लाभ से वंचित रह जाते हैं।

इस संबंध में मध्य प्रदेश का उदाहरण लेना ठीक रहेगा। यहाँ आदिवासियों की जनसंख्या अधिक होने के कारण उन्हें 20 प्रतिशत आरक्षण मिलता है, अनुसूचित जाति को 16 प्रतिशत और 50 प्रतिशत के अधिकतम कोटा के कारण ओ.बी.सी. को केवल 14 प्रतिशत आरक्षण मिलता है जबकि उनकी राज्य की आबादी में संख्या इससे कहीं अधिक है। अतः समय आ गया है कि केंद्र के स्तर पर भले ही अधिकतम कोटे की सीमा का ध्यान रखा जाए किंतु राज्यों के स्तर पर इस सीमा में आवश्यकतानुसार बदलाव ज़रूरी है। इस बदलाव के लिये यह आवश्यक है कि अब जाति जनगणना में और देरी न की जाए।

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