मानविकी संकाय का सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय जेएनयू
क्या जेएनयू का एंटी-एस्टैब्लिशमेंट (सत्ता-विरोधी) चरित्र विगत दस वर्ष में बदल गया है
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

जेएनयू को ‘पूरी तरह से एक नई यूनिवर्सिटी’ बनाने के उद्देश्य से शुरू किया गया था, जिसमें आलोचनात्मक की सोच की मजबूत भावना के साथ हो
जब पिछले हफ्ते जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) की लाल ईंटों वाली दीवारों पर शाम का सन्नाटा पसरा, तो कैंपस ने एक ऐसा नज़ारा देखा जो पहले असंभव माना जाता था. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के शताब्दी समारोह से कुछ दिन पहले, दर्जनों स्वयंसेवकों ने ड्रम, ट्रम्पेट और टकराती हुई झांझों के साथ कैंपस में मार्च किया. कई लोग पारंपरिक शाखा लाठी भी लिए हुए थे.
कुछ महिलाएं फुटपाथ पर खड़ी थीं और इस सभी पुरुषों की परेड पर फूल बिखेर रही थीं. केसरिया झंडा गर्व से लहरा रहा था उस कैंपस में, जिसे हाल तक, दक्षिणपंथियों ने “लेफ्ट विचारधारा का गढ़” बताया था.आरएसएस शताब्दी से पहले दर्जनों स्वयंसेवक जेएनयू कैंपस में मार्च करते हुए |
जहां दस साल पहले तक “आज़ादी” के नारे लगते थे, अब वहां “नमस्ते सदावत्सले मातृभूमे”—आरएसएस का प्रार्थना मंत्र जिसका अर्थ है “हे पवित्र मातृभूमि, मैं हमेशा तुम्हें नमन करता हूं”—गूंजता है. पिछले कुछ साल में विश्वविद्यालय ने नाटकीय रूप से बदलाव देखा है, ऐसा एक जोशीले न्यूज़ एंकर ने जेएनयू की कुलपति और स्वयं एक स्वयंसेविका, शांति श्री धुलीपुड़ी पंडित से अगले दिन बातचीत में कहा.
उन्होंने टूटी-फूटी हिंदी में जवाब दिया, “यहां पहले सिर्फ वामपंथियों की कहानी चलती थी. दूसरों को उन्होंने कभी अनुमति नहीं दी.”
कुलपति ने वामपंथी पार्टियों का उल्लेख करते हुए कहा, अगर आरोप हैं कि आज जेएनयू का कैंपस बीजेपी-आरएसएस कार्यालय का विस्तार जैसा लगता है, तो यह सिर्फ इसलिए है कि कुछ साल पहले तक यह “वामपंथियों का कार्यालय, सीपीआई-सीपीआई-एम का कार्यालय” जैसा लगता था.
1969 में भारत के पहले प्रधानमंत्री की याद में स्थापित जेएनयू लंबे समय तक देश में लेफ्ट विचारधारा की सांस्कृतिक और बौद्धिक प्रभुत्व का प्रतीक रही है. सीताराम येचुरी से प्रकाश करात, प्रभात पट्टनायक से उत्पा पट्टनायक और जयति घोष तक, देश के आर्थिक और राजनीतिक वामपंथ के कुछ प्रमुख प्रकाश स्तंभ जेएनयू से आए हैं, जिससे यह देखा जा सकता है कि विश्वविद्यालय ने सक्रिय रूप से और विशेष रूप से वामपंथी बौद्धिकता को बढ़ावा दिया.हालांकि, ऐसा इसे बनाते समय नहीं सोचा गया था.
1965 के संसद के शीतकालीन सत्र में, नेहरू की मृत्यु के एक साल बाद, यह चर्चा हुई कि जेएनयू किस प्रकार का विश्वविद्यालय होना चाहिए. अपने नाम के अनुरूप वैचारिक संगति के लिए, यह तय किया गया कि विश्वविद्यालय उन आदर्शों का प्रतिनिधित्व करे जिन पर जवाहरलाल नेहरू स्वयं चलते थे—धर्मनिरपेक्षता और विश्व नागरिकता, सामाजिक न्याय और वैज्ञानिक दृष्टिकोण, अंतरराष्ट्रीय मामलों में रुचि और विश्व शांति के प्रति प्रतिबद्धता.लेकिन आलोचनात्मकता इन सभी पर हावी होनी थी.
तब के शिक्षा मंत्री एम.सी. चागला ने संसद में जोश से कहा कि आलोचनात्मकता, यानी बहस और संवाद, विश्वविद्यालय की अंतर्निहित संस्कृति होनी चाहिए. धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय, “वो सिद्धांत जिनसे पूरा देश सहमत है”, भी कठोर नहीं किए जा सकते, उन्होंने कह और भविष्य के छात्रों और शिक्षकों से अपील की कि वे इन आदर्शों की भी आलोचना करें, जबकि वे इन पर प्रतिबद्ध रहें.शायद यह आलोचनात्मक भावना ही थी जिसने जेएनयू की राजनीति को कांग्रेस से दूर रखा और अक्सर इसका सबसे मुखर आलोचक बना दिया.
क्या विश्वविद्यालय का सत्ता-विरोधी चरित्र इसकी ताकत थी, या जैसा कि कई दक्षिणपंथी विचारक शिकायत करते हैं, यह हर नई पीढ़ी के साथ बढ़ता हुआ एक अनिवार्य फैशन था? क्या जेएनयू वास्तव में एक वैचारिक मोनोलिथ था, जहां केवल वामपंथ के विचार ही पनप सकते थे?
और आखिरकार, जेएनयू की असाधारणता को ऐतिहासिक, संस्थागत और राजनीतिक रूप से कैसे समझा जाए, यह सवाल उन लोगों द्वारा भी माना गया जिन्होंने 2014 से पहले दशकों तक विश्वविद्यालय की राजनीति के किनारे पर खुद को पाया—वह साल जब बीजेपी ने केंद्र में निर्णायक रूप से सत्ता हासिल की.
‘पूरी तरह नई तरह की यूनिवर्सिटी’
2020 में, जेएनयू की स्थापना के 50 साल बाद और “स्टेट-फंड वाले विद्रोह का प्रतीक” होने के आरोप के चार साल बाद, विश्वविद्यालय के कुछ प्रमुख शिक्षाविदों ने JNU Stories: The First 50 Years नामक एक किताब प्रकाशित की.
किताब के अध्यायों के नाम—The Classroom, Philosophy at Night, Learning Outside the Classroom, An Accidental Education, Sweet Chai and Restless Thinking—जेएनयू की असाधारणता के बारे में आम धारणाओं को मजबूत करते प्रतीत होते हैं.
जेएनयू में राजनीति, राजनीतिक दर्शन और सिद्धांत के सवाल रोजमर्रा की चिंता का हिस्सा हैं, जैसा कि भारतीय राजनीतिक दर्शन के प्रख्यात विद्वान सुदीप्ता कविराज ने किताब में लिखा है, हर रात जेएनयू के मेस और ढाबे जादुई रूप से “विचारों के अजीब एम्फीथिएटर” में बदल जाते हैं.
इस प्रक्रिया में, छात्र जीवन के सामान्य विचार अक्सर पलट जाते हैं. जटिल राजनीतिक सिद्धांत के सवाल केवल कक्षाओं में ही नहीं, बल्कि छात्रों के खाली समय को भी ज़िंदा कर देते हैं.
यहां तक कि कैंपस की दीवारें भी केवल राजनीतिक दर्शक नहीं हैं.
‘Left and Right Hindus of the world unite, you have everything to lose but your caste,’ ‘Whose wealth, whose commons, whose games? Unaccounted drain of public money, displacement and destruction of livelihoods of Delhi’s poor, denial of wages. Commonwealth or Cruel Games?’,
‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’, ‘Art should disturb the comfortable and comfort the disturbed’—जेएनयू की ये सर्वव्यापी भित्ति चित्र इसकी जीवंत राजनीतिक ज़िंदगी में सक्रिय रूप से भाग लेते हैं. हर गर्मी की छुट्टी में छात्र चांदनी चौक में जाकर रंग, ब्रश और कागज ख़रीदते हैं, जैसे कोई अनुष्ठान हो.
पांच दशक पीछे जाएं, तो समझ आता है कि यह सब संयोग नहीं है. जेएनयू की असाधारणता इसकी स्थापना में लिखी गई थी.
1950 के दशक तक, दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंख्या के दबाव से फटने ही वाली थी. राष्ट्रीय राजधानी की एकमात्र यूनिवर्सिटी, यह नई राष्ट्र की शैक्षिक आकांक्षाओं को पूरा करने में संघर्ष कर रही थी. अवसंरचना टूट रही थी, फैकल्टी और फंड पर्याप्त नहीं थे और छात्रों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही थी.
1963 में, चागला ने नेहरू के पास एक योजना लेकर गए. उन्होंने कहा, विश्वविद्यालय को साउथ दिल्ली में नया कैंपस चाहिए. नेहरू ने सहमति दी, फिर, चागला ने अगले सवाल के साथ कुछ हिचकिचाहट दिखाई. उन्होंने नेहरू से कहा कि नए कैंपस का नाम “जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय” रखा जाना चाहिए. नेहरू गुस्से में आए.
चागला ने वर्षों बाद आत्मकथा में नेहरू को याद करते हुए लिखा, “तुम जानते हो कि ज़िंदा व्यक्तियों के लिए स्मारक बनाने के बारे में मेरी क्या राय है, यह पूरी तरह गलत है. ज़िंदा व्यक्तियों की कोई मूर्तियां नहीं बनाई जानी चाहिए और न ही संस्थाओं का नाम उनके नाम पर रखा जाना चाहिए.” नेहरू ने सुझाव दिया कि विश्वविद्यालय का नाम “रायसीना यूनिवर्सिटी” रखा जाए.
मई 1964 तक नेहरू का निधन हो गया. अब नए कैंपस का नाम उनके नाम पर ही नहीं रखा जा सकता था, बल्कि इसे उनके स्मारक के रूप में भी योग्य होना चाहिए था. यह अब दिल्ली विश्वविद्यालय का केवल एक विस्तार नहीं हो सकता था. इसे एक पूरी तरह नया और सबसे महत्वपूर्ण, एक पूरी तरह नया प्रकार का विश्वविद्यालय होना था.
अगले कुछ साल तक, देश के प्रमुख शिक्षाविद, परोपकारी, उद्योगपति और विधायक सभी मिलकर विचार करते रहे कि जेएनयू किस प्रकार का विश्वविद्यालय होना चाहिए. पहली ईंट रखे जाने से पहले ही, विश्वविद्यालय को नवोदित राष्ट्र की बौद्धिक जिंदगी का आधार बनने का भाग्य मिल चुका था.
1964 में स्थापित जवाहरलाल नेहरू मेमोरियल फंड (JNMF) के ट्रस्टी रहे दिवंगत जेआरडी टाटा का मानना था कि विश्वविद्यालय को फ्रांसीसी “Grand Ecoles” की तरह बनाया जाए—संस्थान जो नेपोलियन बोनापार्ट के समय से सार्वजनिक सेवा के लिए प्रतिभाशाली लोगों को तैयार करते थे, जहां केवल सबसे मेधावी दिमाग ही प्रवेश कर सकते थे.
टाटा ने लिखा, “यह ज़रूरी है, कि सामान्यता की सूखी जमीन में कहीं-कहीं उत्कृष्टता का नखलिस्तान हो.”गांधीवादी शिक्षाविद और राज्यसभा के मनोनीत सदस्य जी. रामचंद्रन ने संसद में कहा था, विश्वविद्यालय किसी अन्य जैसा नहीं होना चाहिए था, यह छात्रों का होना चाहिए था, प्रोफेसरों का नहीं—एक छात्र गणराज्य, जहां छात्रों को पाठ्यक्रम, सिलेबस और विश्वविद्यालय के पूरे काम और जीवन के निर्माण में पूर्ण अधिकार हों.
छात्रों का चयन और मूल्यांकन कैसे होगा? वे किस पृष्ठभूमि से आएंगे? फैकल्टी को पदोन्नति कैसे मिलेगी—मेरिट या वरिष्ठता के आधार पर? छात्रों और फैकल्टी के बीच पदानुक्रम कैसा होगा? नेहरू के राज्य नियोजन के प्रति आदर के रूप में, महीनों तक सरकारी समितियों, संसद और यहां तक कि फोर्ड फाउंडेशन ने जेएनयू की स्थापना के सिद्धांतों और प्रशासनिक कार्यप्रणाली के हर छोटे-बड़े विवरण पर चर्चा की.
जेएनयू की लंबी, जंगल जैसी सड़कों और खुरदरी चट्टानों का नज़ारा संयोग नहीं है; यह भू-दृश्य असाधारण ध्यान से डिज़ाइन किया गया था |
यहां तक कि विश्वविद्यालय की वास्तुकला और परिदृश्य भी असाधारण विस्तार से सोचा गया था, जो एक अपेक्षाकृत निरक्षर, नवोदित गणराज्य के लिए दुर्लभ था.
विश्वविद्यालय के कैंपस डिज़ाइन मैनुअल में कहा गया है, “मानसून नालों के सूखे चैनल, खड्ड और घाटियां, मिट्टी के कटाव से बनी संरचनाएं, बेकार खदानें, अवशिष्ट पहाड़ी, खड्ड वाले मैदानों पर बिखरे पत्थर, लहराती घाटियां और उपत्यकाएं—यह सब प्रकृति द्वारा प्रदान किया गया है.”
हॉस्टल भवन—ब्रह्मपुत्र, गंगा, गोदावरी, कावेरी—भारतीय नदियों के नाम पर रखे गए, जो राष्ट्रीय एकता का प्रतीक थे. लंबी, जंगल जैसी सड़कें और खुरदरी चट्टानें, जहां छात्र अब भी बेपरवाह घूमते हैं, संयोग नहीं थीं.
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