लड़ाई रूस ने छेड़ी है, पर नाटो भी निर्दोष नहीं,कैसे?

लड़ाई रूस ने छेड़ी है, पर नाटो भी निर्दोष नहीं,कैसे?

०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
PETS Holi 2024
previous arrow
next arrow
०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
PETS Holi 2024
previous arrow
next arrow

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

जब यूक्रेन जैसा कोई बड़ा टकराव उभरकर सामने आता है तो पत्रकारगण खुद से पूछते हैं- मैं किसकी तरफ रहूं? मौजूदा हालात में, मैं तो कहूंगा- किसी की भी तरफ नहीं। इस टकराव को समझने की एक ही सही जगह है और वह है रूसी राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन के दिमाग के भीतर। पुतिन स्तालिन के बाद रूस के सबसे ताकतवर और निरंकुश नेता हैं और इस युद्ध की टाइमिंग उनकी महत्वाकांक्षाओं, रणनीतियों और मुसीबतों का परिणाम है।

लेकिन इस आग को भड़काने में अमेरिका की भूमिका भी कम नहीं। वो कैसे? पुतिन का मानना है कि यूक्रेन का उनके प्रभाव-क्षेत्र से बाहर निकलना न केवल एक रणनीतिक क्षति है, बल्कि यह उनका और एक देश के रूप में रूस का निजी तौर पर अपमान भी है। सोमवार को अपनी स्पीच में पुतिन ने साफ शब्दों में कहा कि यूक्रेन को स्वतंत्र होने का कोई अधिकार नहीं, क्योंकि वह रूस का अभिन्न अंग है और यूक्रेन के लोगों का रूस से ‘रक्त-सम्बंध’ है।

यही कारण है कि यूक्रेन की निर्वाचित सरकार के प्रति पुतिन का रोष किसी ‘भू-राजनीतिक ऑनर किलिंग’ जैसा मालूम होता है। पुतिन वास्तव में यूक्रेनियों (जिनमें से अधिकतर नाटो के बजाय यूरोपियन यूनियन में शामिल होना चाहते हैं) से यह कहना चाह रहे हैं कि ‘आपको गलत व्यक्ति से प्यार हो गया है, आप ईयू या नाटो के साथ गठबंधन नहीं कर सकते, और अगर इसके लिए मुझे आपकी पिटाई करना पड़े और खींचकर वापस घर लाना पड़े, तो मैं वैसा करने से चूकूंगा नहीं।’

यकीनन, यह सब सुनने में बहुत भली बातें नहीं हैं, लेकिन इसके पीछे की भी एक कहानी है। क्योंकि पुतिन का यूक्रेन से लगाव महज रहस्यवादी राष्ट्रवाद का परिणाम भर नहीं है। 1990 के दशक के अंत और 2000 के दशक के आरम्भ में बहुतेरे अमेरिकी पूर्वी यूरोप में नाटो के विस्तारीकरण पर ध्यान देने से चूक गए थे। पोलैंड, हंगरी, चेक गणराज्य, लातविया, लिथुआनिया, एस्टोनिया जैसे ये देश पूर्व में या तो सोवियत-संघ का हिस्सा रहे हैं या उसके प्रभाव-क्षेत्र में रहे हैं।

यह कोई रहस्य नहीं है कि ये देश क्यों एक ऐसे गणबंधन का हिस्सा बनना चाहते थे, जिसमें रूसी आक्रमण की स्थिति में अमेरिका को उनकी मदद के लिए बाध्य होना पड़ता। आश्चर्य तो इस बात का है कि जो अमेरिका पूरे शीतयुद्ध में यह सपने देखता रहा कि एक दिन रूस में लोकतांत्रिक क्रांति होगी और एक ऐसा नेता वहां सत्ता सम्भालेगा, जो रूस को एक लोकतांत्रिक देश बनाते हुए पश्चिमी जगत से जोड़ देगा, वही शीतयुद्ध के अंत के बाद नाटो के माध्यम से रूस के घेराबंदी करने लगा था।

जब अमेरिका यह सब कर रहा था, तब बहुत थोड़े लोगों ने उससे सवाल पूछे थे, जिनमें इन पंक्तियों का लेखक भी सम्मिलित था। लेकिन हमारी एक नहीं सुनी गई। क्लिंटन प्रशासन में यह सवाल उठाने वाली सबसे महत्वपूर्ण आवाज रक्षा मंत्री बिल पेरी की थी। वर्षों बाद, 2016 में, उस समय को याद करते हुए पेरी ने गार्डियन समाचार पत्र से एक वार्ता में कहा था कि ‘आखिर के कुछ वर्षों में आप पुतिन को उनकी हरकतों के लिए दोषी ठहरा सकते हैं, लेकिन आरम्भिक वर्षों में- मुझे यह कहना ही होगा कि- अमेरिका ज्यादा दोषी था।

रूस की सीमा से लगे पूर्वी यूरोप के देशों में नाटो के विस्तारीकरण ने हमें एक गलत दिशा में धकेल दिया। उस समय हम रूस के साथ मिलकर काम कर रहे थे और वे इस विचार के अभ्यस्त होने लगे थे कि नाटो दुश्मन के बजाय उनका दोस्त हो सकता है। लेकिन अपनी सीमारेखा के निकट नाटो की गहमागहमी से वे बहुत असहज थे। उन्होंने हमसे अनुरोध किया था कि हम इस दिशा में आगे न बढ़ें।’

2 मई 1998 को सीनेट द्वारा नाटो के विस्तारीकरण को मंजूरी देने के तुरंत बाद मैंने जॉर्ज केन्नान- जो कि निर्विवाद रूप से रूसी मामलों के सबसे बड़े अमेरिकी विशेषज्ञ थे और मास्को में अमेरिकी राजदूत रह चुके थे- से बात की और इस पर उनकी राय जानना चाही। केन्नान ने कहा- ‘मेरे खयाल से यह एक नए शीतयुद्ध की शुरुआत है। यह एक बड़ी भूल है। ऐसा करने का कोई कारण नहीं था।

मुझे सबसे ज्यादा चिंता ये है कि रूस को एक ऐसे देश के रूप में चित्रित किया जा रहा है, जो पश्चिमी यूरोप पर हमला करने के लिए कमर कसे है। क्या लोग सच्चाई नहीं जानते? इस पर रूस की तरफ से बुरी प्रतिक्रिया मिलेगी और तब नाटो का विस्तार करने वाले बोलेंगे कि देखिए, हमने तो पहले ही कह दिया था कि रूस युद्ध चाहता है।’और यही हुआ है।

यह सच है कि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी और जापान जैसे एक उदारवादी तंत्र के रूप में विकसित हुए थे, उस तरह से शीतयुद्ध के बाद रूस का विकसित होना निश्चित नहीं था। वास्तव में लोकतांत्रिक प्रणालियों के साथ रूस का इतिहास सहज नहीं रहा है। फिर भी हममें से कुछ उम्मीद लगाए बैठे थे कि अगर रूस को नए यूरोपियन सुरक्षा तंत्र से बाहर करने के बजाय उसमें सम्मिलित किया जाता तो उसका अपने पड़ोसियों के प्रति रवैया बेहतर हो सकता था।

अलबत्ता इस सबके बावजूद यूक्रेन में पुतिन की कार्रवाई को जायज नहीं ठहाराया जा सकता है। बीते एक दशक में रूस की अर्थव्यवस्था में ठहराव आ गया था और पुतिन को बड़े आर्थिक सुधारों की तरफ जाना था, लेकिन उन्होंने नाटो का डर दिखाकर स्वयं को प्रतिशोध लेने को तत्पर राष्ट्रवादी नायक के रूप में प्रस्तुत करने का विकल्प चुना है। जबकि पुतिन भलीभांति जानते हैं कि नाटो यूक्रेन को सम्मिलित नहीं करना चाहता। यकीनन, यह पुतिन की लड़ाई है और उन्होंने स्वयं को रूस और उसके पड़ोसी देशों के लिए एक बुरा नेता सिद्ध किया है। लेकिन अमेरिका और नाटो भी इस मामले में पूरी तरह से निर्दोष नहीं हैं।

इस आग को भड़काने वाले दो मुख्य कारण हैं…
पहला है-1990 के दशक में- सोवियत संघ के पतन के बावजूद- नाटो को विस्तृत करने का अमेरिका का दुर्भावनापूर्ण निर्णय। दूसरा है पुतिन द्वारा रूसी सीमारेखाओं के पास नाटो के विस्तारीकरण का इस्तेमाल रूसियों को अपने पक्ष में लामबंद करने के लिए करना। पुतिन रूस को एक ऐसे आर्थिक मॉडल के रूप में निर्मित करने में नाकाम रहे हैं, जो उसके पड़ोसियों को उसकी तरफ खींचे।

Leave a Reply

error: Content is protected !!